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'पूज्य बापू' पृष्ठ से?

सुभाष सम्पत

जब हम कोई सत्कार्य हाथ में लेते हैं तो प्रात:स्मरणीय सभी देवों को नमस्कार करते हैं और 'कृष्णं वन्दे जगतगुरु' श्लोक का उच्चारण करते हुए अन्त में 'केशवं प्रति गच्छति' कहते हैं। मतलब कि सभी देवों को नमस्कार करके अन्त में कृष्ण की ओर जाते हैं। उसी तरह जब कभी सत्य, अहिंसा, धर्म, अस्पृश्यता-निवारण व खादी जैसे विषयों पर चर्चा की जाती है, तो इन विषयों के साथ पूज्य बापू का नाम अपने आप जुड़ जाता है।

गाँधीजी को सम्पूर्ण देश ने राष्ट्रपिता माना-उन्होंने तो माना ही, जो उनके निकट सम्पर्क में रहे, जिन्होंने अपनी आँखों से उन्हें देखा, जिन्होंने अपने कानों से उन्हें सुना; उन्हेंने भी उन्हें राष्ट्रपिता के रूप में सम्मान दिया, जो कभी उनके सम्पर्क में नहीं आये। गाँधीजी थे ही ऐसे कि सभी भारतवासियों ने उन्हें अपना मुखिया माना। यहाँ तक कि बिना किसी प्रचार-प्रसार के वे सहस्राब्दी-पुरुष की उपाधि से नवाज़े गये।

जब हमारी 'सभा' की निदेशिका डॉअ सुशीला गुप्ता ने मुझसे बापू पर कुछ लिखने के लिए कहा तो मैंने उत्तर दिया, न मैं पूर्ण गाँधीवादी हूँ, न इतिहासकार हूँ और न ही साहित्यकार हूँ। बापू को बस मैंने अनेक माध्यमों से जाना है। लेकिन डॉअ गुप्ता के आग्रह को मैं टाल नहीं सका।

पूज्य गाँधीजी ने जो भी मुहिम चलायी, वह चाहे जितनी सामान्य-सी हो, उनके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण थी। अस्पृश्यता-निवारण से लेकर 'हे राम' में लिपटी प्राणाहुति की अन्तिम घटना तक उन्होंने अपने आपको देश-हित में समर्पित कर दिया। उनके जीवन का हर क़दम पावन था, हर कार्य दूसरों के उत्थान के लिए था। उन्होंने देश की कोटि-कोटि जनता के लिए भगीरथ काम किया-देश की आज़ादी के लिए देश का नेतृत्व किया। वे देश की आज़ादी का लाभ करोड़ों देशवासियों तक पहुँचाना चाहते थे। उनकी ज़िन्दगी में ख़ुशहाली लाना चाहते थे। आज़ादी के जश्न और प्रशंसा-प्रशस्ति में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। दिल्ली में लाल-किले पर आज़ादी का जश्न मनाया जा रहा था और वे नोआखाली में साप्रदायिक दंगों में घायल लोगों के आँसू पोंछ रहे थे। श्री प्यारेलाल ने लिखा है कि "उनका स्थान उस दिन भारत के गवर्नर जनरल के समीप नहीं था। ...गाँधीजी का स्थान तो उत्पीड़ित और सन्तप्त लोगों के पास था।''

गाँधीजी ने देशवासियों को स्वतंत्रता दिलायी और करोड़ों देशवासियों ने स्वतत्र वातावरण में साँस लेना सीखा। लोगों ने स्वतत्रता का स्वाद चखा, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। हत्यारे गोडसे ने उन्हें गोलियों से भून डाला, लेकिन हमारे बापू ने हमें अमन का पैग़ाम दिया और अमन का वातावरण पैदा किया। आज़ादी और अमन की मिसाल अनेक छोटे-बड़े देशों की आज़ादी में काम आयी, जिसमें अ़फ्रीका, एशिया और योरप के कई मुल्क आ जाते हैं।

भारत में अगर हमारे अल्पसंख्यक भाई शान्ति से रह सके तो वह गाँधीजी के बलिदान की बदौलत है। हिन्दुस्तान भले ही टुकड़ों में बँटकर भारत और पाकिस्तान बन गया हो, लेकिन हमारी एकता को कोई आँच नहीं आयी।

गाँधीजी ने अस्पृश्यता-निवारण के लिए हर संभव उपाय किये। उनके बताये हुए रास्ते पर चलकर लोगों ने दलितों के साथ भाईचारा निभाना सीखा। क़ायदे-कानून के अनुसार अस्पृश्यता जुर्म मान लिया गया है। कुछ अपवाद भले ही दिखायी देते हैं और दूर कहीं अँधेरे कोने में अज्ञानी और अबोध लोग दलितों के साथ दुर्व्यवहार करते दिखायी दे जाते हैं, परन्तु मुझे पूरा विश्वास है कि भविष्य में शीघ्र ही दलितों के साथ भेद-भाव की भावना नेस्तनाबूद हो जायेगी। वर्तमान समय में हमारे सामने 'आरक्षण' का नया भूत खड़ा है। वह भी पूज्य गाँधीजी की व्यावहारिक सीख से छूट पायेगा।

दुनिया भर में काले और गोरे का भेद घटता जा रहा है, यहाँ तक कि कहानियों के पृष्ठों में और सिनेमा के परदों पर इन दो वर्णों के बीच विवाह-सम्बन्ध भी दिखाये जाते हैं। गाँधीजी का मूलभूत विचार इस वर्ण-व्यवस्था को तोड़ने में कामयाब रहा। हाँ, अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर किंग आदि का इसमें भारी योगदान था।

