| | |

शोध गाँधी का

अविनाश धर्माधिकारी

हमारी पीढ़ी के जनमने के एक दशक पहले ही गाँधीजी ने अंतिम बार 'हे राम' कहा था और हमारे होश सँभालने तक आस-पास से गाँधीजी गुम होते जा रहे थे। सिर्फ़ पीतल के पुतलों के रूप में ही वे खड़े दिखायी देते थे। उनके नाम का उपयोग करने वाले अधिकांश ढोंगी, स्वार्थी, अवसरवादी ही दिखायी देते थे, अत: ऐसा लगा था कि जिसका ये नाम लेते हैं, वह भी उन जैसा ही होगा। लेकिन विवेकानंद भी तब आस-पास कहाँ थे? उनका अवसान हुए तो पाँच दशक बीत चुके थे। परन्तु विवेकानन्द थे। हमारे बचपन की बढ़ती उम्र में चारों ओर विवेकानंद थे। घर में पिताजी की बातों में थे, उनके द्वारा लाकर घर में रखे गये 'समग्र वाङ्मय' में थे। उस समय हमारे यहाँ एक वृद्ध स्वामी आया करते थे, स्वामीजी को प्रत्यक्ष देखनेवालों में वही बचे थे। उनसे विवेकानंद के जीवन की घटनाएँ और बातें सुनते हुए विवेकानंद प्रत्यक्ष होते गये, मात्र पुस्तकीय नहीं रहे। ऐसा प्रतीत होता कि वे हमारे घर में, हमारे साथ ही रहते हैं। और 'प्रबोधिनी' में काम करते हुए तो विवेकानंद का विचार-विश्व ही आसपास होता था। मात्र गाँधीजी खो गये थे।

गाँधीजी मिले और इस प्रकार मिले कि उनका खोना भी परोक्षतया उपयोगी रहा। सर्वप्रथम हमारे सम्मुख वे एक वृद्ध, सैडिस्ट और लगभग उन्मादी के रूप में आये। 'ती पाहा, ती पाहा, बापूजींची प्राणज्योत' कविता सिखानेवालों ने उन्हें अपनी दृष्टि से मढ़कर हमारे सामने प्रस्तुत किया। विवेकानंद के शब्दों में, विचारों में चिंगारी थी, युवा के लिए साहस का आह्वान था, `िवजय प्राप्त होने तक रुको मत' कहने वाली मस्ती थी। वह योद्धा संन्यासी चिर तरुण था। उनकी तुलना में सत्य-अहिंसा के माल से लदा यह बूढ़ा बिल्कुल फीका और ढुलमुल लगता था। हमारी नन्हीं अंगुलियों को पकड़कर जिन्होंने 'राष्ट्रपिता' दिखाया, उन्होंने हमारे मन पर यही छाप छोड़ी, जो समय के साथ उभरती गयी, यहाँ तक कि वह गाँधी-द्वेष के रूप में परिणत होती गयी। कभी-कभी मुझे प्रतीत होता है कि गाँधी की हत्या के पश्चात् जन्म लेने वाले बच्चे-सही कहें तो गाँधी-हत्या के बाद के महाराष्ट्र के दंगों के काल में-या यों कहें कि मध्यवर्गीय ब्राह्मण घरों में जन्म लेने वाली मेरी पीढ़ी, जाने-अनजाने गाँधी-द्वेष की जन्मघूँटी पीकर ही जनमी और बढ़ी। पूर्णत: जाने-अनजाने।

मुझे अभी देश का अर्थ मालूम न था-पर यह मेरे देश का बँटवारा करनेवाला गाँधी। सामाजिक सरोकारों का परिचय नहीं था, फिर भी अल्पसंख्यकों का अनावश्यक लाड़ करनेवाला यही है। गोडसे से लेकर लोहिया तक सभी ने इन्हीं विविध इप्रेशन्स को प्रमुख रूप से उभारा और हद तो यहाँ तक हुई कि कहा जाने लगा, अहिंसा यानी एक गाल पर थप्पड़ पड़े तो दूसरा गाल सामने कर दीजिए। 'यह कैसी अहिंसा? यह तो कायरता है। और कायर होने या अन्याय सहन करने की अपेक्षा हिंसा का उपयोग बेहतर है' यह कहकर लाखों में निर्भयता जागृत करनेवाला, पौरुष को पुकारनेवाला महात्मा बहुत बाद में समझ में आया।

