| |

परिशिष्ट

('मंगल प्रभात` के पढ़नेवालोंके लिए उपयोगी होगा, ऐसा मानकर आश्रमकी नियमावलीसे नीचेका हिस्सा यहां दिया गया है।)

1. सत्य

साधारण व्यवहार-कारोबारमें झूठ न बोलना या नहीं बरतना इतना ही सत्यका अर्थ नहीं है। लेकिन सत्य ही परमेश्वर है और उसके सिवा दूसरा कुछ नहीं है। उस सत्यकी खोज और पूजाके लिए ही दूसरे सब नियमोंकी ज़रूरत रहती है और उसीमें से वे निकले हैं। इस सत्यके उपासक, पुजारी अपनी कल्पनाकी देशकी भलाईके लिए भी झूठ न बोलें, न बरतें। सत्यके खातिर वे प्रल्हादकी तरह माता-पिता वग़ैरा बुजुर्गोंकी आज्ञाका भी अदबसे1 भंग करनेमें धर्म समझें।


2. अहिंसा

प्राणियोंको जानसे न मारना इतना ही इस व्रतके लिए बस नहीं है। अहिंसाका मतलब है बहुत छोटे जीव-जंतुओंसे लेकर मनुष्य तक सब जीवोंके लिए समभाव - बराबरीका, अपनेपनका भाव। इन व्रतोंका पालन करनेवाला घोर अन्याय2 करनेवाले पर भी ग़ुस्सा न करे, लेकिन उस पर प्रेमभाव रखे, उसका भला चाहे और भला करे। लेकिन प्रेम करते हुए भी वह अन्याय करनेवालेके अन्यायके बसमें न हो, उसके अन्यायका विरोध करे और ऐसा करते हुए जो कष्ट1 वह दे, उसे धीरजके साथ और अन्याय करनेवालेसे द्वेष किये बग़ैर सहन करे।


3. ब्रह्मचर्य

ब्रह्मचर्यके पालनके बिना ऊपरके व्रतोंका पालन नामुमकिन है। ब्रह्मचारी किसी त्री या पुरूष पर बुरी निगाह न डाले इतना ही बस नहीं है, लेकिन मनसे भी विषयोंका विचार या भोग न करे। और विवाहित2 हो तो वह अपनी त्री या अपने पतिके साथ विषय-भोग3 न करे, लेकिन उसे मित्र समझ कर उसके साथ निर्मल संबंध रखे। अपनी या दूसरी त्रीको या अपने पति या दूसरे पुरूषको विकारसे छूना या उसके साथ विकारी बातचीत करना या दूसरी विकारी चेष्टा4 करना भी स्थूल5 ब्रह्मचर्यका भंग है। पुरूष-पुरूषके बीच या त्री-त्रीके बीच या दोनोंकी किसी चीज़के बारेमें विकारी चेष्टा भी स्थूल ब्रह्मचर्यका भंग है।


4. अस्वाद

आदमी जब तक जीभके रसोंको नहीं जीतता, तब तक ब्रह्मचर्यका पालन बहुत मुश्किल है, ऐसा अनुभव होनेसे अस्वादको एक अलग व्रता माना गया है। भोजन सिर्फ़ शरीरको निभानेके लिए ही करना चाहिये, भोगके लिए हरगिज़ नहीं। इसलिए उसे दवा समझकर संयमसे खानेकी ज़रूरत है। इस व्रतका पालन करनेवाला विकार पैदा करनेवाले मसालों वग़ैराको छोड़ दे। मांस खाना, शराब पीना, तम्बाकू पीना, भांग पीना वैग़राकी आश्रममें मनाही है। इस व्रतमें स्वादके लिए दावतकी या भोजनके आग्रहकी मनाही है।


5. अस्तेय ( चोरी न करना )

दूसरेकी चीज़ उसकी इजाज़तके बिना न लेना, इतना ही इस व्रत के पालनके लिए काफ़ी नहीं है। जो चीज़ ही इस व्रतके पालनके लिए मिली हो उसका उससे दूसरा उपयोग करना या जितनी मुद्दतके लिए मिली हो उससे ज़्यादा मुद्दत तक उसे काममें लाना भी चोरी है।

इस व्रतके मूलमें सूक्ष्म सत्य तो यह रहा है कि परमात्मा प्राणियोंके लिए रोज़की ज़रूरतकी चीज़ेंही राज़ पैदा करता है और उन्हें देता है। उससे ज़्यादा ज़रा भी पैदा नहीं करता। इसलिए आदमी अपनी कमसे कम ज़रूरतसे ज़्यादा जो कुछ भी लेता है वह चोरीका लेता है।


6. अपरिग्रह ( जमा न रखना )

अपरिग्रह अस्तेयके भीतर ही आ जाता है। बेज़रूरी चीज़ जैसे ली नहीं जा सकती, वैसे उसका संग्रह भी नहीं हो सकता। इसलिए जिस खुराक या सरोसामानकी ज़रूरत नहीं है, उसका संग्रह इस व्रतका भंग है। जिसे कुरसीके बिना चल सकता है वह कुरसी न रखे। अपरिग्रही मनुष्य अपने जीवनको दिनोंदिन सादा करता जाय।


