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10. आरोग्य के नियमों की शिक्षा

सहज ही यह सवाल किया जा सकता है कि रचनात्मक कार्यक्रम में गांव की सफाई को शामिल करने के बाद आरोग्य के नियमों की शिक्षा को अलग से गिनाने की क्या जरूरत है? इसको गांव की सफाई में ही शामिल किया जा सकता था, मगर मुझे रचनात्मक काम के अलग-अलग हिस्सों को एक-दूसरे में मिलाना नहीं था। सिर्फ गांव की सफाई का जिक्र करने से उसमें तन्दुरुस्ती के नियमों की तालीम का जिक्र नहीं आता। अपने शरीर की हिफाजत करना और तन्दुरुस्ती के नियमों को जानना एक अलग ही विषय है, जिसका सम्बन्ध अभ्यास से और अभ्यास द्वारा प्राप्त ज्ञान के आचरण से है। जो समाज सुव्यवस्थित है, उसमें रहनेवाले सभी लोग, नागरिक; तन्दुरुस्ती के नियमों को जानते हैं और उन पर अमल करते हैं। अब तो यह बात निर्विवाद सिद्ध हो चुकी है कि तन्दुरुस्ती के नियमों को न जानने से और उन नियमों के पालन में लापरवाह रहने से ही मनुष्य-जाति का जिन-जिन रोगों से परिचय हुआ है, उनमें से ज्यादातर रोग उसे होते हैं। बेशक, हमारे देश की दूसरे देशों से बढ़ी-चढ़ी मृत्युसंख्या का ज्यादातर कारण गरीबी है, जो हमारे देशवासियों के शरीर को कुरेदकर खा रही है; लेकिन अगर उनको तन्दुरुस्ती के नियमों की ठीक-ठीक तालीम दी जाय, तो इसमें बहुत कमी की जा सकती है।

मनुष्य-जाति के लिए साधारणतः स्वास्थ्य का पहला नियम यह है कि मन चंगा है तो शरीर भी चंगा है। निरोग शरीर में निर्विकार मन का वास होता है, यह एक स्वयंसिद्ध सच्चाई है। मन और शरीर के बीच अटूट सम्बन्ध है। अगर हमारे मन निर्विकार यानी नीरोग हों, तो वे हर तरह की हिंसा से मुक्त हो जायें; फिर हमारे हाथों तन्दुरुस्ती के नियमों का सहज भाव से पालन होने लगे और किसी तरह की खास कोशिश के बिना ही हमारे शरीर तन्दुरुस्त रहने लगें। इन कारणों से मैं यह आशा रखता हूं कि कोई भी कांग्रेसी रचनात्मक कार्यक्रम के इस अंग के बारे में लापरवाह न रहेगा। तन्दुरुस्ती के कायदे और आरोग्यशास्त्र के नियम बिलकुल सरल और सादे हैं और वे आसानी से सीखे जा सकते हैं। मगर उन पर अमल करना मुश्किल है। नीचे मैं ऐसे कुछ नियम देता है:

हमेशा शुद्ध विचार करो और तमाम गन्दे व निकम्मे विचारों को मन से निकाल दो।

दिन-रात ताजी-से-ताजी हवा का सेवन करो।

शरीर और मन के काम का तोल बनाये रखो, यानी दोनों को बेमेल न होने दो।

तनकर खड़े रहो, तनकर बैठो और अपने हर काम में साफ-सुथरे रहो; और इन सब आदतों को अपनी आन्तरिक स्वस्थता का प्रतिबिम्ब बनने दो।

खाना इसलिए खाओ कि अपने-जैसे अपने मानव-बंधुओं की सेवा के लिए ही जिया जा सके। भोग भोगने के लिए जीने और खाने का विचार छोड़ दो। अतएव उतना ही खाओ जितने से आपका मन और आपका शरीर अच्छी हालत में रहे और ठीक से काम कर सके। आदमी जैसा खाना खाता है, वैसा ही बन जाता है।

आप जो पानी पियें, जो खाना खायें और जिस हवा में सांस लें, वे सब बिलकुल साफ होने चाहिये। आप सिर्फ अपनी निज की सफाई से सन्तोष न मानें, बल्कि हवा, पानी और खुराक की जितनी सफाई आप अपने लिए रखें, उतनी ही सफाई का शौक आप अपने आसपास के वातावरण में भी फैलायें।

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