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14. स्वदेशी व्रत

स्वदेशी-व्रत इस युग का एक महाव्रत है। जो चीज आत्माका धर्म है, लेकिन अज्ञान या दूसरे कारणोंसे आत्माको जिसका भान1 नहीं रहा, उसके पालनके लिए व्रत लेनेकी ज़रूरत होती है। जो स्वभावसे मांस नहीं खानेवाला है, उसे मांस न खानेका व्रत नहीं लेना पड़ता। मांस उसके लिए लालच नहीं है; इतना ही नहीं, मांसको देखते ही उसे उलटी हो जायगी।

स्वदेशी आत्माका धर्म है, लेकिन वह बिसर गया है। इसलिए उसके बारेमें व्रत लेनेकी ज़रूरत है। आत्माके लिए स्वदेशीका आखिरी अर्थ है सारे स्थूल यानी दुनियावी संबंधोंसे पूरा छूटकारा। देह भी उसके लिए परदेशी है, क्योंकि देह दूसरी आत्माओंके साथ एकता साधनेमें उसे रोकती है, उसके मार्गका रोड़ा बनती है। तमाम जीवोंके साथ एकता साधते हुए स्वदेशी-धर्मको जाननेवाला और पालनेवाला आदमी देहको भी छोड़ देगा। यह अर्थ सही हो तो हम आसानीसे समझ जायेंगे कि अपने पासके लोगेंकी सेवामें लगे रहना, ओतप्रोत होना, यह स्वदेशी-धर्म है। ऐसी सेवा करनेमें दूरके लोग रह जाते हैं, या उनको नुक़सान पहुंचता है, ऐसा आभास होना संभव है। लेकिन वह सिर्फ आभास1 ही होगा। स्वदेशी शुद्ध सेवा करते हुए परदेशीका भी शुद्ध सेवा होती ही है। जैसा पिण्डमें वैसा ब्रह्माण्डमें।

ठससे उलटा, दूरकी सेवा करनेका मोह रखनेसे वह तो होती नहीं और पड़ोसीकी सेवा भी रह जाती है। यों बाबके दोनों - इधर उधर दोनों - बिगड़ते हैं। मुझ पर आधार रखनेवाले कुटुम्बके लोगोंको या गांवमें रहनेवालों को मैं अगर छोड़ दूं, तो मुझ पर उनका जो आधार होता है वह चला जाता है। दूरके लोगोंकी सेवा करने जानेसे जिसका धर्म उनकी सेवा करनेका है वह अपने धर्मको भूलता है। संभव है वह दूरके लोगोंको झूठा लाड़-प्यार करता हो; ऐसा करके वहांका वातावरण2 वह बिगाड़ता है और अपने यहांका वातावरण तो वह बिगाड़ कर ही गया था। यों हर तरहसे उसने नुक़सान ही पहुंचाया। ऐसी अनगिनत मिसालोंका खयाल करके स्वदेशी-धर्म साबित किया जा सकता है। इसलिए 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' (अपना धर्म पालते हुए मौत आये तो अच्छा, लेकिन दूसरेका धर्म खतरनाक होता है।) वचन निकला है। उसका अर्थ इस तरह ज़रूर किया जा सकता है : 'स्वदेशीका पालन करते हुए मौत हो जाय तो भी अच्छा है, पर परदेशी तो खतरनाक ही है।' स्वधर्म यानी स्वदेशी।

स्वदेशीको न समझनेसे ही गड़बडी पैदा होती है। कुटुम्ब पर मोह रखकर मैं उसे झूठा लाड़-प्यार करूं, उसके खातिर धन चुराऊं, दूसरी चाले चलूं, यह स्वदेशी नहीं हैं। मुझे तो उसके प्रति अपना धर्म पालन करना है। उस धर्मको खोजते हुए और उसका पालन करते हुए मुझे सर्वव्यापी, सब जगह फैला हुआ धर्म मिल जायेगा। अपने धर्मके पालनसे दूसरे धर्मवालेको या दूसरे धर्मको ऩुकसान पहुचता ही नहीं, और न पहुंचना चाहिये। अगर पहुंचे तो हमारा माना हुआ धर्म स्वधर्म नहीं बल्कि स्वाभिमान1 है और इसलिए वह तजने लायक़ है।