स्कूल में सावरकर बाई ने अंग्रेज़ी पढ़ाते हुए 'टॉलस्टॉय फॉर्म' पाठ इतना सुंदर पढ़ाया कि लगा, अंग्रेज़ी सीखना तो सावरकर बाई से ही। गाँधीजी के दक्षिण अ़फ्रीका में किये गये प्रयोगों का वह पाठ। पंडितजी का 'लाईट हैज़ गॉन आउट' पाठ भी वैसा ही। एक तो पंडितजी की भाषा काव्यमय अंग्रेज़ी, उस पर प्रसंग महात्माजी की मृत्यु का और पढ़ानेवाली सावरकर बाई। उस समय सब कुछ मिलाकर जो ध्यान में रह गया, वह थी अंग्रेज़ी भाषा। आशय कहीं मन के पिछले हिस्से में छिप गया होगा या बीज की तरह अंदर दब गया होगा।

तभी एक दोपहर, एक मामा से कुश्ती हो गयी। मामा राजनीति शास्त्र में रुचि रखने वाले प्राध्यापक थे। गाँधीजी के 'भक्त'। एक किसी अशुभ मुहूर्त पर उदित हुई दोपहरी में उन्होंने 'तू भूल कर रहा है' कहकर गाँधीजी की महानता मान्य करवाने का प्रयत्न करना शुरू किया। चिंगारियाँ उड़ीं। आवाज़ ऊँचाई की सीमा तक पहुँच गयी। अंत में मैंने उनसे कहा, ''तुम गुजराती हो, इसलिए गाँधीजी के प्रति तुम्हारा यह पक्षपात है।'' बस फिर तो स्फोट ही हो गया। अहिंसा की लड़ाई कलाई से सुलझाई जायेगी-ऐसा रणांगन तैयार हो गया। माँ और दादाजी ने बीच-बचाव किया। 'बड़ों को तो धीरज से काम लेना चाहिए' कहकर मामा को एक ओर किया। जाते-जाते भी मामा कहते गये-''एक दिन तुझे अवश्य मानना पड़ेगा।'' उत्तर में ''अरे, जा रे'' कहा तो ज़रूर, लेकिन क्रोध का आवेश थमने पर मामा ने लगभग समझाते हुए कहा, ''अरे, जिन्हें इतनी गालियाँ देता है, वह क्या था? कैसा था? इसको ज़रा जान तो सही।''

लगा कि अपने इस उथले गाली-गलौज में एक अन्याय है। यह अहसास भी दशक की दहलीज पार करने के बाद हुआ। सम्भवत: 'टॉलस्टॉय फॉर्म' और 'लाईट हैज़ गॉन आउट' के माध्यम से दबा बीज अंकुराने लगा था।

शोध शुरू किया। इसी समय मेरे अनजाने ही मैं-हम-आप के त्रिक् की तलाश शुरू हो गयी थी। महात्मा के शोध का 'व्यास' भी इसी से जुड़ गया। सबसे पहले हाथों में आया मृणालिनी देसाई द्वारा रचित चरित्र 'पुत्र मानवाचा'। मराठी में इस कोटि का ऊँचा चरित्र दुर्लभ होगा। कहीं भी व्यक्तिपूजा नहीं, फिर भी व्यक्ति की महानता अत्यन्त सहज रूप से स्पष्ट की गयी। तब लगा, 'अरे! ऐसे थे गाँधीजी'। अभी और तलाश करनी चाहिए। शोध जारी रहा। अध्ययन चलता रहा। अपने अस्तित्व का रहस्य धीरे-धीरे उभर रहा था। स्व, अंतर्मन, समाज, समूह आदि शब्द उलझन में डालने लगे थे। बढ़ती उम्र के साथ मन की परेशानियाँ भी बढ़ने लगी थीं। सारे मोहपाश मन से खींचतान कर रहे थे। इन्हीं दिनों में 'सत्य का प्रयोग' से परिचय हुआ। भाषा की सहजता, मनुष्य की सरलता, उन्मुक्तता और अपनी खोज के साथ असीम धैर्य से सत्य के प्रयोग करते हुए `िहमालय जैसी भूलों' को अत्यन्त प्रांजलता से क़बूल करने का साहस दिखाने वाले इस 'सत्य के प्रयोग' ने कुछ ऐसा आकर्षित किया कि पुस्तक नीचे रखी और मामा को फ़ोन करके आनंदपूर्वक कहा, ''मैं क़बूल करता हूँ मामा! मैं हार गया।'' यह ऐसा शोध था, जिसमें हार कर भी आनन्द मिल रहा था। इसे पाने में इतना समय कैसे लगा-इसी का खेद हुआ, आश्चर्य हुआ। हमारी एक बैठक में एसअ एमअ ने कहा था-(हाँ, वही, एसअ एमअ जोशी, परिचित होंगे ही)-''हमें गाँधी को समझने में बहुत दिन लगे। पहले यों ही उनके पीछे चले, क्योंकि सभी उनके पीछे जाते दिखते थे। अहिंसा का अर्थ समझ में नहीं आया था, मान्य नहीं था, लेकिन इतना लगता था कि यदि ब्रिटिश से कोई मुक्ति दिला सकता है तो वह गाँधी ही है। इसलिए उनके पीछे चले। गाँधीजी का वास्तविक स्वरूप हमें प्रथम अणुस्फोट के पश्चात् और भारत की स्वतंत्रता के बाद ही समझ में आया। आज भी हम उन्हें पूर्णरूप से समझ पाये हैं-यह नहीं कह सकते...।' ये थे एस. एम.।

