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4. खादी

खादी का विषय विवादास्पद है। बहुतों को ऐसा लगता है कि खादी की हिमायत करके मैं हवा के खिलाफ नाव चलाने की मूर्खता कर रहा हूं, जिससे आखिर में स्वराज्य की नाव को डुबो दूंगा, और देश को फिर से अंधेरे जमाने में ले जाऊंगा। इस संक्षिप्त चर्चा में मैं खादी के पक्ष की दलीलें नहीं दूंगा। ये दलीलें मैं दूसरी जगह भरपूर दे चुका हूं। यहां तो मैं यही बताना चाहता हूं कि हरएक कांग्रेसी, और वैसे देखा जाय तो हरएक हिन्दुस्तानी, खादी के काम को आगे बढ़ाने में क्या कर सकता है। खादी का मतलब है, देश के सभी लोगों की आर्थिक स्वतंत्रता और समानता का आरंभ। लेकिन कोई चीज कैसी है, यह तो उसको बरतने से जाना जा सकता है, पेड़ की पहचान उसके फल से होती है। इसलिए मैं जो कुछ कहता हूं उसमें कितनी सच्चाई है, यह हरएक स्त्री-पुरुष खुद अमल करके जान ले। साथ ही खादी में जो चीजें समाई हुई हैं, उन सबके साथ खादी को अपनाना चाहिये। खादी का एक मतलब यह है कि हममें से हरएक को संपूर्ण स्वदेशी की भावना बढ़ानी और टिकानी चाहिये; यानी हमें इस बात का दृढ़ संकल्प करना चाहिये कि हम अपने जीवन की सभी जरूरतों को हिन्दुस्तान की बनी चीजों से, और उनमें भी हमारे गांव में रहनेवाली आम जनता की मेहनत और अक्ल से बनी चीजों के जरिये पूरा करेंगे। इस बारे में आजकल हमारा जो रवैया है, उसे बिलकुल बदल डालने की यह बात है। मतलब यह कि आज हिन्दुस्तान के सात लाख गांवों को चूसकर और बरबाद करके हिन्दुस्तान के और ग्रेट ब्रिटेन के जो दस-पांच शहर मालामाल हो रहे हैं, उनके बदले हमारे सात लाख गांव स्वावलंबी और स्वयंपूर्ण बनें, और अपनी राजीगखुशी से हिन्दुस्तान के शहरों और बाहर की दुनिया के लिए इस तरह उपयोगी बनें कि दोनों पक्षों को फायदा पहुंचे।

इसका यह मतलब होता है कि हममें से बहुतों को अपनी रुचि और वृत्ति में जड़मूल से परिवर्तन करना होगा। अहिंसा का रास्ता कई बातों में बहुत सुगम है, तो दूसरी कई बातों में बहुत कठिन या अगम भी है। वह हरएक हिन्दुस्तानी के जीवन पर गहरा असर डालता है; वह उसके अन्दर सोई हुई और आज तक अप्रकट रही हुई शक्तियों का उसे भान कराता है, और इस ज्ञान के कारण कि यह शक्ति और सत्ता उसके पास है, उसे उत्साहित करता है। और हिन्दुस्तान के मानव-महासागर की अनेक बूंदों में से एक मैं भी हूं, इस अनुभव से वह गर्वित होता है। जमानों से जिस रोगी मनोवृत्ति को हम भूल से अहिंसा कहते और मानते आये हैं वह यह अहिंसा नहीं है। मनुष्य-जाति ने आज तक जिन अनेक शक्तियों का परिचय पाया है, यह अहिंसा उन सबसे अधिक प्रबल शक्ति है, और उसी पर मनुष्य-जाति के अस्तित्व का आधार है। साथ ही, यह अहिंसा वह शक्ति है जिसको मैंने कांग्रेस के और उसके जरिये सारी दुनिया के सामने रखने की कोशिश की है। मेरे विचार में खादी हिन्दुस्तान की समस्त जनता की एकता की, उसकी आर्थिक स्वतंत्रता और समानता की प्रतीक है, और इसलिए जवाहरलाल के काव्यमय शब्दों में कहूं तो वह `हिन्दुस्तान की आजादी की पोशाक है।`

फिर खादी वृत्ति का अर्थ है, जीवन के लिए जरूरी चीजों की उत्पत्ति और उनके बंटवारे का विकेन्ौाhकरण। इसलिए अब तक जो सिद्धांत बना है, वह यह है कि हरएक गांव को अपनी जरूरत की सब चीजें खुद पैदा कर लेनी चाहिये और शहरों की जरूरतें पूरी करने के लिए कुछ अधिक उत्पत्ति करनी चाहिये।

अलबत्ता, बड-बड़े उद्योग-धन्धों को तो एक जगह केन्ौित करके राष्ट्र के अधीन रखना होगा। लेकिन समूचा देश मिलकर गांवों में जिन बड़ेगबड़े आर्थिक उद्योगों को चलायेगा, उनके सामने ये कोई चीज न रहेंगे।

