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6. गांवों की सफाई

श्रम और बुद्धि के बीच जो अलगाव हो गया है, उसके कारण हम अपने गांवों के प्रति इतने लापरवाह हो गये हैं कि वह एक गुनाह ही माना जा सकता है। नतीजा यह हुआ है कि देश में जगह-जगह सुहावने और मनभाव ने छोटे-छोटे गांवों के बदले हमें घूरे जैसे गांव देखने को मिलते हैं। बहुत से या यों कहिये कि करीब-करीब सभी गांवों में घुसते समय जो अनुभव होता है, उससे दिल को खुशी नहीं होती। गांव के बाहर और आसपास इतनी गंदगी होती है और वहां इतनी बदबू आती है कि अकसर गांव में जानेवाले को आंख मूंदकर और नाक दबाकर जाना पड़ता है। ज्यादातर कांग्रेसी गांव के बाशिन्दे होने चाहिये; अगर ऐसा हो तो उनका फर्ज हो जाता है कि वे अपने गांवों को सब तरह से सफाई के नमूने बनायें। लेकिन गांववालों के हमेशा के यानी रोजगरोज के जीवन में शरीक होने या उनके साथ घुलने-मिलने को उन्होंने कभी अपना कर्तव्य माना ही नहीं। हमने राष्ट्रीय या सामाजिक सफाई को न तो जरूरी गुण माना, और न उसका विकास ही किया। यों रिवाज के कारण हम अपने ढंग से नहा भर लेते हैं, मगर जिस नदी, तालाब या कुं के किनारे हम श्राद्ध या वैसी ही दूसरी कोई धार्मिक क्रिया करते हैं, और जिन जलाशयों में पवित्र होने के विचार से हम नहाते हैं, उनके पानी को बिगाड़ने या गन्दा करने में हमें कोई हिचक नहीं होती। हमारी इस कमजोरी को मैं एक बड़ा दुर्गुण मानता हूं। इस दुर्गुण का ही यह नतीजा है कि हमारे गांवों की और हमारी पवित्र नदियों के पवित्र तटों की लज्जाजनक दुर्दशा और गन्दगी से पैदा होनेवाली बीमारियां हमें भोगनी पड़ती हैं।

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