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सेवाभावी गांधीजी

महात्मा गांधीजी किसी काम को छोटा हीं मानते थे। उच्च जाति के होते हुए भी वह अपने को भंगी कहते थे। भंगियों के साथ रहते थे और भंगियों का काम करते लज्जित न होते थे। सन् 1910 में जब ट्रंसवाल की सरकार ने बहुत से भारतीय सत्याग्रहियों को भारत में लाकर छोड दिया, उस समय गांधीजी ने उनकी सेवा का व्रत लिया था। यहाँ गांधीजी उनकी सब आवश्यकताएँ पूरी करते और उनकी सेवा करते थे। सबेरे उठकर विद्यार्थियों को पढाते और अपने हाथों से पाखाने साफ करते थे। उनके मैले कपडे धोते थे। सभी स्त्री-पुरूषों का गांधीजी पर पूर्ण भरोसा था।

गांधीजी की सेवा स्वार्थ-रहित होती थी। उसके बदले में वह कुछ चाहते हीं थे। निष्काम सेवा को ही वह महत्वपूर्ण समझते थे।

गांधीजी ने लगभग 20 वर्ष़ों तक दक्षिण अफ्रीका में रहकर भारतीय की अनुपम सेवा की। हर भारतवासी उन पर जान देता था, और सब कुछ निछावर करने को तैयार था।

गांधीजी को अपने जीवन में सफाई का सदैव ध्यान रहा है। उनके कपडे बहुत ही सादे होते थे पर होते बडे स्वच्छ। क्या मजाल कि उनके कपडों पर दाग पडा हो अथवा वे गंदे हो। अपने कपडे वे स्वयं धो लिया करते थे।

गांधीजी चाहते थे भारतवर्ष के सभी गाँव साफ-सुथरे रहें और यहाँ के निवासियों की रगरग में सफाई पसंदगी हो। जब वे वर्धा आश्रम में रहते थे, उस समय वह गाँव बडा ही गंदा रहता था। लोग घर के सामने ही पेशाब करते थे, पाखाना कर देते थे। जिससे चारों ओ बदबू फैली रहती थी। गांधीजी ने लोगों को बहुतेरा समझाया कि वे टट्टी, पेशाब करने के लिए गाँव के बाहर जाएँ और घर का कूडा भी बाहर फेंके पर अनपढ, गवाँर होने के कारण गाँव के लोग उनकी बात सुनते न थे। अतः गांधीजी ने स्वयं वह काम करके लोगों को दिखलाना शुरू कर दिया। वह रोज सवेरे अपने साथियों को लेकर गाँव की सफाई और टट्टी-पेशाब साफ करने के लिए जाने लगे तब ग्रामवासी सुधर गए। ग्राम की सफाई अच्छी होने लगी।

इसी प्रकार की एक घटना और है। एक बार बापू रेल में सफर कर रहे थे। उन्ही के पास एक आदमी बैठा हुआ था, जो बार-बार रेल में ही थूक देता था। गांधीजी ने एक बार कागज के टुकडे से थूक पौंछकर साफ कर दिया। उस आदमी ने सोचा यह बडे सफाई पसंद बनकर मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं। उसने फिर थूक दिया। बापू ने फिर पौंछ दिया। उस व्यक्ति ने क्रोध में आकर फिर थूक दिया। गांधीजी ने विचलित न होकर फिर अपना काम किया। इस तरह बार-बार वह व्यक्ति थूकता और बापू पोंछे देते। अंतः में स्टेशन आया और दिखलाई पडी, जनता की अपार भीड। "महात्मा गांधी की जय" के नारे लग रहे थे। सब लोग उसी डिब्बे की ओर दौडे। हँसते हँसते बापू ने जय जय कार को नमस्कार से स्वीकार किया। वह व्यक्ति तब समझा कि महात्मा गांधी ने ही उनके थूक को बारगबार साफ किया है। वह लज्जित होकर बापू के चरणों पर गिर पडा और क्षमा मांगी। बापू ने कहा "क्षमा की कोई बात हीं। मैने कर्तव्य का पालन किया। समय पडने पर तुम भी ऐसा करना"।

फीनिक्स (दक्षिण अफ्रिका) में गांधीजी ने रॉल्सरॉय आश्रम खोला। आश्रम में सत्याग्रह, स्वावलंबन आदि की शिक्षा दी जाती थी। इस आश्रम में हिंदू, मुस्लिम, पारसी और ईसाई सभी साथ रहते थे। लगभग 40 युवक, 23 बूढे, 56 स्त्रियाँ और 25-30 बच्चे आश्रम आ गए। गांधीजी ने उनके लिए पाठशाला खोली, और खर्च के लिए भीख न मांगना पडे, इस लिए उन्होंने नियम बनाया कि सब काम अपने हाथ से किया जाए और कुछ कारीगरी का काम भी सीखा जाय। आश्रम का खाना, हाथ के पिसे मोटे और बिना छाने आटे की रोटी, मूँगफली से घर पर बनाया मख्खन और संतरे के छिलकों का मुरब्बा।

गांधीजी ने जूतों का एक कारखाना भी खोल लिया था। खुद उन्होंने कई दर्जन चप्पलें बनाए। चप्पले बेची जाती थी। बढई का काम भी शुरू किया गया। बच्चों के लिए पाठशाला भी खोली गयी। मेहनत करते करते गांधीजी थक जाते, नपद के झोंके खाते और आँखों पर पानी लगाकर नपद भगाते, पर बच्चों को खुद पढाते। बच्चों के साथ हँसी खेल करते और इस प्रकार अपना और उनका आलस्य भगात ।

आश्रम में कितने ही लडके बडे उधमी और आवारा थे और उन्हे के साथ गांधीजी के तीन लडके पढते थे। दूसरे लडकों का भी लालन पालन गांधीजी के लडकों की तरह होता था। गांधीजी के कुछ साथियों को यह पसंद हीं था। एक साथी ने गांधीजी से कहा "आपका यह सिलसिला मुझे बिलकुल हीं जाँचता। इन लडकों के साथ आपके लडके रहेंगे, तो इसका बुरा नतीजा होगा। इन आवारा लडकों की सोहबत से आपके लडके बिगडे बिना कैसे रहेंगे'। गांधीजी ने जवाब दिया "अपने लडको" और इन आवारा लडकों में मैं भेद-भाव कैसे रख सकता हूँ ? अभी तो दोनों की जिम्मेदारी मुझ पर है।

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