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16. आदिवासी

रानीपरज शब्दी की तरह यह आदिवासी शब्द भी नया बनाया हुआ है। रानीपरज के बदले पहले कालीपरज (यानी काली प्रजा हालांकि उनकी चमड़ी का रंग दूसरे किन्हप लोगों की चमड़ी से अधिक काला नहीं है) शब्द बरता जाता था। मेरा खयाल है कि यह शब्द श्री जुगतराम दवे ने गढ़ा था। भील, गोंड और ऐसे ही दूसरे लोगों के लिए, जिन्हें पहाड़ी या जंगली जातियों जैसे अनेक जुदा-जुदा नामों से पुकारा जाता है, गढ़े गये इस नये शब्द का अक्षरशः अर्थ देश के असली निवासी होता है, और मैं जानता हूं कि यह ठक्करबापा का बनाया हुआ शब्द है।

आदिवासियों की सेवा भी रचनात्मक कार्यक्रम का एक अंग है। इस कार्यक्रम के जुदा-जुदा अंगों की चर्चा करते-करते उनका ठेठ सोलहवां नम्बर लगा है, लेकिन इससे कोई उनके महत्त्व को कम न समझे। हमारा देश इतना विशाल है और उसमें बसनेवाली जातियां इतनी ज्यादा और विविध हैं कि अपने देश के सभी निवासियों के और उनकी दशा के बारे में हममें से अच्छे-से-अच्छे लोग भी जितना उन्हें जान लेना चाहिये उतना सब जान नहीं पाते। अगर हमारे राष्ट्र में रहनेवाली हरएक इकाई को इस बात का सजग भान न हो कि बाकी के दूसरे सब घटकों या इकाइयों के सुख-दुख उसके अपने सुख-दुख हैं और हम सब एक हैं, तो अपने देश की विशालता और विविधता की यह बात ज्यों-ज्यों हमारी समझ में आती जाती है त्यों-त्यों अपनी एक राष्ट्रीयता के दावे को साबित करने का काम कितना कठिन है इसका खयाल हमें होता जाता है।

समूचे हिन्दुस्तान में इन आदिवासियों की आबादी दो करोड़ की है। ठक्करबापा ने बरसों पहले गुजरात के भीलों की सेवा का काम शुरू किया था। सन् 1940 के लगभग थाना जिले में श्री बालासाहब खेर ने अपनी स्वाभाविक लगन से इस अत्यन्त आवश्यक सेवाकार्य को अपने हाथ में लिया। इस समय वे आदिवासी-सेवा-मण्डल के सभापति हैं।

हिन्दुस्तान के दूसरे हिस्सों में ऐसे दूसरे कई सेवक काम कर रहे हैं, फिर भी अभी उनकी संख्या काफी नहीं है। सच है कि `सेवारूपी खेती की फसल खूब आई है, मगर उसके काटनेवाले कम हैं`। और इससे कौन इनकार कर सकता है कि इस तरह की तमाम सेवा महज भूतदया की भावना से प्रेरित सेवा नहीं बल्कि ठोस राष्ट्रसेवा है, और वह हमें पूर्ण स्वराज्य के ध्येय के ज्यादा नजदीक ले जाती है ?

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