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संपादकीय

महात्मा गाँधी की नीतियों और सिद्धान्तों के बारे में जहाँ कहीं मुझे पठनीय सामग्री मिलती है, उसे मैं पढ़ने के लिए लालायित रहती हूँ। शंकरदयाल सिंह द्वारा संपादित पुस्तक 'महात्मा गाँधी-प्रथम दर्शन : प्रथम अनुभूति' नामक पुस्तक हाथ आयी तो मैं उसे पूरा पढ़ गयी। इस पुस्तक में प्रकाशित श्री परीक्षित मजुमदार के एक लेख को मैंने दोबारा पढ़ा, जिसमें उन्होंने सन् 1932 की एक घटना का वर्णन किया है। यह घटना जितनी मामूली प्रतीत होती है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, बहुत ज़्यादा महत्त्वपूर्ण, ख़ास तौर पर हम सभी के आत्म-मंथन और आत्म-विवेचन के लिए। गाँधीजी उन दिनों यरवदा जेल में क़ैदी के रूप में सज़ा काट रहे थे। जेल का ही एक क़ैदी उनके लिए अँगीठी पर पानी गरम कर रहा था। पानी गरम हो जाने पर जैसे ही उसने बरतन उठाया, अँगीठी के जलते कोयले पर उनकी नज़र पड़ी। उस समय वे जेल के एक अफ़सर से बातचीत कर रहे थे। अपनी बात बीच में ही बन्द करते हुए गाँधीजी ने अँगीठी बुझा देने के लिए कहा। उस अफ़सर ने तब मज़ाक में कहा - "कोयले तो सरकारी हैं, आप इतनी फ़िक्र क्यों कर रहे हैं?'' गाँधीजी ने झट से उत्तर दिया - "नहीं, ये तो आम जनता के पैसों के कोयले हैं।''

कहाँ गये वे लोग, जो जनता के पैसों को दाँत से पकड़ते थे और ऐसा ही करने के लिए दूसरों को प्रोत्साहित करते थे। आज उपभोक्ता वस्तुओं के ख़रीदारों की संख्या में तो वृद्धि हुई है, लेकिन जनता के पैसों का मूल्य समझनेवाले लोगों का भयंकर अकाल हो गया है। जनता के पैसों का सही उपयोग हो, उन पैसों में से एक भी पैसा बरबाद न हो, इसके लिए गाँधीजी ख़ून-पसीना एक कर देते थे। किसी भी योजना के लिए दान के नाम पर उनकी खुली हथेली में पैसे रखकर लोग कृतकृत्य हो जाते थे। लोगों का उन पर इतना अटूट विश्वास था कि ख़ुद पर भी नहीं था।

महात्मा गाँधी पर लोगों का विश्वास अकारण नहीं था। वे जो वादा करते थे, उसे निभाते थे। जो कहते थे, वह करते थे। उनकी कथनी और करनी एक थी। आज के राजनीतिज्ञ कितना बदल गये हैं! वे अपनी कथनी और करनी में अन्तर रखकर ही राजनीतिक सफलता हासिल करने का प्रयत्न करते हैं। काश! उनकी दृष्टि महात्मा गाँधी के सर्वोदय सिद्धान्त पर होती और उनका लक्ष्य देश के अति निर्धन लोगों का जीवन सँवारना होता!