यहाँ तक मैंने यह बताया कि खादी में कौन-कौनसी बातें समाई हुई हैं। अब मुझे यह बताना चाहिये कि कांग्रेसवाले खादी के काम को आगे बढ़ाने के लिए क्या-क्या कर सकते हैं, और उन्हें क्या-क्या करना चाहिये। खादी के उत्पादन में ये काम शामिल हैं : कपास बोना, कपास चुनना, उसे झाड़-झटक कर साफ करना और ओटना, रुई पपजना, पूनी बनाना, सूत कातना, सूत को मांड़ लगाना, सूत रंगना, उसका ताना भरना और बाना तैयार करना, सूत बुनना और कपड़ा धोना। इनमें से रंगसाजी को छोड़कर बाकी के सारे काम खादी के सिलसिले में जरूरी और महत्व के हैं, और उन्हें किये बिना काम नहीं चल सकता। इनमें से हरएक काम गांवों में अच्छी तरह हो सकता है; और सच तो यह है कि अखिल भारत चरखा-संघ समूचे हिन्दुस्तान के जिन कई गांवों में काम कर रहा है, वहां ये सारे काम आज हो रहे हैं। संघ की हाल की रिपोर्ट के अनुसार इन कामों के कुछ दिलचस्प आंकड़े इस प्रकार हैः

सन् 1940 में, 13,451 से भी अधिक गांवों में फैले हुए 2,75,146 देहातियों को कताई, पिंजाई, बुनाई वगैरा मिलाकर कुल 34,85,609 रुपये बतौर मजदूरी के मिले थे। इनमें 19,645 हरिजन और 57,378 मुसलमान थे, और कातनेवालों में ज्यादा तादाद औरतों की थी।

अगर कांग्रेसवाले सच्चे दिल से और लगन से खादी के कार्यक्रम पर अमल करें, तो जितना काम हो उसका यह बहुत-से-बहुत सौवां हिस्सा होगा। जब से गांवों में चलनेवाले अनेक उद्योगों में से इस मुख्य उद्योग का और इसके आसपास लगी हुई कई दस्तकारियों का बिना सोचे-समझे, मनमाने तरीके से और बेरहमी के साथ नाश किया गया है, तब से हमारे गांवों की बुद्धि और तेज नष्ट हो गया है। वे सब निस्तेज और नि:ष्प्राण बन गये हैं, और उनकी हालत उनके अपने भूखों मरनेवाले मरियल ढोरों की सी हो गई है।

खादी के काम के लिए कांग्रेस की ओर से जो पुकार हुई है, अगर कांग्रेसवाले उसके प्रति वफादार रहना चाहते हैं, तो खादी-कार्य की योजना में वे किस तरह पया कर सकते हैं, इसके बारे में अखिल भारत चरखा-संघ की ओर से समय-समय पर निकलनेवाली सूचनाओं पर उन्हें भलीभांति अमल करना चाहिये। यहां तो मैं इस सम्बन्ध के कुछ खास-खास नियम ही देता हूं :

1. जिन परिवारों के पास जमीन का छोटा सा भी टुकड़ा हो, उन्हें कम-से-कम अपनी जरूरत जितनी कपास उगा लेनी चाहिये। कपास उगाने का काम वैसे बहुत आसान है। किसी जमाने में बिहार के किसानों पर कानूनन् यह फर्ज लादा गया था कि वे अपनी उपजाऊ जमीन के 3/20 हिस्से में नील की खेती करें। यह फर्ज विदेशी निलहों के स्वार्थ के लिए किसानों पर लादा गया था। तो हम अपने राष्ट्र के हित के लिए अपनी जमीन के कुछ हिस्से में खुद सोचगसमझकर, अपनी खुशी से, कपास पयों न बोयें? यहां पाठकों के ध्यान में यह बात आ जायेगी कि खादीगकार्य के अलगगअलग अंगों में विकेन्ौाhकरण का तत्त्व बिलकुल जड़ से शुरू होता है। आज कपास की बुवाई और खेती एक ही जगह में बड़े पैमाने पर की जाती है, और उसे हिन्दुस्तान के दूर-दूर के हिस्सों में भेजना पड़ता है। लड़ाई से पहले यह सारी कपास ज्यादातर इंग्लैण्ड और जापान को भेजी जाती थी। पहले कपास की खेती कपास बेचकर नकद रुपया कमाने के खयाल से की जाती थी और आज भी वही होता है। यही वजह है कि कपास या रुई के बाजार की तेजी-मंदी का असर किसान की आमदनी पर पड़ता है। खादी-कार्य की योजना में कपास की खेती इस सट्टे से और जुए के दाव की-सी हालत से उबर जाती है। इस योजना के अनुसार किसान पहले अपनी जरूरत की चीजों की खेती करता है। हमारे किसानों को अभी यह सीखना है कि अपनी जरूरत की चीजों की खेती करना किसान का सबसे पहला फर्ज है। अगर किसान इस चीज को सीख लें और इसके मुताबिक अपना काम करने लगें, तो बाजार की मंदी से उनके बरबाद होने की नौबत न आये।

