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6. अपरिग्रह (जमा न रखना)

ता. 26-8-30, य. मं.

अपरिग्रहका सम्बन्ध अस्तेयसे है। जो माल असलमें चुराया नहीं है उसे जरुरत न होने पर भी जमा करनेसे वह चोरीका माल-सा बन जाता है। परिग्रहके मानी हैं संचय यानी इकट्ठा करना। सत्यकी खोज करनेवाला, अहिंसा बरतनेवाला परिग्रह नहीं कर सकता। परमात्मा परिग्रह नहीं करता। अपने लिए जरुरी चीज वह रोजकी रोज पैदा करता है। इसलिए अगर हम उस पर भरोसा रखते हैं, तो हमें समझना चाहिये कि हमारी जरुरतकी चीजें वह रोजाना देता है, देगा। औलियाओंका, भक्तोंका यही अनुभव हैं। रोजकी जरुरत जितना ही रोज पैदा करनेका ईश्वरका नियम हम नहीं जानते, या जानते हुए भी पालते नहीं। इसलिए जगतमें असमानता और उसमें से पैदा होनेवाले दुख हम भुगतते हैं। अमीरके यहां उसको न चाहिये वैसी चीजें भरी पड़ी होती हैं, लापरवाहीसे खो जाती हैं, बिगड़ जाती हैं; जब कि इन्हीं चीजोंकी कमीके कारण करोड़ों लोग भटकते हैं, भूखों मरते हैं, ठंडसे ठिठुर जाते हैं। सब लोग अगर अपनी जरुरतकी चीजोंका ही संग्रह करें, तो किसीको तंगी महसूस न हो और सबको संतोष हो। आज तो दोनों तंगी महसूस करते हैं। करोड़पति भी अरबपति होना चाहता है, फिर भी उसको संतोष नहीं होता। कंगाल करोड़पति होना चाहता है; कंगालको भरपेट ही मिलनेसे संतोष होता हो ऐसा नहीं देखा जाता। फिर भी उसे भरपेट पानेका हक है और उतना पानेवाला उसे बनाना समाजका फर्ज है। इसलिए उस (गरीब) के और अपने संतोषके खातिर अमीरको पहल करनी चाहिये। अगर वह अपना बहुत ज्यादा परिग्रह छोड़े, तो कंगालको अपनी जरुरतका आसानीसे मिल जाय और दोनों पक्ष1 संतोषका सबक सीखें। आत्यंतिक2 आदर्श अपरिग्रह तो जो मनुष्य मन और कर्मसे दिगंबर है उसीका हो सकता है। मतलब यह कि वह पंछीकी तरह बगैर घरके, बगैर कपड़ेके और बगैर अन्नके चलता-फिरता रहेगा। अन्न तो जो उसे रोज लगेगा वह भगवान देता रहेगा। इस अवघूत3 दशाको बिरला ही आदमी पहुंच सकेगा। हम मामुली दरजेके सत्याग्रही, जिज्ञासु (जाननेकी इच्छा रखनेवाले) लोग आदर्श4 को खयालमें रखकर जैसा बन पड़े, हमेशा अपने परिग्रहकी जांच करते रहें और उसे कम करते जायें। सही सुधार, सच्ची सभ्यता5 का लक्षण6 परिग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि सोच-समझ कर और अपनी इच्छासे उसे कम करना है। ज्यों ज्यों हम परिग्रह घटाते जाते हैं, त्यों त्यों सच्चा सुख और सच्चा संतोष बढ़ता जाता है, सेवाकी शक्ति बढ़ती जाती है । इस तरह सोचने पर और बरतने पर हम देखेंगे कि आश्रममें हम बहुतसा संग्रह ऐसा करते हैं, जिसकी जरुरत हम साबित नहीं कर सकेंगे; और ऐसे बिन-जरुरी परिग्रहसे पड़ोसीको चोरी करनेके लालचमें फंसाते हैं। अभ्याससे, आदत डालनेसे आदमी अपनी हाजतें घटा सकता है; और ज्यों ज्यों उन्हें घटाता जाता है त्यों त्यों वह सुखी, शान्त और सब तरहसे तंदुरुस्त होता जात है। महज सत्यकी यानी आत्माकी नजरसे सोचने पर शरीर भी परिग्रह है। भोगकी इच्छासे हमने शरीरका आवरण7 पैदा किया है और उसे हम टिकाये रखते हैं। अगर भोगकी इच्छा बिलकुल कम हो जाय, तो शरीरकी हाजत मिट जाय; यानी मनुष्यको नया शरीर लेनकी जरुरत न रहे। आत्मा सब जगह फैलनेवाली, सर्वव्यापी होनेसे शरीर-रुपी पिंजरेमें क्योंकर कैद होगी? उस पिंजरेको बनाये रखनेके लिए हम बुरा काम क्यों करें? औरोंको क्यों मारें? इस तरह विचार करते हुए हम आखिरी त्याग तक पहुंच जाते हैं और जब तक शरीर है तब तक उसका उपयोग सिर्फ सेवाके लिए करना सीखते हैं; यहां तक कि सेवा ही उसकी असली खुराक हो जाती है। वह खाता है, पीता है, लेटता है, बैठता है, जागता है, सोता है, यह सब सेवाके लिए ही होता है। इसमें से पैदा होनेवाला सुख सच्चा सुख है, और ऐसा करते हुए मनुष्य अन्तमें सत्यकी झांकी करता है। हम सब अपने परिग्रहके बारेमें इसी निगाहसे सोचें।

इतना याद रखने लायक है कि जैसे चीजोंका अपरिग्रह होना चाहिए वैसे ही विचारोंका भी अपरिग्रह होना चाहिए। जो आदमी अपने दिमागमें बेकारका ज्ञान भर रखता है वह परिग्रही है। जो विचार हमें ईश्वरसे विमुख करते हैं, फेरे लेते हैं या ईश्वरकी ओर नहीं ले जाते, वे सब परिग्रहमें गिने जायेंगे और इसलिए छोड़ने लायक हैं। ज्ञानकी ऐसी व्याख्या भगवानने गीताके तेरहवें अध्यायमें दी है। वह इस मौके पर सोचने लायक है। अमानित्व8 बगैराको गिना कर भगवानने कह दिया है कि उसके अलावा जो कुछ है वह सब अज्ञान है। अगर यह सच्चा वचन है - और सच्चा तो है ही - तो आज हम बहुत कुछ जो ज्ञानके नामसे जमा करते हैं वह अज्ञान ही है और उससे लाभके बजाय नुकसान होता है; उससे सिर घूमता है और आखिर वह खाली हो जाता है; उससे असंतोष फैलता है और बुराइयां बढ़ती हैं ।

इसमें से कोई जड़ताका अर्थ कभी न निकाले। हमारा हरएक पल और क्षण प्रवृत्तिवाला9 होना चाहिए। लेकिन वह प्रवृत्ति सात्विक हो, सत्यकी ओर ले जानेवाली हो। जिसने सेवाधर्मको अपनाया है, वह एक पलके लिए भी जड़ दशामें नहीं रह सकता। यहां तो सार-असार10 का विवके11 सीखनेकी बात है। सेवा-परायण12 मनुष्यको यह विवक आसानीसे हासिल होता है।


1. गिरोह । 2. हद दरजेका । 3. मस्ताना ,फकीराना । 4. मकसद । 5. तहजीब । 6. सिफत । 7. ढ़क्कन । 8. घमंड न होना । 9. कामवाला । 10. दम-बेदम । 11. परख । 12. सेवा में लगा रहनेवाला ।

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