सोचा, फिर ठीक ही है, साक्षात् एसअ एमअ के साथ ऐसा हुआ तो हम किस झाड़ की पत्ती हैं। खोज में लगे रहते हैं। किसी और के द्वारा बताये या सिखाये जाने की अपेक्षा यह बहुत अच्छा हुआ कि इस महात्मा को हमने स्वयं ढूँढ़ा। तत्पश्चात् विनोबा से भेंट। बाबा आमटे से परिचय। पुस्तक के अनेक पन्नों की संगत। दाअ नअ शिखरे के गाँधी चरित्र, आचार्य जावड़ेकर के 'आधुनिक भारत' (जो गीता-रहस्य के पश्चात् मराठी का श्रेष्ठ ग्रंथ है) से लुई फ़िशर, विलियम शिरर, रोम्याँ रोलाँ, `िप्रय बाई' के लेखक तरुण इटालियन विद्यार्थीं, लेपिए कॉलिन्स द्वारा दिया गया `़फ्रीडम एट मिडनाइट', ऑर्थर कोसलर और एडवर्ड्स द्वारा गाँधीजी पर की गयी आलोचनात्मक कठोर टीका, तेंदुलकर-लिखित गाँधी चरित्र के आठ खण्ड, इनके अलावा शासन ने 'समग्र गाँधी वाङ्मय' के सत्ताइस खण्ड मात्र साठ रुपये में देकर लाख-लाख उपकार किया।

हमारी 'जख़्मी संस्कृति' के निर्मम भाष्यकार वीअ एसअ नायपाल की नज़रों से भी गाँधीजी छूटे नहीं। नायपाल कहते हैं कि गाँधीजी भारतीय संस्कृति के ही परिपक्व फल हैं। यह दूसरी बात है कि आगे जाकर उनका ही कहना है कि इस गाँधी 'वाद' के विघटन और पतन के बीज भी इसी भारतीय संस्कृति में हैं। ठेठ ऐतिहासिक जड़वाद से अध्यात्म तक की यात्रा का अंकन करने वाली जयप्रकाशजी की 'मेरी विचार यात्रा' भी गाँधीजी के सौजन्य से आयी। पंडितजी का 'आत्मचरित्र' और 'भारत की खोज' आदि पुस्तकों के कितने नाम गिनाऊँ? इन सब के माध्यम से ‘Half naked Fakir’ ही प्रत्यक्ष जीवन में अधिक-अधिक आता गया। गाँधीजी के अनेक रूपों में दिखायी दिये-गुवाहाटी के नज़दीक एक टीले पर अपनी साधना में मग्न रहने वाले अमल प्रभादास, त्रिवेन्द्रम के कॉयल के किनारे जनार्दन पिल्लै, चंडीगढ़ के एक सेक्टर में टिके हुए जसवंस राय, एक पुंडलीकजी कातगड़े, एक भाऊ धर्माधिकारी। सभी अपनी-अपनी निष्ठा में दृढ़। कभी-कभी लगता कि इस निष्ठा की आख़िर सार्थकता ही क्या है? बहुधा काल-बाह्य हो चुका है। परन्तु उनकी पागलपन की सीमा तक पहुँची इस निष्ठा पर आश्चर्य होता। तिलक को मंडाले की सज़ा हुई। उस समय चाय, शक्कर आदि छोड़ देने वाले वृद्धों से आज भी बीच-बीच में भेंट हो जाती है-तब प्रतीत होता है कि ये दादाजी आज भी तिलक के साथ ही जी रहे हैं। ऐसे भावनात्मक सामर्थ्य वाले धन्य हैं, जिन्हें आज भी तिलक, गाँधी का साथ प्राप्त है। 'प्रेमाताई कंटक' से परिचय होने के बाद गाँधी-शोध का यह रंग भी प्राप्त हुआ। घर पर अक्सर आनेवाले स्वामी आत्मानंद जैसे विवेकानंद के आसपास होने का अनुभव प्रदान करते थे, वैसा ही अनुभव गाँधीजी के बारे में प्रेमाताई ने करवाया। ऐसे अनेक थे। सभी वृद्ध भी नहीं थे, बहुत-से तरुण भी थे। हाँ, यह स्वीकार है कि उनकी संख्या कम थी और कम होती जा रही थी। जेनरेशन गैप की आँच भी दिखायी पड़ने लगी थी।

