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बचपन

महात्मा गांधी का पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। उनका जन्म गुजरात के काठियावाड में पोरबंदर नामक शहर में हुआ था। गांधीजी के पिता पोरबंदर रियासत के दीवान थे। वे बडे धार्मिक थे। पिताजी की भाँति गांधीजी की माता भी धर्मनिष्ठ थी।

मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 को हुआ था। अपने तीन भाईयों में ये सबसे छोटे थे।

सात साल पूर्ण होते ही बालक गांधी को एक देहाती पाठशाला में विद्यापार्जन के लिए भेजा गया। उस समय यह बालक क्षीण-काय और दुर्बल था। पाठशाला में लडकों के साथ खेल-कूद में उसका मन नहप लगता था। क्योंकि अन्य लडके शरारती और ऊधमी थे, पर बालक गांधी शांत, ईमानदार और सत्यव्रत-धारी था। सदैव गुरु की आज्ञा मान कर चलना वह अपना धर्म समझता था।

बालक गांधी श्रवण-भक्ति पुस्तक से बहुत ही प्रभावित हुए थे। गांधीजी पर इस पुस्तक का इतना असर पडा कि वह अपने माता-पिता के अनन्य भक्त हो गये।

इसी तरह एक नाटक कंपनी का सत्य हरिश्चंौ नाटक उन्होंने देखा। उन्होंने उसी समय प्रतिज्ञा की, मैं हरिश्चंौ की तरह सत्यवादी बनूंगा।

गांधीजी स्कूलमें बडी मेहनत से पढते थे। बारह वर्ष की अवस्था में बालक गांधी हाईस्कूल पहूँचा। एक वर्ष बादही 13 वर्ष की अवस्था में उसका विवाह हो गया।

हाईस्कूल में गांधीजी बडी लगन के साथ पढते थे। सभी शिक्षक उन्हें मानते थे। पढाई अथवा आचरण के बारे में शिक्षकों ने उनकी कभी शिकायत न की। उन्हें स्कूल में इनाम भी मिलें। मासिक छात्र वृत्तियाँ भी मिली। गांधीजी पढने से अधिक ध्यान अपने सदाचार पर रखते थे।

उनके हाईस्कूल के हेडमास्टर दोराबजी एदलजी गिदी थे। पढाई के साथ साथ वह लडकों के व्यायाम को भी आवश्यक समझते थे, और उस पर बहुत जोर देते थे। विद्यार्थियोंको फुटबॉल, क्रिकेट आदि खिलाते थे, पर गांधीजी को खेल से कोई शौक न था, क्योंकि वह समझते थे कि पढाई और खेल से कोई सम्बन्ध नहप। खुली हवा में घूमना वह बहुत पसंद करते थे। इस आदत को उन्होंने अंत तक बनाए रखा।

गांधीजी समझते थे कि पढाई में खुशखत होने की जरूरत नहप। उनकी लिखाई सुंदर न थी। बाद को उन्होंने अपना खत सुधारने की कोशिश भी की, पर सफल न हुए। उन्होंने स्वयं लिखा हैं : "जिस बात की लापरवाही मैने जवानी में की, उसे मैं आज तक संभाल न सका। प्रत्येक बालक-बालिका को मेरे उदाहरण से सचेत हो जाना चाहिए कि अच्छा, सुन्दर लेख विद्यार्थी का आवश्यक अंग हैं। मैने तो यह निश्चय कर लिया है कि बालकों को आलेखन कला सबसे प्रथम लिखना चाहिए ।

गांधीजी संस्कृत से बहुत घबराते थे। छठी कक्षा में उनकी हिम्मत पस्त हो गई। संस्कृत के शिक्षक बडे सख्त थे, और वह एक साथ ही विद्यार्थियों को बहुत-सा पढा देना चाहते थे। एक बार गांधीजी घबराकर फारसी के दर्जे में जा बैठे। संस्कृत के अध्यापक इस पर बडे दुखी हुए और उन्होंने कहा, "तुम अपने धर्म की भाषा नही पढना चाहते ? तुम्हें जो कठिनाई हो, मुझसे कहो। मैं तुम्हें अच्छा संस्कृत तज्ञ बनाना चाहता हूँ । गांधीजी लज्जित हो गए, और उन्होंने बडी लगन के साथ संस्कृत का अध्ययन किया। उनका विचार था, "किसी भी हिंदू लडके या लडकी को संस्कृत का अच्छा अध्ययन किए बिना न रहना चाहिए ।

स्कूल में पढते समय बालक गांधी को, सिगरेट पीने की आदत पड गई थी। धुआँ उडाने में उन्हें बडा आनंद आता था। पर सिगरेट खरीदने के लिए पास में पैसे तो थे नहप, इस लिए चाचाजी की पी हुई सिगरेटों को जला-जला कर पीने लगे। पर यह ज्यादा तो चलना नहप था, अतः पिता की जेब से पैसे चुराकर सिगरेट पीना शुरू कर दिया। परन्तु फिर भी संतोष न होता था। अब क्या करें ? बालक गांधी ने यह सब सोचकर आत्महत्या करने की सोची। इसके बारे में अपनी "आत्मकथा" मे गांधीजीने बडा मार्मिक वर्णन किया है ।

परन्तु आत्महत्या कैसे करें ? विष हमें कहाँ मिले ? अस्तु। हमें मालूम हुआ कि बीज खाने से आदमी मर जाता है। जंगल से ढूंढकर बीज लाए। एकांत में शाम के समय आत्महत्या का अनुष्ठान करना निश्चित किया। परन्तु जहर खाने की हिम्मत न होती थी। तुंत ही न मरे, तो आत्महत्या करने से लाभ ही क्या ? फिर भी दो-चार बीज खा ही डालें। अधिक खाने की हिम्मत न हुई। अंत में यह निश्चय किया कि चलो, रामजी के मंदिर में दर्शन कर आत्महत्या के विचारों को मन से निकालकर फेंक दें। अब मुझे मालूम हुआ कि आत्महत्या का विचार करना तो सरल हैं, पर आत्महत्या करना अत्यंत मुश्किल है।

आत्महत्या के विचार का यह फल हुआ कि नौकर के पैसे चुराकर सिगरेट लाने और पीने की आदत बिलकुल छूट गई। मैं इस टेव को जंगली, हानिकारक और गंदी मानता हूँ। मुझे अब तक यह न मालूम हो पाया कि दुनिया को सिगरेट का इतना जबरदस्त शौक क्यों है ?

गांधीजी की सिगरेट छूट गई, साथ ही साथ चोरी न करने का निश्चय भी उन्होंने किया। उन्होंने सोचा, अच्छा होगा कि वह पिताजी के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लें। पर सामने जाने की हिम्मत न पडती थी। फिर भी उन्होंने सोचा कि सारी जोखिम उठा कर भी अपनी बुराई कबूल कर लेनी चाहिए। गांधीजी ने एक लंबी चिठ्ठी पिताजी को लिखी, और उसमें सारा दोष कबूल कर लिया। साथ ही इस घोर अपराध के लिए दंड मांगा। गांधीजी ने लिखा है ।

"चिठ्ठी देखते ही पिताजी के नेत्रों से आँसू टपकने लगे, और मैं भी खूब रोया। चिठ्ठी पिताजीने फाड डाली और मेरा अपराध एक प्रकार की मूक भाषा में क्षमा किया गया जिसकी मुझे बहुत कम आशा थी । विश्वासपूर्वक मैं कह सकता हूँ कि मेरी इस दोष स्वीकृति ने पिताजी को निःशंक कर दिया, और उनका प्रेम मुझ पर और भी बढ गया ।

 

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