2. अगर कातनेवाले के पास अपनी निज की कपास न हो, तो उसे अपनी जरूरत के लायक कपास ओटने के लिए खरीद लेनी चाहिये। ओटने का काम हाथ-चरखी की मदद के बिना भी बहुत आसानी से हो सकता है। हर आदमी के लिए एक पटिया और लोहे की एक छोटी सलाख अपनी कपास ओटने के लिए काफी है। जहां यह काम न हो सके, वहां कातनेवाले को हाथ से ओटी हुई रुई खरीद कर उसे धुनक लेना चाहिये। अपने काम के लायक पिंजाई छोटी धनुष-पपजन पर बिना ज्यादा मेहनत के अच्छी हो जाती है। अनुभव यह है कि मजदूरी की मेहनत जितनी ज्यादा बंट जाती है, यानी काम जितने ज्यादा हाथों से होता है, उसके लिए जरूरी औजार और हथियार भी उतने ही सस्ते और सादे होते हैं। धुनी हुई रुई की पूनियां बना लेने पर कताई शुरू हो सकती है। कातने के लिए मैं धनुष-तकुए की सिफारिश खास तौर पर करता हूं। मैंने अकसर उसका इस्तेमाल किया है। उस पर कताई की मेरी गति करीब-करीब चरखे के बराबर ही है। इसके सिवा, चरखे पर मेरा सूत जैसा निकलता है, उसके मुकाबले धनुष-तकुए पर ज्यादा महीन, ज्यादा मजबूत और ज्यादा समान कतता है। हो सकता है कि सब कातनेवालों का यह अनुभव न हो। मैं चरखे के बदले धनुष-तकुए के इस्तेमाल पर इसलिए इतना जोर दे रहा हूं कि उसे बना लेना ज्यादा आसान है, वह चरखे के मुकाबले सस्ता पड़ता है, और चरखे की तरह बारगबार उसकी मरम्मत नहीं करनी पड़ती। जब कातनेवाले को मोटी और पतली दोनों माल बनाना नहीं आता और उनके उतरने या फिसलने पर उन्हें ठीकगसे चढ़ानागलगाना नहीं आता, या चरखे के ठीकगठीक काम न देने पर उसे दुरुस्त कर लेना नहीं आता, तो अकसर वह बेकार पड़ा रहता है। और आज तो ऐसा मालूम होता है कि लाखों लोगों को एक साथ कातना शुरू करना पड़ेगा। अगर सचमुच ऐसा हुआ तो चूंकि धनुष-तकुआ आसानी से बन सकता है और उसको चलाना भी आसान है, इसलिए वही एक ऐसा साधन है, जो ऐसे समय झट काम दे सकता है। खुद तकली के मुकाबले भी धनुष-तकुए को बनाना आसान है और उसे पाने का सबसे सरल, सबसे अच्छा और सबसे सस्ता तरीका यह है कि हम खुद उसे बना लें। साथ ही, एक यह बात भी याद रखने जैसी है कि हममें से हरएक को सादे औजार बनाना और बरतना सीख लेना चाहिये। अब खयाल कीजिये कि कताई तक के अलग-अलग कामों में हमारा सारा देश एक साथ जुट जाय, तो हमारे लोगों में कितनी एकता पैदा हो जाय और उन्हें कितनी तालीम मिले ? साथ ही, यह भी सोचिये कि जब अमीर और गरीब सब एक ही तरह का काम करेंगे, तो उससे पैदा होनेवाली प्रीति के बन्धनों से बंधकर और आपस के भेदभावों को भूलकर वे किस हद तक एक-दूसरे के बराबर हो जायेंगे?

इस तरह कते हुए सूत के तीन उपयोग हो सकते हैं : एक, गरीबों के लिए उसे चरखागसंघ को भेंट कर देना; दूसरा, अपने उपयोग के लिए बुनवा लेना; या तीसरा, उसके बदले में जितनी मिले उतनी खादी खरीद लेना। जाहिर है कि सूत जितना महीन और बढ़िया होगा, उसकी कीमत भी उतनी ही ज्यादा होगी। इसलिए अगर कांग्रेसवाले सच्चे दिल से इसमें जुट जायें, तो वे कताई के और दूसरे औजारों में नये-नये सुधार करते रहेंगे और बहुतगसी नइ-नई बातों का पता लगायेंगे। हमारे देश में बुद्धि और श्रम के बीच बिलकुल अलगाव-सा हो गया है। नतीजा यह हुआ है कि हमारा जीवन बन्द पोखरे के पानी जैसा बन गया है। अब तक मैंने जो कहा है, उसके अनुसार इन दोनों का, यानी बुद्धि और श्रम का, अटूट गठ-बन्धन हो जाय, तो उसके परिणाम की कीमत का अंदाजा लगाना सहज नहीं।

मैं नहीं समझता कि सेवा के हेतु से कातने की इस राष्ट्रव्यापी योजना को सफल बनाने के लिए साधारण स्त्री अथवा पुरुष को रोज एक घण्टे से ज्यादा समय देने की जरूरत पड़ेगी।

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