आज जनता के पैसो का, उसके ख़ून-पसीने की कमाई का लाभ उसे नहीं मिल पा रहा है। आज तो जनता द्वारा प्रदत्त आय-कर का पैसा नेताओं की जागीर बन गया है। ग़रीब-से-ग़रीब व्यक्ति भी नेता बनते ही अपना ठाट-बाट इस कदर बढ़ा देते हैं कि उनके वैभव, ताम-झाम और ऊँचे रहन-सहन को देख वितृण्णा होने लगती है। कुछ दिनों पूर्व ही अख़बारों में पढ़ने को मिला था कि सूखा-ग्रस्त इल़ाकों में तथाकथित देशसेवकों ने इसलिए जाने से इनकार कर दिया था कि उन्हें वातानुकूलित गाड़ियाँ मुहैया नहीं करायी जा रही थीं। देश-सेवा का मतलब स्वार्थ-त्याग और बलिदान से बदलकर स्वार्थ-दंभ और अपनी रोटी सेंकना होता जा रहा है। कहाँ गया महात्मा गाँधी का वह पाठ कि 'सादा जीवन और उच्च विचार' ही हमारे जीवन का आदर्श होना चाहिए, अपरिग्रह हमारा लक्ष्य होना चाहिए।

आज हमने अपने देश का नेतृत्व जिनके हाथों में सौंपा है, उनके वेतन, टेलीफोन बिल, हवाई यात्रा और सुरक्षा-व्यवस्था के नाम पर देश का पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। जन-साधारण की सुरक्षा की सारी योजनाएँ केवल काग़ज़ी साबित होती हैं और वह भयाक्रांत जीवन व्यतीत करने के लिए विवश है।

शहीद-दिवस पर देश के नेता गाँधीजी के सिद्धान्तों का नकली जामा और नकली टोपी धारण कर राजघाट जायेंगे और श्रद्धांजलि-सभा में भाग लेकर गाँधीजी के नाम को भुनाने की कोशिश करेंगे। सौ-सौ चूहे खाकर बिल्लियाँ तीर्थयात्रा पर निकलेंगी। हमारे अपने देश में अलगाववाद, आतंकवाद, नक्सलवाद, उल्फ़ावाद की आड़ में एक के बाद एक शर्मनाक और भयंकर काण्ड हो रहे हैं और समूचे देशवासियों के मुँह पर कालिख पुत रही है।

एक बार वर्धा म्युनिसिपैलिटी की ओर से महात्मा गाँधी को अभिनन्दन-पत्र देने का निश्चय किया गया। उन्होंने अभिनन्दन पत्र स्वीकार करने की यह शर्त रखी कि "वर्धा के सब कुएँ मनुष्य-मात्र के लिए खोल दिये जायें।'' उनकी शर्त मानी गयी, उन्हें अभिनन्दन-पत्र प्रदान किया गया और कुओं का जल सभी जाति के लोगों के लिए उपलब्ध कराया गया। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि गाँधीजी की सारी शर्तें मानव-मात्र के कल्याण के लिए, मनुष्यता के उत्थान के लिए थीं। महात्मा गाँधी कोटि-कोटि जनता के बीच एक मानव-आकृति ही नहीं थे, वे दीन-हीन जनता के वजूद थे, भारत की ज़मीन की पहचान थे, भारत की सांस्कृतिक विरासत की मिसाल थे, गौतम बुद्ध की परम्परा की कड़ी थे, लोगों की आँखों को शीतलता और सुकून पहुँचानेवाली असलियत के प्रतीक थे।

हेनरी एसअ एलअ पोलक ने 'मानवता का पुजारी' शीर्षक लेख में ओलिव श्रीनर के एक गद्य-काव्य का ज़िक्र किया है, जिसमें लेखक ने सत्यूती पक्षी की खोज में लगे हुए एक साधक का चित्र खींचा है - "उसे उस पक्षी की झलक एक बार दिखायी दी। उसकी तलाश में वह पर्वत-शिखर पहुँचता है, जहाँ जाकर उसका शरीर छूट जाता है। उसके हाथ में उस पक्षी का गिरा हुआ एक पंख है, जिसे छाती पर चिपकाये हुए वह सोया है। गाँधीजी अपने जीवन-काल में जो सन्देश हमारे लिए छोड़ गये हैं, वह हमारे लिए ऐसा ही एक पंख सिद्ध हो।''