पीढ़ियों के अन्तर के संघर्ष की चिंगारी जानने के साथ गाँधीजी को जानना भी संभव हुआ। उनके अलग-अलग प्रतिरूपों में नहीं, प्रत्यक्ष परदे पर। परन्तु ऐटेनबैरो के 'गाँधी' में नहीं। एमअ एअ (इतिहास) करते समय नेशनल आर्काइव्ज़ में कई मूल फिल्में देखने का अवसर मिला। उसमें हँसते-बोलते गाँधीजी थे। छाया-प्रकाश के रूप में ही, परन्तु उनकी आवाज़ सुनी और वह आवाज़ सीधे मन में प्रवेश कर गयी। वह शांत, स्थिर, अभिनिवेशरहित, परन्तु गम्भीर आवाज़। फिर तो इतिहास, अर्थशास्त्र, इस अस्वस्थ दशक की वस्तुस्थिति सभी में वही शांत और गम्भीर आवाज़ विभिन्न रूपों में कानों से टकराती रही। तब तक समझ में नहीं आता था कि बाह्यत: अत्यन्त अनाकर्षक, रूखे-सूखे लगने वाले इस सनातनी बूढ़े ने चार्ली चैप्लिन, आर्चबिशप ऑफ कैंटरबरी और अल्बर्ट आइन्स्टाइन जैसे विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिभावानों को भला कैसे आकर्षित किया होगा। अरे! जीवित रहते हुए तो इन प्रतिभावानों को आकर्षित किया ही, परन्तु सदेह अस्तित्व समाप्त होने के बाद भी मार्टिन लूथर किंग, ड्यूबचेक, लेक वॉलेसा, अक्विनो आदि तक यह गाँधी पहुँचे कैसे? कौन-सी शक्ति है यह? 'हाड़-मांस का बना एक ऐसा मनुष्य इस पृथ्वी पर जनमा था, इस पर आने वाली पीढ़ियाँ विश्वास नहीं कर पायेंगी...' आइन्स्टाइन ने यह वाक्य कहा होगा, विश्वास नहीं होता था। इतिहास, अर्थशास्त्र के अध्ययन-क्रम में ऐडम स्मिथ-माल्थस-रिकार्डो-मार्शल और केन्स से लेकर मार्क्स-लेनिन-माओ तक का परिचय प्रारम्भ हुआ। इस दशक की मानसिक हलचल जैसे-जैसे समझ में आती गयी, वैसे-वैसे इस वाक्य पर विश्वास होने लगा। कानों से टकरायी वह शांत और गंभीर आवाज : ‘I must find my peace amongst turmoil’–अर्थात् 'मुझे अपनी शांति आँधी में से ही ढूँढ़नी है।' जीवन को मोक्ष का साधन मानने वाले महात्मा। अध्यात्मप्रवण, परन्तु उनकी आध्यात्मिकता मात्र शब्द-जाल न थी। जीवन से दूर, गिरि-कंदराओं में ध्यान लगाकर बैठने वाली न थी। 'दरिद्रनारायण' शब्द से पूर्णत: जुड़ी हुई थी। यहीं, इस संसार में रहकर, मनुष्य की तरह जीवन जीकर मुझे अपनी शांति प्राप्त करनी है : यह कर्मप्रवण आध्यात्मिकता थी। मन में विवेकानंद से महात्माजी तक का एक महामार्ग निर्मित हो गया। इस महामार्ग पर क़दम तेज़ी से बढ़ने लगे।

