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9. स्त्रियां

हिन्दुस्तान की स्त्रियां जिस अंधेरे में डूबी हुई थी, उसमें से सत्याग्रह के तरीके ने उन्हें अपने-आप बाहर निकाल लिया है; और यह भी सच है कि दूसरे किसी तरीके से वे इतने कम समय में, जिस पर विश्वास नहीं हो सकता, आगे न आ पाती। फिर भी स्त्री-जाति की सेवा के काम को मैंने रचनात्मक कार्यक्रम में जगह दी है, क्योंकि स्त्रियों को पुरुषों के साथ बराबरी के दर्जे से और अधिकार से स्वराज्य की लड़ाई में शामिल करने के लिए जो कुछ करना चाहिये, वह सब करने की बात अभी कांग्रेसवालों के दिल में बसी नहीं है। कांग्रेसवाले अभी तक यह नहीं समझ पाये हैं कि सेवा के धार्मिक काम में स्त्री ही पुरुष की सच्ची सहायक और साथिन है। जिस रूढ़ि और कानून के बनाने में स्त्री का कोई हाथ नहीं था और जिसके लिए सिर्फ पुरुष ही जिम्मेदार है, उस कानून और रूढ़ि के जुल्मों ने स्त्री को लगातार कुचला है। अहिंसा की नपव पर रचे गये जीवन की योजना में जितना और जैसा अधिकार पुरुष को अपने भविष्य की रचना का है उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री को भी अपना भविष्य तय करने का है। लेकिन अहिंसक समाज की व्यवस्था में जो अधिकार मिलते हैं, वे किसी न किसी कर्तव्य या धर्म के पालन से प्राप्त होते हैं। इसलिए यह भी मानना चाहिये कि सामाजिक आचार-व्यवहार के नियम स्त्री और पुरुष दोनों आपस में मिलकर और राजी-खुशी से तय करें। इन नियमों का पालन करने के लिए बाहर की किसी सत्ता या हुकूमत की जबरदस्ती काम न देगी। स्त्रियों के साथ अपने व्यवहार और बरताव में पुरुषों ने इस सत्य को पूरी तरह पहचाना नहीं है। स्त्री को अपना मित्र या साथी मानने के बदले पुरुष ने अपने को उसका स्वामी माना है। कांग्रेसवालों का यह खास हक है कि वे हिन्दुस्तान की स्त्रियों को उनकी इस गिरी हुई हालत से हाथ पकड़कर ऊपर उठायें। पुराने जमाने का गुलाम नहीं जानता था कि उसे आजाद होना है, या कि वह आजाद हो सकता है। औरतों की हालत भी आज कुछ ऐसी ही है। जब उस गुलाम को आजादी मिली, तो कुछ समय तक उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो उसका सहारा ही जाता रहा। औरतों को यह सिखाया गया है कि वे अपने को पुरुषों की दासी समझें। इसलिए कांग्रेसवालों का यह फर्ज है कि वे स्त्रियों को उनकी मौलिक स्थिति का पूरा बोध करावें और उन्हें इस तरह की तालीम दें, जिससे वे जीवन में पुरुष के साथ बराबरी के दरजे से हाथ बंटाने लायक बनें।

एक बार मन का निश्चय हो जाने के बाद इस क्रान्ति का काम आसान है। इसलिए कांग्रेसवाले इसकी शुरुआत अपने घर से करें। वे अपनी पत्नियों को मन बहलाने की गुड़िया या भोग-विलास का साधन मानने के बदले उनको सेवा के समान कार्य में अपना सन्मान्य साथी समझें। इसके लिए जिन स्त्रियों को स्कूल या कॉलेज की शिक्षा नहीं मिली है, वे अपने पतियों से, जितना बन पड़े, सीखें। जो बात पत्नियों के लिए कही है, वही जरूरी हेरफेर के साथ माताओं और बेटियों के लिए भी समझनी चाहिये।

यह कहने की जरूरत नहीं कि हिन्दुस्तान की स्त्रियों की लाचारी का यह एकतरफा चित्र ही मैंने यहां दिया है। मैं भली-भांति जानता हूं कि गांवों में औरतें अपने मर्द़ों के साथ बराबरी से टक्कर लेती हैं; कुछ मामलों में वे उनसे बढ़ी-चढ़ी हैं और उन पर हुकूमत भी चलाती हैं। लेकिन हमें बाहर से देखनेवाला कोई भी तटस्थ आदमी यह कहेगा कि हमारे समूचे समाज में कानून और रूढ़ि की रूसे औरतों को जो दर्जा मिला है, उसमें कई खामियां हैं और उन्हें जड़मूल से सुधारने की जरूरत है।

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