| | |

8. अस्पृश्यता-निवारण1

ता. 9-9-30

यह व्रत भी अस्वाद-व्रतकी तरह नया है और कुछ विचित्र भी लगेगा। यह जितना विचित्र2 है उससे कहीं ज्यादा जरुरी है। अस्पृश्यता यानी अछूतपन; और अखा भगतने ठीक ही गाया है कि 'आभडछेट अदकेरुं अंग' (अछूतपन तो एक गैर-जरुरी अंग है, जो छठी उंगलीके समान कामका नहीं है)। यह जहां तहां धर्मके नाम पर या धर्मके बहाने धर्मके काममें रुकावट डालता है और धर्मको बिगाड़ता है। अगर आत्मा एक ही है, ईश्वर एक ही है, तो अछूत कोई नहीं। जैसे ढेढ़, भंगी अछूत माने जाते हैं, लेकिन अछूत नहीं हैं, वैसे मुरदा भी अछूत नहीं है, वह सम्मान और करुणा, इज्जत और रहमके लायक है। किसी मुरदेको छूकर या तेल लगाकर अगर कोई नहाता नहीं है, तो वह गंदा भले ही कहा जाय, लेकिन पातकी नहीं है, पापी नहीं है। यों तो भले ही माता बच्चेका मैला उठाकर जब तक न नहाये या हाथ-पैर न धोये तब तक अछूत गिनी जाय; लेकिन अगर बच्चा लाड़ करता हुआ, खेलता हुआ उसे छू ले तो उसे (बच्चेंको) छूत लगनेवाली नहीं है, न उसकी आत्मा मलिन3 होगी। लेकिन जो नफरतके कारण भंगी, ढेढ़, चमार वगैरा नामसे पहचाना जाता है, वह तो जनमसे अछूत माना जाता है। भले ही उसने सैकड़ो साबुनोंसे बरसों तक शरीरको मला हो, भले ही वह वैष्णवकी पोशाक पहनता हो, माला-कंठी धारण करता हो; भले ही वह रोज गीतापाठ करता हो और लेखकका धन्धा करता हो, तो भी वह अछूत ही माना जाता है। इस प्रकार जो धर्म माना जाता है या बरता जाता है, वह धर्म नहीं है, अधर्म है और नाश होने लायक है। अस्पृश्यता-निवारणको व्रतकी जगह देकर हम जाहिर करते हैं कि अछूतपन हिन्दू धर्मका अंग नहीं है, इतना ही नहीं बल्कि वह हिन्दू धर्ममें पैठी हुई एक सड़न है, वहम है, पाप है; और उसे मिटाना हरएक हिन्दूका धर्म है, उसका परम कर्तव्य4 है। इसलिए जो उसे पाप मानता है वह उसका प्रायश्चित5 करे और कुछ नहीं तो प्रायश्चितके तौर पर ही समझदार हिन्दू अपना धर्म समझ कर हरएक अछूत माने जानेवाले भाई या बहनको अपनावे; प्रेमसे और सेवाभावसे उसे छूए, छूकर अपनेको पावन6 हुआ माने, 'अछूतों' के दुख दूर करे। वे बरसोंसे कुचले गये हैं, इसलिए उनमें अज्ञान वगैरा जो दोष आ गये हैं उन्हें धीरजसे दूर करनेमें उनकी मदद करे और ऐसा करनेके लिए दूसरे हिन्दुओंको समझाये, प्रेरणा दे। इस निगाहसे अछूतपनको देखने पर उसे दूर करनेमें जो दुनियावी या राजनीतिक7 नतीजे समाये हुए हैं, उन्हें व्रतधारी8 तुच्छ9 समझेगा। यह या ऐसा नतीजा आये या न आये, फिर भी अछूतपन मिटानेके कामको कामको जिसने अपना व्रत बना रखा है, वह धर्म समझकर अछूत माने जानेवाले लोगोंको अपनायेगा। सत्य वगैराका आचरण उस व्रतधारीके लिए कोई तरकीब नहीं है, उसका स्वभाव है; उसी तरह अस्पृश्यता-निवारण भी उस व्रतधारीके लिए तरकीब नहीं है, लेकिन उसका स्वभाव है। इस व्रतका महत्व समझनेके बाद हमें मालूम होगा कि यह अछूतपनकी सड़न सिर्फ ढेढ़-भंगी माने जानेवालोंके बारेमें ही हिन्दू समाजमें पैठ गयी है ऐसी नहीं है। सड़नका स्वभाव है कि वह पहले राईके दानेके बराबर दीखती है, बादमें पहाड़का रुप ले लेती है और अन्तमें जिसमें दाखिल होती है उसका नाश कर देती है। अछूतपनका भी ऐसा ही है। यह छुआछुत दूसरे धर्मवालोंके साथ बरती जाती है, दूसरे फिरकेवालोंके साथ बरती जाती है, एक ही संप्रदाय10 के भीतर भी घुस गई है; यहां तक कि कुछ लोग तो छुआछूतो पालते पालते इस पृथ्वी पर भाररुप हो गये हैं। वे अपना ही संभालने, खुदको ही सहलाने (आंच न आने देने) या बचाते फिरने, नहाने-धोने, खाने-पीनेसे फुरसत नहीं पाते और ईश्वरको भूल कर ईश्वरके नामसे खुदको पूजने लग जाते हैं। इसलिए अछूतपनको मिटानेवाला आदमी सिर्फ ढेढ़-भंगीको अपनाकर संतोष नहीं मानेगा; जब तक वह तमाम जीवोंको अपनेमें नहीं देखता और अपनेको तमाम जीवोंमें नहीं होम देता, नहीं मिटा देता तब तक वह शांत होगा ही नहीं। अछूतपन मिटाना यानी तमाम जगतके साथ दोस्ती रखना, उसका सेवक बनना। यों अस्पृश्यता-निवारण और अहिंसाकी जोड़ी बन जाती है; और सचमुच है भी। अहिंसाकी जोड़ी बन जाती है; और सचमुच है भी। अहिंसाका अर्थ है तमाम जीवोंके लिए पूरा प्रेम। अछूतपन मिटानेका भी वही अर्थ है। तमाम जीवोंके साथका भेद मिटाना अछूतपन मिटाना है। इस तरह अछूतपनको देखनेसे मालूम होगा कि यह दोष11 थोड़ा-बहुत सारे जगतमें फैला हुआ है। यहां हमने उसका हिन्दू धर्मकी सड़नके रुपमे विचार किया है, क्योंकि उसने हिन्दू धर्ममें धर्मका स्थान हथिया लिया है और धर्मके बहाने लाखों या करोड़ों लोगोंकी हालत गुलामों जैसी कर डाली है।


1. अछूतपन मिटाना । 2.अजीब । 3. मैली । 4. फर्ज । 5. कफ्फारा । 6. पाक । 7. सियासी । 8. व्रत पालनेवाला । 9. नाचीज ।

10. फिरका । 11. खराबी

| | |