हम उसी सन्देश, उसी पंख का वास्ता दे सकते हैं इस पुस्तक के पाठकों को, जिनके लिए 28 निबन्धों का यह संकलन 'गाँधी और गाँधी-मार्ग' तैयार किया गया है। इस पुस्तक में मेरा कुछ नहीं है; जो कुछ है, वह 28 निबन्धों के विद्वान लेखकों का है, जिन्होंने 'हिन्दुस्तानी प्रचार सभा' की त्रैमासिक पत्रिका 'हिन्दुस्तानी ज़बान' में प्रकाशनार्थ समय-समय पर अपने लेख भेजे थे। सन् 1976 से लेकर सन् 2005 तक के 'हिन्दुस्तानी ज़बान' में प्रकाशित कतिपय चुने हुए लेखों का संकलन है यह पुस्तक 'गाँधी और गाँधी-मार्ग' - 'तेरा तुझको सौंपता, का लागे है मोर।' इसमें जो कुछ पठनीय, ग्रहणीय और प्रशंसनीय है, वह विद्वान लेखकों का है और जो कुछ उपेक्षणीय है, वह मेरा है।

इस पुस्तक में प्रकाशित सभी लेखों को 'हिन्दुस्तानी ज़बान' पत्रिका के पन्नों से निकालकर पुस्तकाकार स्वरूप प्रदान करने के पीछे 'सभा' के पदाधिकारियों की आंतरिक भावना यही रही कि साहित्य-प्रेमियों और विद्वानों को प्रेरणास्पद गाँधीवादी विचारधारा से दोबारा साक्षात्कार कराया जा सके।

महात्मा गाँधी मेमोरियल रिसर्च सेण्टर ('हिन्दुस्तानी प्रचार सभा'द्वारा संचालित) की ओर से 'सभा' की न्यासी व अध्यक्ष डॉअ आलू दस्तूर के प्रति उनकी मंगलकामना, न्यासी व कार्याध्यक्ष डॉअ इस्ह़ाक जमख़ानावाला के प्रति उनके सद्भावना-संदेश, न्यासी व कोषाध्यक्ष प्राचार्य प्रेमानंद गोवेकर के प्रति उनकी प्रस्तावना के लिए मैं हृदय से आभारी हूँ। न्यासी व मानद सचिव श्री सुभाषभाई सम्पत ने पुस्तक के कलेवर को ही नहीं, उसके पृष्ठों पर अंकित सन्देशों में भी विशेष रुचि ली और पुस्तक के लिए प्रसंगानुकूल लेख देकर अपना योगदान दिया। इन सभी न्यासियों व पदाधिकारियों के प्रति मैं उपकृत हूँ। 'हिन्दुस्तानी प्रचार सभा' के अन्य न्यासियों (श्री फ्रांसिस मैथ्यू, श्रीमती हंसा राजदा और स्वअ श्री योगेश मापारा (हि.प्र.स. - सन् 1997 से सन् 2006 तक) तथा सदस्यों श्री एस. आर. शर्मा, डॉ. हर्षिदा पंडित, श्री दयानंद पंड्या, श्री मधुकांत जोशी और श्री चंद्रकांत शाह) के प्रति भी हम उनके प्रोत्साहन के लिए कृतज्ञ हैं। पुस्तक के मुद्रक श्री माधव भागवत (मौज प्रिंटिंग ब्यूरो) के प्रति भी हम आभारी हैं, जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से दिलचस्पी लेकर इस पुस्तक को प्रकाश में लाने का कार्य किया। श्री स्वप्निल नीलकंठ ने भी मुखपृष्ठ तैयार करके हमें उपकृत किया।

मुझे पूरा विश्वास है कि "गाँधी और गाँधी-मार्ग'' पुस्तक पाठकों को गाँधीजी के नज़दीक लायेगी और उन्हें गाँधी-मार्ग पर चलने की प्रेरणा देगी।

- सुशीला गुप्ता

मुंबई
15 अगस्त 2006


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