किसी एक को नीचा दिखाकर ख़ुद सम्मानित होनेवाले भाव को देख गाँधीजी ताज्जुब करते थे। प्रतिक्रिया से जन्म लेने वाला व्यक्ति, समाज और देश भी द्वेषमूलक और प्रतिक्रियावादी होगा। गाँधीजी ने इससे बचते हुए देश के स्वतंत्रता-संग्राम को आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया। भारतीय राष्ट्र के विचार को एक आकार मिला। ब्रिटिश से लड़ना है, परन्तु द्वेष नहीं करना है। निर्वैर भाव से अपना 'स्वत्व' स्थापित करने का यह राष्ट्रवाद भारतीय मिट्टी से उपजा। 'सारे जगत् में पवित्र और मंगलमय सुरों में उद्घोष करो कि यह प्राचीन भारतभूमि पुन: जागृत हो रही है'। विवेकानंद का यह कथन भारतीय राष्ट्रविचार का प्रथम हुंकार था। एक संन्यासी के श्रीमुख से नि:सृत होना भी अर्थपूर्ण था। यह उद्घोष भी कैसे किया जाय? चीख-चिल्लाकर नहीं, पवित्र और मंगलमय सुरों में। बाद के स्वतंत्रता-आंदोलन ने यह सब कर दिखाया। प्राचीन भारतभूमि गाँधी के स्पर्श से जागृत होकर आधुनिक भारतम् बनने का प्रयत्न करने लगी। गाँधीजी इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के सर्वोत्तम प्रतिनिधि भी हैं और निर्माता भी। भारतीय राष्ट्रविचार का विश्व-राष्ट्रविचार से एक शृंखला की दो कड़ियों की तरह, सुसंगत होने का यह ऐतिहासिक प्रवाह था।

श्री अरविन्द ने उक्रांति की प्रक्रिया को `िवस्तृत बोध का वर्तुल' कहा है। इसका आंतरिक वर्तुल है राष्ट्र और 'वसुधैव कुटुंबकम्' बाहरी-ज़्यादा विस्तृत वर्तुल। उक्रांति की ही एक रेखा के छोर हैं ये। बचपन में पढ़ी उस 'ती पाहा, ती पाहा, बापूजींची प्राणज्योत' कविता में ऊपर, दूर, क्षितिज पार जाते हुए क़दमों के चित्र का वास्तविक अर्थ अब थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा था। जो थोड़ा अर्थ समझने लगा था, उससे कहीं अधिक समझ में न आनेवाले अर्थ ध्यान में आने लगे थे। परन्तु मुझे कुछ ज्ञात नहीं-कुछ भी ज्ञात नहीं-इसका भान होना भी एक सतत प्रवास ही है। इस प्रवास में कभी-कभी साथ होते गाँधीजी और वही मुझे उलझाने वाला प्रश्न : मुझे क्या करना चाहिए?

ऐसे समय में गाँधीजी ने 'मैं आपको एक नुस्खा बताता हूँ' कहकर एक रामबाण उपाय सुझाया। इस स्वतंत्र देश के लिए उन्होंने एक कसौटी प्रदान की, जिस पर अपने मन के प्रश्नों को कसना आवश्यक है।

'जब कभी कोई योजना बनाते हुए या उसको कार्यान्वित करते हुए आपके मन में प्रश्न उठे कि 'क्या करें ?', तब अपनी आँखों के समक्ष समाज की अंतिम सीढ़ी पर खड़े सबसे आख़िरी आदमी को लाइए। जिससे उसका हित हो, वही करना चाहिए, वही योजना अमल में लानी चाहिए।'