7. जात-मेहनत

अस्तेय और अपरिग्रह पालनके लिए ज़ात-मेहनतका नियम ज़रूरी है। और हर मनुष्य अपना ग़ुजारा शरीरकी मेहनतसे करे तभी वह समाजके और अपने द्रोह1से बच सकता है। जिनका शरीर काम देता है और जो सयाने हो गये हैं, ऐसे त्री-पुरूषोंको चाहिये कि हाथसे निपटाया जा सकनेवाला अपना रोज़का सारा काम वे खूद ही निपटा लें और नाहक दूसरेकी सेवा न लें। लेकिन तब बच्चोंकी, दूसरे अपाहिज लोगोंकी और बूढ़े त्री-पुरूषोंकी सेवा करनेका मौक़ा आये, तब उसे करना समाजी ज़िम्मेवारी समझनेवाने हर इन्सानका धर्म है।

इस आदर्श2को सामने रखकर आश्रममें जहां मज़दूर रखे बिना काम ही नहीं चल सकता वहीं मज़दूर रखे जाते हैं, और उनके साथ मालिक-नौकरकी तरह नहीं बरता जाता।


8. स्वदेशी

मनुष्य सब-कुछ कर सकनेवाला, सर्वशक्तीमान प्राणी नहीं है। इसलिए वह अपने पड़ोसीकी सेवा करनेमें जगतकी सेवा करता है। इस भावनाका नाम स्वदेशी है। अपने पासवालोंकी सेवाको छोड़कर जो दूरवालोंकी सेवा करने या लेने दौडता है, वह स्वदेशीका भंग करता है। इस भावनाके पोषणसे संसार सुव्यवस्थित3 रह सकता है। इसके भंगमें अव्यवस्था4 रही है। इस नियमके मुताबिक़ जहां तक हो सके, हम अपने पड़ोसीकी दुकानके साथ व्यवहार - कारोबार रखें; देशमें जो चीज़ बनती हो या आसानीसे बन सकती हो, उसे हम परदेशसे न लायें। स्वदेशीमें स्वार्थ1के लिए जगह नहीं है। इन्सान खानदानके, खानदान शहरके, शहर देशके और देश जगतके कल्याण2 के लिए कुरबान हो जाय।


9. अभय

सत्य, अहिंसा वग़ैरा व्रतोंका पालन निडरताके बिना नामुमकिन है। और आजकल जब कि सब जगह डर फैल रहा है, निडरताका चिंतन और उसकी तालीम बहुत ज़रूरी होनेसे उसे व्रतोंमें स्थान दिया गया है। जो आदमी सत्यपरायण3 रहना चाहे, वह न तो जात-पांतसे डरे, न सरकारसे डरे, न चोरसे डरे, न ग़रीबसे डरे और न मौतसे डरे।


10. अस्पृश्यता-निवारण ( छूतछात मिटाना )

हिन्दू धर्ममें छूता-छूतके रिवाजने जड़ पकड़ लही है। उसमें धर्म नहीं है बल्कि अधर्म है, ऐसा हमारा मानना है। इसलिए अस्पृश्यता-निवारणको नियमोंमें स्थान दिया गया है। अछूत माने जानेवालोंके लिए दूसरी जातिवालोंके समान ही आश्रममें स्थान है।

आश्रम जातिभेदको नहीं मानता। जातिभेदसे हिन्दू धर्मको नुक़सान हुआ है, ऐसा उसकी मान्यता है। उसमें रही हुई ऊंच-नीचकी और छूतछातकी भावना अहिंसा-धर्मको मार डालनेवाली है। आश्रम वर्णाश्रम-धर्मको मानता है। उसमें बताई वर्ण-व्यवस्था सिर्फ़ धंधेके मुताबिक़ है, ऐसा लगता है। इसलिए वर्ण-नीति पर चलनेवाला आदमी मां-बापके धंधेसे रोज़ी कमाकर बाक़ीका समय शुद्ध ज्ञान लेनेमें और उसे बढ़ानेमें खर्च करें। स्मृतियोंकी आश्रम-व्यवस्था जगतका भला करनेवाली है। लेकिन वर्णाश्रम-धर्मको मानने पर भी आश्रमका जीवन गीतामें बताये हुए व्यापक1 और भावना-प्रधान (भावनाशील, जड़ नहीं) संन्यासके आदर्शको लेकर बना हुआ है, इसलिए आश्रममें वर्णभेदके लिए जगह नहीं है।


11. सहिष्णुता ( बरदाश्त )

आश्रमका यह मानना है के जगतके आजके मशहूर धर्म सत्यको प्रगट करनेवाले हैं। लेकिन वे सब अधूरे आदमीके ज़रिये प्रगट हुए हैं, इसलिए सबमें अधूरेपरकी या असत्यकी मिलावट हो गई है। इसलिए जैसे हम अपने धर्मकी इज़्ज़त करते हैं, उसी तरह हमें दूसरोंके धर्मकी इज़्ज़त करनी चाहिये। ऐसी सहिष्णुता जहां हो वहां एक-दूसरोंके धर्मका विरोध2 मुमकिन नहीं है, न दूसरे धर्मवालोंको अपने धर्ममें लानेकी कोशिश मुमकिन है; लेकिन सब धर्मोंमें रहे हुए दोष3 दूर हों ऐसी ही प्रार्थना और ऐसी ही भावना4 हमेशा बनी रहनी चाहिये।

| |