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14. किसान

इस रचनात्मक कार्यक्रम में सभी बातों का समावेश नहीं हुआ है। स्वराज्य की इमारत एक जबरदस्त चीज है, जिसे बनाने में अस्सी करोड़ हाथों को काम करना है। इन बनानेवालों में किसानों की यानी खेती करनेवालों की तादाद सबसे बड़ी है। सच तो यह है कि स्वराज्य की इमारत बनानेवालों में ज्यादातर (करीब 80 फीसदी) वही लोग हैं, इसलिए असल में किसान ही कांग्रेस हैं ऐसी हालत पैदा होनी चाहिये। आज ऐसी बात नहीं है। लेकिन जब किसानों को अपनी अहिंसक ताकत का खयाल हो जायेगा, तो दुनिया की कोई हुकूमत उनके सामने टिक नहीं सकेगी।

हुकूमत को हथियाने के लिए खेली जानेवाली राजनीति की चालों में किसानों का कोई उपयोग न होना चाहिये। उनके ऐसे अनुचित उपयोग को मैं अहिंसक पद्धति का विरोधी समझता हूं। जो किसानों या खेतिहरों को संगठित करने का मेरा तरीका जानना चाहते हैं, उन्हें चम्पारन के सत्याग्रह की लड़ाई का अध्ययन करने से लाभ होगा। हिन्दुस्तान में सत्याग्रह का पहला प्रयोग चम्पारन में हुआ था। उसका नतीजा कितना अच्छा निकला, यह सारा हिन्दुस्तान भलीभांति जानता है। चम्पारन का आन्दोलन आम जनता का आन्दोलन बन गया था और वह बिलकुल शुरू से लेकर आखिर तक पूरी तरह अहिंसक रहा था। उसमें कुल मिलाकर कोई बीस लाख से भी ज्यादा किसानों का सम्बन्ध था। सौ साल पुरानी एक खास तकलीफ को मिटाने के लिए यह लड़ाई छेड़ी गई थी। इसी शिकायत को दूर करने के लिए पहले कई खूनी बगावतें हो चुकी थप। किसान बिलकुल दबा दिये गये थे। मगर अहिंसक उपाय वहां छह महीनों के अन्दर पूरी तरह सफल हुआ। किसी तरह का सीधा राजनीतिक आन्दोलन या राजनीति के प्रत्यक्ष प्रचार की मेहनत किये बिना ही चम्पारन के किसानों में राजनीतिक जागृति पैदा हो गई। उनकी शिकायत को दूर करने में अहिंसा ने जो काम किया, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाने से वे सब राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर खिंच आये और बाबू ब्रजकिशोरप्रसाद व बाबू राजेन्ौ प्रसाद के नेतृत्व में सत्याग्रह की पिछली लड़ाईयों में उन्होंने अपनी ताकत का पूरा परिचय दिया।

इनके सिवा, खेड़ा, बारडोली और बोरसद में किसानों ने जो लड़ाइयां लड़प, उनके अध्ययन से भी पाठकों को लाभ होगा। किसान-संगठन की सफलता का रहस्य इस बात में है कि किसानों की अपनी जो तकलीफें हैं, जिन्हें वे समझते और बुरी तरह महसूस करते हैं, उन्हें दूर कराने के सिवा दूसरे किसी भी राजनीतिक हेतु से उनके संगठन का दुरुपयोग न किया जाय। किसी एक निश्चित अन्याय या शिकायत के कारण को दूर करने के लिए संगठित होने की बात वे झट समझ लेते हैं। उनको अहिंसा का उपदेश करना नहीं पड़ता। अपनी तकलीफों के एक कारगर इलाज के रूप में वे अहिंसा को समझकर उसे आजमा लें और फिर उनसे कहा जाय कि उन्होंने जिसे आजमाया है वही अहिंसक पद्धति है, तो वे फौरन ही अहिंसा को पहचान लेते हैं और उसके रहस्य को समझ जाते हैं।

जिन कांग्रेसजनों को इसमें दिलचस्पी हो, वे ऊपर के इन उदाहरणों का अध्ययन करके जान लें कि किसानों के बीच रहकर उनकी सेवा का काम किस तरह किया जाय। मैं यह मानता हूं कि किसानों के संगठन का जो तरीका कुछ कांग्रेसजनों ने अपनाया है, उससे किसानों को जरा भी फायदा नहीं हुआ, उलटे शायद नुकसान हुआ होगा। लेकिन फायदे और नुकसान की बात को छोड़कर भी मुझे यह तो कहना ही होगा कि उनका अपनाया हुआ तरीका अहिंसा का तरीका नहीं है। कहना न होगा कि इन कार्यकर्ताओं में से कुछ साफ-साफ इस बात को स्वीकार करते हैं कि वे अहिंसक तरीके को नहीं मानते। ऐसे कार्यकर्ताओं को मेरी सलाह है कि वे अपने काम के सिलसिले में कांग्रेस के नाम का उपयोग न करें और कांग्रेसी के नाते काम न करें।

अब तक मैंने जो कुछ कहा है, उससे पाठकों को यह मालूम हो चुका होगा कि किसानों और मजदूरों को अखिल भारतीय पैमाने पर संगठित करने की जो होड़गसी लगी हुई है, उससे मैं क्यों दूर रहा हूं। हम सब मिलकर एक ही दिशा में आगे बढ़ें, तो कितना अच्छा हो ! लेकिन हमारे देश जैसे बड़े देश में यह शायद होगा नहीं। खैर, जाने दीजिये इन सब बातों को। यह सच है कि अहिंसा के रास्ते किसी पर किसी तरह की जबरदस्ती नहीं की जा सकती। अहिंसक पद्धति का प्रत्यक्ष कार्य और केवल तर्क से सिद्ध होनेवाली दलीलें, ये दोनों मिलकर अपना काम किये बिना न रहेंगे।

मेरी यह राय है कि कांग्रेस को अपनी देखरेख में एक ऐसा विभाग खोलना चाहिये, जो मजदूरों की तरह किसानों या खेतिहरों के भी सवालों को हल करने का काम करे।

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