कितने सरल और सीधे शब्द। अंत्योदय का यह विचार।'आख़िरी आदमी' आँखों के समक्ष लाते ही पता चल जाता कि दांडी यात्रा में, बड़े हौंस और उत्साह से स्वयं सीकर एक कमीज भेंट देने वाली लड़की से गाँधीजी को तीस कोटि शर्ट क्यों चाहिए थे? सर स्ट्रफोर्ड क्रिप्स को अत्यन्त चतुराई से 'अर्धनग्न' गाँधीजी ने क्यों कहा था कि मेरे हिस्से के कपड़े आपकी रानी ने पहन लिए हैं, इसलिए मैं अर्धनग्न हूँ।' इस 'आख़िरी आदमी'-इस भारतीय को ध्यान में रखकर, उसे जगाते हुए ही गाँधीजी ने स्वतंत्रता-संग्राम लड़ा। कितने सीधे और कम शब्दों में क्रिप्स को ब्रिटिश साम्राज्यवाद, शोषण, टेक्सटाइल उद्योग की स्थिति, आयात-निर्यात का असंतुलन, कच्चे माल से पक्के माल बनने के मध्य ब्रिटिशों का भारतीय पूँजी हड़पना आदि भारतीय दारिद्र्य का मूल उघाड़ कर कह डाला। 'भारतीय' अर्थशास्त्र की एक रेखा 'अंत्योदय' से शुरू होती है, जो बढ़ते-बढ़ते 'सर्वोदय' तक पहुँचती है। अर्थशास्त्रीय विचार के रूप में आज वे सब लागू न भी होते हों, क्योंकि नयी अर्थव्यवस्था के साथ नये उत्तर ढूँढ़ने ही पड़ते हैं, पर अचानक ही कभी 'गाँधीजी के जीन्स का अवतार' सामने खड़ा हो जाता है, नया अर्थशास्त्र बनाता है। उसका भी स्टार्टिंग पॉइंट गाँधीजी ही और दिशा-दर्शक सिग्नल-वही 'आख़िरी आदमी'।

इस आख़िरी आदमी के शोध में एक बार मावल क्षेत्र के कुछ गाँवों में भटक रहा था। किसी स्वयंसेवी संस्था को वहाँ अपना कोई उपक्रम शुरू करना था। वह उपक्रम क्या हो-यही जानने के लिए वहाँ के लोगों के बीच यह घूमना था। मुझे याद है, गाँव भर में फेरा लगाते रहने वाले, दसवीं फ़ेल एक ठाकर लड़के ने कहा-'कुछ भी ऱेजगार दो हमें।' कौन बोल रहा था इस आवाज़ के माध्यम से? गाँधीजी-'रोज़गार का प्रश्न सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। पहले हाथों को काम देना होगा।' गाँधीजी इस मुकाम पर अपने `िटपिकल' नैतिक मार्ग से पहुँचते हैं। हाथों को काम न हो तो मन में शैतान का प्रवेश होता है, व्यक्ति का नैतिक, आध्यात्मिक पतन होता है-इसलिए रोज़गार। 'वेज एम्प्लॉयमेंट थ्यौरी' का क ख ग जानने ही लगा था कि थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा कि भारतीय समस्या का गाँधीजी का निदान कितना अचूक था। तब भारतीय अर्थव्यवस्था : श्रमप्रधान या पूँजीप्रधान, निर्यातलक्षी विकास या विकासलक्षी निर्यात जैसे प्रश्न मात्र पुस्तकीय नहीं रह जाते। सामने खड़े दसवीं फ़ेल ठाकर लड़के का रूप धारण करते हैं और फिर उसका उत्तर भी मात्र काग़ज़ी घोड़ा नहीं हो सकता। 'कुछ भी रोज़गार दो हमें' ठाकर के मुँह से गाँधीजी का उत्तर ही व्यक्त होता है।

ऐसे सभी उत्तर गाँधीजी देते हों, ऐसा नहीं है, बल्कि इसके विपरीत कोई रेडीमेड उत्तर, तैयार फॉर्मूले या सिद्धांत देना गाँधीजी नकारते हैं। केवल तलाश के मार्ग की ओर उँगली दिखा देते हैं और ऐसी तलाश कैसे की जानी चाहिए-यह स्वयं जी कर दिखाते हैं। तभी तो 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है' कह सकते हैं। मैं वही संदेश खोजता गया।

गाँधीजी की एक अन्य गूढ़ता -भरी सच्चाई है उनकी 'अन्दर की आवाज़'। परन्तु शीशे के समक्ष खड़े होकर कोई भी अपने को ध्यान से निरखे, तो अनुभव होगा कि यह 'अंदर की आवाज़' हम सबके पास है, जो हमसे बात करने की कोशिश भी करती है। परन्तु हम ही उसका कहा सुनने की तैयारी में नहीं होते, क्योंकि हम बाहर की आवाज़ों में व्यस्त होते हैं। 'एक तरी ओवी अनुभवावी' को मान्य करके उस महात्मा के अंदर की आवाज़ की एक-एक ओवी मैं अनुभव करता गया, सुनता गया।

