| | |

15. व्रत की ज़रूरत

व्रतके महत्व2 के बारेमें मैंने दस लेखमालामें जहां-तहां छुटपुट लिखा होगा। लेकिन जीवनको गढ़नेके लिए व्रत कितने ज़रूरी हैं, इस पर यहां सोचना मुनासिब लगता है। व्रतोंके बारेमें मैं लिख चुका हूं, इसलिए अब हमउ न व्रतोंकी ज़रूरतके बारेमें सोचें।

ऐसा एक संप्रदाय3 है, और वह बलवान भी है, जो कहता है : 'अमुक नियमों का पालन करना ठीक है, लेकिन उनके बारेमें व्रत लेनेकी ज़रूरत नहीं है; इतना ही नहीं, वह मनकी कमज़ोरीको बताता है और ऩुकसान करनेवाला भी हो सकता है। और, व्रत लेनेके बाद ऐसा नियम अड़चनरूप लगे, तो भी उससे चिपके पहना पड़े यह तो सहन नहीं हो सकता।` वे कहते हैं : 'मिसालके तौर पर शराब न पीना अच्छा है, इसलिए शराब नहीं पीनी चाहिये। लेकिन कभी पी ली गयी तो क्या हुआ? दवाके तौर पर तो उसे पीना ही चाहिये। इसलिए उसे न पीनेका व्रत लेना तो गलेमें फंदा डालनेके बराबर है। और जैसा शराबके बारेमें है, वैसा और चीजोंके बारेमें है। भलेके लिए हम झूठ भी क्यों न बोले?` मुझे इन दलीलोंमें कोई वजूद मालूम नहीं होता। व्रतका अर्थ है अडिग निश्चय। अड़चनेंको पार करनके लिए ही तो व्रतोंकी आवश्यकता है। अड़चन बरदाश्त करते हुए भी जो टूटता नहीं, वही अडिग निश्चय माना जायेगा। ऐसे निश्चसके बग़ैर मनुष्य लगातार ऊपर चढ़ ही नहीं सकता, ऐसी गवाही सारी दुनियाका अनुभव देता है। जो आचरण पापरूप हो, उसके निश्चयको व्रत नहीं कहा जायेगा। यह राक्षसी - शैतानी वृत्ति है। और जो निश्चय पहले पुण्यरूप लगा हो और आखिरमें पापरूप साबित हो, उसे छोड़नेका धर्म ज़रूरी हो जाता है। लेकिन ऐसी चीज के बारेमें कोई व्रत नहीं लेता, और न लेना चाहिये। सब कोई जिसे धर्म मानते हैं, लेकिन जिसे आचरनेकी हमें आदत नहीं पड़ी है, उसके लिए व्रत लेना चाहिये। ऊपरकी मिसालमें तो पापका सिर्फ आभास1 ही हो सकता है। सच कहनेसे किसीको ऩुकसान पहुंचेगा तो ?` ऐसा विचार सत्यवादी करने नहीं बैठेगा। सत्यसे इस जगतमें किसीका ऩुकसान नहीं होता, न होनेवाला है, ऐसा विश्वास2 वह रखे। उसी तरह शराब पीनेके बारेमें। या तो उस व्रतमें दवाके तौर पर शराब लेनेकी छूट रखनी चाहिये या छूट न रखी हो तो व्रत लेनेके पीछे शरीरका खतरा उठानेका निश्चय होना चाहिये। दवाके तौर पर भी शराब न पीनेसे देह छूट जाय तो भी क्या हुआ? शराब पीनेसे देह रहेगी ही, ऐसा पट्टा कौन लिखवा सकता है? और, उस क्षण देह टिकी, पर दूसरे ही क्षण किसी और कारणसे छूट गई, तो उसकी जिम्मेदारी किसके सिर होगी? इससे उलटा, देह छूट जाय तो भी शराब न पीनेकी मिसालका शराबकी लतमें फंसे हुए लोगों पर चमत्कारी3 असर होगा, यह दुनियाका कितना बड़ा फायदा है? 'देह छूटे या रहे, मुझे तो अपना धर्म पालना ही है` - ऐसा भव्य-शानदार निश्चय करनेवाला मनुष्य ही किसी समय ईश्वरकी झांकी कर सकता है। व्रत लेना कमज़ोरीकी निशानी नहीं है, बल्कि बलकी निशानी है। अमुक बात करना छीक हो तो फिर उसे करना ही है, इसका नाम है व्रत। उसमें ताक़त है। फिर उसे व्रत न कहकर किसी और नामसे पहचानें तो उसमें कोई हर्ज नहीं। लेकिन 'जहां तक हो सकेगा करूंगा` ऐसा कहनेवाला अपनी कमजोरीका या अभिमानका दर्शन कराता है; भले वह खुद उसे नम्रता कहे। उसमें नम्रताकी गंध भी नहीं है। 'जहां तक हो सकेगा` ऐसा वचन शुभ निश्चयोंमें जहर जैसा है, यह मैंने तो अपने जीवनमें और दूसरे बहुतोंके जीवनमें देखा है। 'जहां तक हो सकेगा वहां तक` करनेके मानी हैं पहली ही अड़चन आने पर गिर जाना। 'जहां तक हो सकेगा वहां तक सच्चाईका पालन करूंगा` - इस वाक्य1 का कोई अर्थ नहीं है। व्यापारमें 'हो सका तो फलां तारीखको फलां रक़म चुकानेकी` किसी चिट्ठीका कहां भी चेक या हुंडीके रूपमें स्वीकार नहीं होगा। उसी तरह जहां तक हो सके वहां तक सत्यका पालन करनेवालेकी हुंडी ईश्वरकी दुकानमें नहीं भुनाई जा सकती।

ईश्वर खुद निश्चयकी, व्रतकी संपूर्ण मुर्ति है। उसके क़ायदेमें से एक अणु, एक ज़र्रा भी हटे, तो वह ईश्वर न रह जाय। सूरज़ बड़ा व्रतधारी है, इसलिए जगतका काल2 तैयार होता है और शुद्ध पंचांग (जंत्री) बनाये जा सकते हैं। सुर्यने ऐसी साख जमाई है कि वह हमेशा उगा है और हमेशा उगता रहेगा, और इसलिए हम अपनेको सलामत मानते हैं। तमाम व्यापारका आधार एक टेक पर रहता है। व्यापारी एक-दूसरेसे बंधे हुए न रहें, तो व्यापार चले ही नहीं। यों व्रत सर्वव्यापक, सब जगह फैलही हुई चीज दिखाई देता है। तब फिर जहां अपना जीवन गढ़नेका सवाल होए ईश्वरके दर्शन करनेका प्रश्न हो, वहां व्रतके बग़ैर कैसे चल सकता है? इसलिए व्रतकी ज़रूरतके बारेमें हमारे दिलमें कभी शक पैदा ही न होना चाहिये।

| | |