गाँधीजी चाहते थे कि भारत से जाति-प्रथा समाप्त हो जाये सदा-सदा के लिए और आपस में रोटी-बेटी का व्यवहार प्रचलित हो। उन्होंने ऐलान कर रखा था कि वे उस विवाह-समारोह में ख़ुशी-ख़ुशी सम्मिलित होंगे, जिसमें वर-वधू में से एक तो कम-से-कम हरिजन हो। प्रसन्नता की बात है कि आज जाति-प्रथा का बन्धन टूट गया है और शादी-ब्याह के उपरान्त लोहार का लड़का लोहार ही बने, सोनार का बेटा सोनार ही बने और वैश्य का लड़का व्यापारी ही बने, ऐसा लगभग नहीं होता है।

गाँधीजी के सर्वोदय की विचारधारा से प्रभावित हो अनेक व्यावसायिक और सामाजिक संस्थाओं ने ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त अपना लिया है-यानी पदाधिकारी मालिक बनकर नहीं, विश्वस्त बनकर काम करें; स्वयं का नहीं, संस्था का हित सोचें। निस्संदेह ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाने में गाँधीजी का ही योगदान माना जाना चाहिए।

उपवास को गाँधीजी ने मात्र धर्म और स्वास्थ्य का साधन न मानकर उसे आत्मशुद्धि का एक वज़नदार शस्त्र माना था। उन्होंने जब भी इस शस्त्र का उपयोग किया, उसके पीछे मूल भावना चिन्तन, मनन और आत्मशुद्धि की ही थी। विकट-से-विकट परिस्थिति में भी उन्होंने उपवास के माध्यम से सकारात्मक हल ढूँढ़ लिया था।

एक ज़माने में कहा जाता था कि बर्तानिया का सूर्य पृथ्वी-पटल पर कभी नहीं डूबता, लेकिन इस फ़कीर ने साबित कर दिया कि सल्तनत कितनी भी मज़बूत हो, उसे सत्य-अहिंसा के बल पर झुकाया जा सकता है। यह तथ्य सिर्फ़ हिन्दुस्तान के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया के बहुत से मुल्कों में आजमाया जा चुका है। उसी का परिणाम है कि गाँधीजी के ज़रिये हिन्दुस्तान के आज़ाद हो जाने पर बहुत सारे राष्ट्रों में नयी चेतना आयी। यह सब बापू की विचारधारा का ही तो परिणाम है!

हो सकता है, भारत देश के बहुत सारे किशोर और नवयुवक भाई-बहन गाँधीजी के नाम या काम से परिचित न हों, लेकिन यह कहना मुनासिब होगा कि किसी भी धर्म में एक मसीहा या धर्मगुरु का या उस धर्म के ईश्वर का जो स्थान है, ठीक वही स्थान गाँधीजी के नाम या गाँधी-मंत्र को प्राप्त है। मेरा मानना है कि आगामी पीढ़ी में गाँधी का संदेश सभी को भायेगा।

पूज्य बापू द्वारा स्थापित बहुत सारी संस्थाओं में से एक 'हिन्दुस्तानी प्रचार सभा' आज भी है, जीवित और जीवन्त है। हमारी 'सभा' की लाइब्रेरी में गाँधीजी के साहित्य का विशाल भंडार है, दीवारों पर बहुत सारे चित्र लगे हैं। मेरे कक्ष में भी गाँधीजी की एक समाधिस्थ तस्वीर है। यह केवल शोभा या स्थान को बढ़ावा नहीं देती, बल्कि उनकी इस तस्वीर से और उनके नाम से मुझे अद्भुत प्रेरणा मिलती है।

आज भले ही गाँधीजी हमारे बीच सशरीर उपस्थित नहीं है और उनके नाम का हम केवल स्मरण-मात्र कर पाते हैं, पर मेरी समझ में सन् 2048 तक गाँधीजी की मूर्ति की अन्य देवी-देवताओंs की तरह एक ईश्वरीय अवतार के रूप में पूजा की जाने लगेगी। इतिहास के पन्नों में जहाँ-जहाँ उनका नाम है, उनके विचार हैं, उनके कार्यों का वृत्तान्त है, उनकी साधना की तस्वीर है, उनके संदेशों से सुसज्जित शब्द हैं, वहाँ से हमें निरन्तर प्रेरणात्मक शक्ति मिलती रहेगी। हम प्रेरणा ग्रहण करेंगे और अपने प्यारे बापू के सपनों को साकार करेंगे-

"तेरे उन अगणित स्वप्नों को

हम रूप और आकृति देंगे

हम कोटि-कोटि

तेरी औरस संतान पिता।''

हमारी वर्तमान पीढ़ी, आनेवाली पीढ़ी और भविष्य की पीढ़ियाँ इतिहास के पृष्ठों पर अंकित महात्मा गाँधी के  सन्दर्भ, अनुसंधान, कार्य व बलिदान की गाथा पायेंगी। जिन पृष्ठों में पूज्य गाँधीजी अंकित होंगे, वे अमोघ होंगे और सदेह न होते हुए भी महात्मा गाँधीं का मार्ग-दर्शन इस 'बापू' शब्द से ही हमें लाभान्वित करेगा ।

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