उत्तर प्रदेश के एक भूतपूर्व नेता की एक ऐसी ही ओवी सुनने का अवसर मिला। यह नेता स्वतंत्रता -संग्राम के समय गाँधीजी के सहकारी थे। स्वतंत्रता के पश्चात् की स्थितियों से त्रस्त होकर उन्होंने सार्वजनिक जीवन का त्याग कर 'भूतपूर्व' होना पसंद किया। इलाहाबाद काँग्रेस अधिवेशन के वर्ष की बात है। साल निश्चित याद नहीं आ रहा, परन्तु कुंभ-मेला का वर्ष था, इसलिए काँग्रेस का अधिवेशन इलाहाबाद में था। व्यासपीठ से बड़े-बड़े नेताओं के भाषण चल रहे थे और सामने भी बड़ी गड़बड़ी मची हुई थी। कुंभ मेला ही था वह। भारत का ही एक रूप। हर कोई अपने-अपने हिसाब से उन्हें शांत करके, अनुशासित करने का प्रयत्न कर रहा था, परन्तु असफल। एक के बाद दूसरे, सब चिल्ला-चिल्ला कर थक गये, अपने सूखे गले को पानी पिलाने अपनी-अपनी जगहों पर जा बैठे। शोर और कोलाहल सतत चालू था। तब गाँधीजी पहुँचे। व्यासपीठ में दाख़िल हुए और सामने पसरे प्रचण्ड जनसागर की ओर उन्होंने दोनों हाथ ऊँचे किये, फिर अपने दाहिने हाथ की उँगली अपने होंठों पर रखी। और बस वह विशाल महासागर शांत होने लगा, शांत हो गया। एक शब्द का उच्चारण नहीं किया और अठरापगड़ समाज नि:शब्द हो गया।

इस प्रसंग को सुनने मात्र से शरीर रोमांचित हो उठा, जिन्होंने इस दृश्य का प्रत्यक्ष अनुभव किया था, उनके प्रति मुझमें ईर्ष्या जगने लगी। खण्डप्राय भारत। वैविध्यपूर्ण मानवता के जितने नमूने हो सकते हैं, सब अपनी सर्व विविधता सहित हाज़िर। प्रवास करते हुए यह अधिक-अधिक दिखायी पड़ता था और इन सबमें से होकर निकलने वाला एक सूत्र। होंठें पर रखी एक महान् आध्यात्मिक, अद्वैत अंगुली-िक एकरस जनसागर नि:शब्द, उत्तर की तलाश में सज्ज एक राष्ट्र। यह राष्ट्र और मैं-इन दो बिन्दुओं को जोड़कर तैयार होनेवाली परिधि तक का यह दशक भर का प्रवास। दोनों बिंदुओं का ध्येय आइडेंटिटी-अस्मिता की तलाश, अस्मिता की पहचान और दोनों बिंदुओं की अस्मिता परस्परावलम्बी, परस्पर ही विलीन होने वाली। दशक-भर का प्रवास यानी इन दो बिंदुओं के मध्य फैले चुम्बकीय क्षेत्र के सीमित चित्र। गाँधीजी का शोध भी इसी में से एक भव्य चुंबकीय क्षेत्र रहा। जितने प्रमाण में गाँधीजी का व्यक्तित्व स्पष्ट होता गया, उतने प्रमाण में मैं और मेरे देश को जोड़ने वाला तत्त्व समझ में आने लगा। जितना इस तत्त्व का आकलन करने लगा, गाँधीजी उतने ही अधिक समझ में आने लगे। यह नाता ध्यान में आने पर तो इस यात्रा की लगन और तलाश की तीव्रता बढ़ती ही गयी। अपनी ओर खींचनेवाले, आह्वान देने वाले आकर्षक चुंबकीय क्षेत्र का-राष्ट्रीय जीवन के प्रश्नों का ज़रा-ज़रा ज्ञान होने लगा। इस बोध को प्रगल्भता देनेवाले इस प्रवास का प्रत्येक क़दम इस चुंबकीय क्षेत्र की सीमा भी विस्तृत करता गया। प्रवास दशक-भर चलता रहा था, आज भी उसी प्रकार चल रहा है। आगे के दशक-भर भी जारी रहेगा, उसके अनन्तर के दशक में भी और उसके बाद भी। यह प्रवास कभी समाप्त नहीं होता। अस्मिता का आविष्कार और शोध बहुत गहरा होता है, इसलिए प्रवास भी अनन्त है। गाँधीजी एक ऐसे ही प्रवासी थे, इसीलिए वे प्रेरक हैं। रास्ते के साथी हैं। इस तरह गाँधीजी का शोध एक हाड़-मांस वाले ऐहिक अस्तित्व का शोध नहीं रह जाता, व्यक्ति-केन्द्रित नहीं रहता, वह मेरी संस्कृति के शोध में रूपान्तरित हो जाता है। तब महात्माजी एक वैचारिक, आध्यात्मिक शक्ति के रूप होते हैं। इस संस्कृति द्वारा धारण किया गया बीसवीं सदी का एक सर्जनशील रूप और इसीलिए प्रेरक।

