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7. अभय

ता. 2-9-30

इसकी गिनती गीताजीके सोलहवें अध्यायमें दैवी संपत्का जिक्र करते हुए भगवानने प्रथम की है। यह श्लोककी रचनाकी सुविधाके लिए है या अभयका पहला स्थान होना चाहिये इसलिए है, इस बहसमें मैं यहां नहीं उतरुंगा; ऐसा निर्णय1 करनेकी मुझमें लियाकत भी नहीं है। मेरी रायमें अभयको सहज ही पहला स्थान मिला हो, तो भी वह उसके लायक ही है। बिना अभयके दूसरी संपतें नहीं मिलेंगी। बिना अभयके सत्यकी खोज कैसे हो? बिना अभयके अहिंसाका पालन कैसे हो?' हरिनो मारग छे शूरानो, नहीं कायरनुं काम जोने' (हरिका मार्ग शूरका मार्ग है, उसमे कायरका काम नहीं)। सत्य ही हरि, वही राम, वही नारायण, वही वासूदेव है। कायर यानी डरा हुआ, बुजदिल; शूर यानी भयसे मुक्त, तलवार वगैरासे लैस नहीं। तलवार बहादुरकी निशानी नहीं है, वह डरपोककी निशानी है।

अभयका मतलब है तमाम बाहरी भयोंसे मुक्ति2। मौतका डर, धन-दौलत लुट जानेका डर, कुटुंब-कबीलेके बारेमें डर, रोगका डर, हथियार चलनेका डर, आबरुका डर, किसीको बुरा लगानेका - चोट पहुंचानेका डर, इस तरह डरकी फेहरिस्त जितनी बढ़ाना चाहें हम बढ़ा सकते हैं। एक मौतका भय जीता कि सब भयोंको जीत लिया, ऐसा आम तौर पर कहा जाता है। लेकिन यह ठीक नहीं लगता। बहुतसे लोग मौतका डर छोड़ देते हैं, फिर भी वे तरह तरहके दुखोंसे भागते हैं। कुछ लोग खुद मरनेको तैयार होते हैं, लेकिन सगे-संबन्धियोंका बिछोह बरदाश्त नहीं कर सकते। कोई कंजूस यह सब छोड़ देगा, देह भी छोड़ देगा, लेकिन जमा किया हुआ धन छोड़ते झिझकेगा। कोई आदमी अपनी मानी हुई इज्जत-आबरु बनाये रखनेके लिए बहुत कुछ स्याहसफेद3 करनेको तैयार हो जायेगा और करेगा। कोई जगतकी निन्दा4 के भयसे सीधी राह जानते हुए भी उसे पकड़ते हिचकिचायेगा। सत्यकी खोज करनेवालेको इन सब भयोंको छोड़े सिवा चारा नहीं। हरिश्चंद्रकी तरह बरबाद होनेकी उसकी तैयारी हानी चाहिये। हरिश्चंद्रकी कथा भले ही मनगढ़ंत हो, लेकिन उसमें सब आत्माथ्यों (आत्माका कल्याण चाहनेवालों) का अनुभव भरा हुआ है; इसलिए उस कथाकी कीमत किसी तारीखी5 कथासे अनंतगुनी6 ज्यादा है और हम सबको उसे अपने पास रखना चाहिये और उस पर गौर करना चाहिये।

अभय-व्रतका पूरी तरह पालन करना लगभग नामुमकिन है। तमाम भयोंसे मुक्ति तो वही मनुष्य पा सकता है, जिसे आत्माके दर्शन हुए हों। अभय अमूर्छ7 दशाकी आखिरी हद8 है। निश्चय करनेसे9, लगातार कोशिश करनेसे और आत्मामें श्रद्धा बढ़नेसे अभयकी मात्रा बढ़ सकती है। मैंने शुरुमें ही कहा है कि हमें बाहरो भयोंसे मुक्ति पानी है। अन्दर जो दुश्मन हैं उनसे तो डरकर ही चलना है। काम, क्रोध वगैराका भय सच्चा भय है। उसे जीत लें तो बाहरी भयोंकी परेशानी अपने-आप मिट जायगी। तमाम भय देहको लेकर हैं। अगर देहकी ममता छूटे, तो आसानीसे अभय प्राप्त10 हो जाय। इस तरह सोचते हुए हम देखेंगे कि तमाम भय हमारी खयाली पैदावार हैं। पैसेमें से, कुटुम्बमें से, शरीरमें से 'मेरा' - पर हम निकाल दें, तो भय कहां रह जाता है? 'तेन त्यक्तेन भुंजीथाः' (उसे तजकर भोगो) - यह रामबाण वचन है। कुटुम्ब, पैसा, देह ज्योंके त्यों रहें। उनके बारेमें हमें अपनी कल्पना11 बदलनी होगी। वे 'हमारे' नहीं हैं, 'मेरे' नहीं हैं। वे ईश्वरके हैं; 'मैं' भी उसीका हूं; इस जगतमें 'मेरा' ऐसा कुछ है ही नहीं। फिर मुझे भय काहेका? इसीलिए उपनिषद्कारने कहाः 'उसे तजकर भोगो'। इसलिए हम उसके रखवाले बनें; वह उसकी रखवालीके लिए जरुरी सामान और? शक्ति हमें देगा। यों हम स्वाम 12 मिटकर सेवक बनें, शून्य जैसे (कुछ नहीं) होकर रहें, तो आसानीसे तमाम भयोंको जीत लेंगे, आसानीसे शांति पायेंगे और सत्य-नारायणका दर्शन करेंगे।


1. फैसला । 2. छुटकारा । 3. भला-बुरा । 4. बदगोई । 5. ऐतिहासिक । 6. बेहद । 7. नागाफिल । 8. पराकाष्ठा । 9. ठान लेनेसे ।

10. हासिल । 11. खयाल । 12. मालिक

 

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