स्वदेशीका पालन करते हुए कुटुम्बकी कुरबानी भी करनी पड़ती है। लेकिन ऐसा करना पड़े तो उसमें भी कुटुम्बकी सेवा होनी चाहिये। जैसे खुदको कुरबान करके हम खुदकी रक्षा कर सकते हैं, उसी तरह हो सकता है कि कुटुम्बको कुरबान करके हम कुटुम्बकी रक्षा करते हों। मान लीजिये कि मेरे गांवमें महामारी2 फैली है। उस बीमारीमें फंसे हुए लोगोंकी सेवामें मैं अपनेको, अपनी पत्नीको, पुत्रोंको और पुत्रियोंको अगर लगाऊं और उस बीमारीमें फंसकर सब मौतकी शरणमें चले जायें, तो मैंने कुटुम्बका नाश3 नहीं किया, मैंने उसकी सेवा ही की है। स्वदेशीमें कोई स्वार्थ4 नहीं है; अगर है तो वह शुद्ध स्वार्थ है। शुद्ध5 स्वार्थ यानी परमार्थ; शुद्ध स्वदेशी यानी परमार्थकी आखिरी हद।

इस विचारधाराके आधार पर मैंने खादीमें सामाजिक6 शुद्ध स्वदेशी-धर्म देखा है। सब समझ सकें ऐसा इस युगमें, इस देशमें सबको पालनेकी बहुत जरूरत हो ऐसा कौनसा स्वदेशी-धर्म हो सकता है ? जिसके सहज1 पालनसे भी हिन्दुस्तानके करोड़ोंकी रक्षा हो सकती है, ऐसा कौनसा स्वदेशी-धर्म है ? जवाब मिला - चरखा या खादी।

इस धर्मके पालनसे परदेशी मिलवालोंका ऩुकसान होता है, ऐसा कोई न माने। अगर चोरको चुराई हुई चीज लौटानी पड़े या चोरी करनेसे रोका जाय, तो उसमें उसे ऩुकसान नहीं है, लाभ है। अगर पड़ोसी शराब पीना या अफीम खाना छोड़ दे, तो उससे कलालको या अफीमके दुकानदारको ऩुकसान नहीं, लाभ है। अयोग्य2 ढंगसे जो (अपना) अर्थ3 साधते हों, उनके उस अनर्थ4 का अगर नाश हो, तो उससे उन्हें और जगतको लाभ ही है।

लेकिन जो लोग चरखेसे जैसे-तैसे सूत कातकर और खादी पहन-पहनाकर यह मान लेते हैं कि स्वदेशी-धर्मका पूरा पालन हो गया, वे बड़े मोहमें डूबे हुए है। खादी सामाजिक स्वदेशी प्रथम सीढ़ी है, वह स्वदेशी-धर्मकी आखिरी हद नहीं है। ऐसे खादीधारी देखे गये हैं, जो और सब चीजें परदेशी खरीदते हैं। वे स्वदेशी-धर्मका पालन नहीं करते। वे तो सिर्फ चालू बहावमें बह रहे हैं। स्वदेशी-व्रतका पालन करनेवाला हमेशा अपने आसपास निरीक्षण5 करेगा और जहां जहां पड़ोसियोंकी सेवा की जा सके, यानी जहां जहां उनके हाथका तैयार किया हुआ ज़रूरत का माल होगा वहां दूसरा माल छोड़कर उसे लेगा। भलेही स्वदेशी चीज पहले महंगी और घटिया दरजेकी हो। व्रतधारी उसे सुधारनेकी कोशिश करेगा; स्वदेशी चीज़ खराब है इसलिए कायर बनकर परदेशीका इस्तेमाल करने नहीं लग जायेगा।

लेकिन स्वदेशी-धर्म जाननेवाला अपने कुंमें डूब नहीं मरेगा। जो चीज स्वदेशमें नहीं बनती या बड़ी तकलीफ़से बन सकती हो, उसे परदेशके द्वेष (डाह) के कारण वह अपने देशमें बनाने लग जाय, तो उसमें स्वदेशी-धर्म नहीं है। स्वदेशी-धर्मको पालनेवाला परदेशीका द्वेष कभी नहीं करेगा। इसलिए पूर्ण स्वदेशीमें किसीका द्वष नहीं है। वह संकुचित1 धर्म नहीं है। वह प्रेमसे - अहिंसासे - निकला हुआ सुंदर धर्म है।

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