रिचर्ड बाख़ के 'इल्युज़न्स' में एक पात्र अपने मित्र को एक पुस्तक-मसीहा की गाइडबुक-देकर कहता है, 'जीवन में जब कभी तुझे किसी समस्या से उलझना पड़े और मार्गदर्शन की आवश्यकता महसूस हो, तब इस पुस्तक को खोल। तेरे आवश्यकतानुसार पुस्तक के पृष्ठ अपने आप तेरे सामने हाज़िर हो जायेंगे।' समस्याओं के उत्तर देने वाले मसीहा की ऐसी पुस्तकें अपने आसपास सर्वत्र बिखरी रहती हैं। हममें उसे पहचानने और अपने में उतारने की योग्यता होनी चाहिए। वह वाक्य था-There’s an eternal struggle going between man & destiny. Let’s continue it and leave the decision to God.’

एक बार पढ़ा, फिर और एक बार पढ़ा, फिर बार-बार। वाक्य की गहराई को समझने का प्रयत्न करने लगा। देखते-देखते मन के सारे प्रश्न, संभ्रम के सब भूत भाग गये, कुछ समय के लिए ही सही। वाक्य के लेखक थे-महात्मा गाँधी, जिन्हेंने यह वाक्य स्वयं पहले जी कर दिखाया था।

आसपास, चारों ओर प्रचण्ड उथल-पुथल है। मूल्यों की राख उड़ती दिखती है तो मूल्यों का विवेक रखकर तपस्या करने वाले वीरों की सेना का गठन भी दिखता है। निराशा का रोना तो अनेक रोते हैं-उसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता। अदम्य आशा के स्वर दमदार होते हैं। एक तरफ़ हम दिये से दिया जलाने की भाषा बोलते-सुनते हैं, परन्तु प्रत्यक्षत: कितने ही दिये बुझते दिखते हैं। फिर भी नये-नये दिये नित्य जलते रहते हैं। टेबल के उस ओर से एक अस्वस्थ दशक का अनुभव लेने के पश्चात् अब टेबल के इस ओर बैठने पर क्या करना उचित है-यह सोचते ही ख़्याल आता है कि अन्त:करण की अस्वस्थता अभी समाप्त नहीं हुई है। वैसे वह कभी समाप्त होती भी नहीं। 'किस रास्ते जाना है?' प्रश्न का साँप सरसराता हुआ अपनी ओर आता ही रहता है। और इसी में आनन्द भी है। रास्ते मुड़ते हैं, मुड़कर लुप्त होते दिखते हैं। मुड़ने की वेदना बेधती भी है। ऐसे प्रश्न चुनौती देते हैं-यही उनका काम भी है। तभी पैरों से रास्ते की पकड़ छूटती नहीं। आँधियाँ तो चलती ही रहती हैं। अनुत्तरित, निरुत्तर करने वाले प्रश्नों के घेरे बढ़ते जाते हैं-तब भी उनमें से एक अदम्य समूहगीत, शत कोटि का, 'कोटि-कोटि कंठ कलकल निनाद कर ले', समूहगीत कड़कता है।-'युग की जड़ता के खिलाफ़ एक इन्क़लाब है।' जड़ता, मूढ़ता, क्लैव्य आदि के विरुद्ध इन्क़लाब उठाना होगा, शांत अनाग्रही सर्जनशील इन्क़लाब और यह निर्वैर, विधायक इन्क़लाब कैसे करना होगा-बताने वाला आश्वासक स्वर है-'मुझे अपनी शांति आँधी में से ही ढूँढ़नी है।' बस आज का दिन व्यतीत करने के लिए इतना धैर्य काफ़ी है। 'कल' उदित होगा ही। सर्जनशील प्रयत्नों द्वारा उसका उत्सव मनाते हुए भविष्य की ओर क़दम बढ़ाना है।

(मराठी से रूपान्तर : डॉ. नीरा नाहटा)

| | |