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5. अस्तेय (चोरी न करना)

ता. 19-8-30, य. मं.

अब हम अस्तेय-व्रत पर आते हैं। गहराईमें जानेसे हम देखेंगे कि सब व्रत सत्य और अहिंसाके या सत्यके पेटमें समाये हुए हैं ।

या तो सत्यमें से अहिंसा निकलती है ऐसा मानें या सत्य-अहेंसाकी जोड़ी माने। दोनों एक ही चीज हैं; फिर भी मेरा मन पहलेकी ओर झुकता है। और आखिरी हालत तो जोड़ीसे-द्वद्वसे  - परे है। परम सत्य अकेला टिकता है। सत्य साध्य1 है, अहिंसा साधन2 है। अहिंसा क्या है यह हम जानते है; उसका पालन मुश्किल है। सत्यका तो हम सिर्फ कुछ अंश3 ही जानते हैं; उसे पूरी तरह जानना देहधारीके लिए कठिन है, जैसे कि अहिंसाका पूरा-पूरा पालन देहधारीके लिए कहठिन है।

अस्तेयके मानी हैं चोरी न करना। कोई मनुष्य ऐसा नहीं कहेगा कि जो चोरी न करता है, वह सत्यको जानता है या प्रेमधर्मका पालन करता है। फिर भी चोरीका थोड़ा-बहुत कसूर तो हमसे जाने-अनजाने करते ही हैं। बगैर इजाजतके किसीका कुछ लेना यह तो चोरी है ही। लेकिन जिसे अपना माना है उसकी भी चोरी इन्सान करता है - जैसे कोई बाप, अपने बच्चोंके न जानते हुए, उनको न जतानेके इरादेसे, चोरी-चुपके कोई चीज खा लेता है। आश्रमका भंडार4 हम सबका है ऐसा कह सकते हैं, परन्तु उसमें से चोरी-चुपके कोई गुड़की डली भी ले ले तो वह चोर है। एक बालक दूसरेकी कलम लेता है तो वह चोरी करता है। चाहे दूसरा आदमी जानता भी हो, लेकिन उसकी इजाजतके बगैर उसकी कोई चीज लेना यह भी चोरी है। फलां चीज किसीकी भी नहीं है, ऐसा मानकर उसे लेना भी चोरी है; यानी रास्तेमें पड़ी मिली वस्तुके हम मालिक नहीं हैं, उस प्रदेश5 का राजा या तंत्र6 उसका मालिक है। आश्रमके नजदीक मिली हुई कोई भी चीज आश्रमके मंत्रीके सुपुर्द करनी चाहिये। अगर वह चीज आश्रमकी न हो, तो मंत्री उसे पुलिसके हवाले कर दे। 

यहां तक तो समझना प्रमाणमें7 सहल ही है। लेकिन अस्तेय इससे बहुत आगे जाता है। किसी एक चीजकी हमें जरुरत नहीं है, फिर भी वह जिसके कब्जेमें हो उससे, चाहे उसकी इजाजत लेकर ही, लेना चोरी है। जिसकी जरुरत न हो ऐसी एक भी चीज हमें नहीं लेनी चाहिए। ऐसी चोरी जगतमें ज्यादातर खानेकी चीजोंके बारेमें होती है। मुझे अमुक8 फलकी हाजत नहीं है, फिर भी मैं उसे खाता हूं, या चाहिये उससे ज्यादा खाता हूं, तो वह चोरी है। सचमुच अपनी हाजत कितनी है यह मनुष्य हमेशा जानता नहीं है, और लगभग हम सब होनी चाहिए उससे ज्यादा अपनी हाजतें बनाये रखते है। इससे हम अनजाने चोर बन जाते हैं। विचार करनेसे हम देखेंगे कि अपनी बहुतसी हाजतें हम कम कर सकते हैं। अस्तेयका व्रत पालनेवाला एकके बाद एक अपनी हाजतें कम करता जायेगा। इस जगतमें बहुतमें कंगाली अस्तेयके भंगसे पैदा हुई है ।

ऊपर जो चोरियां बताई गई वे सब बाहरी या शरीरकी चोरियां हुई। इससे भी बारीक-सूक्ष्म और आत्माको नीचे गिरानेवाली या रखनेवाली चोरी मानसिक, मनसे की जानेवाली है। मनसे हम किसीकी चीज पानेकी इच्छा करें या उस पर बुरी नजर डालें यह चोरी है। बड़े हों या बच्चें हों, अच्छी चीज देखकर अलग ललचाये तो वह मनकी चोरी है। उपवास9 करनेवाला शरीरसे तो नहीं खाये, लेकिन दूसरेको खाते देखकर मनसे स्वादका भंग करता है। उपवास रखनेवाला जो आदमी उपवास छोड़ते समय खानेके विचार किया करता है, वह अस्तेय और उपवासका भंग करता है ऐसा कहा जा सकता है। अस्तेय-व्रत पालनेवालेको भविष्यमें पानेकी चीजके विचारोंके भंवरमें नहीं पड़ना चाहिए। बहुतसी चोरियोंके मूलमें ऐसी बददियानत पाई जायेगी। आज जो चीज सिर्फ खयालमें ही है, उसे पानेके लिए कल हम भले-बुरे उपाय10 काममें लाना शुरु कर देंगे।

और जैसे वस्तुकी चोरी होती है, वैसे ही विचारकी चोरी भी होती है। अमुक अच्छा विचार अपने मनमें न उठा हो, फिर भी खुदने ही सबसे पहले वह विचार किया ऐसा जो आदमी अहंकार11 से कहता है, वह विचारकी चोरी करता है। ऐसी चोरी बहुतसे विद्वानोंने12 भी दुनियाकी तवारीखमें की है और आज भी चल रही है। खयाल कीजिये कि मैंने आंध्रमें एक नयी किस्मका चरखा देखा। वैसा चरखा मैं आश्रममें बनाऊं और फिर कहूं कि यह मेरी खोज है, तो इसमें मैं साफ तौर पर दूसरेकी खोजकी चोरी करता हूं, झूठ तो बोलता ही हूं।

इसलिए अस्तेय-व्रतका पालन करनेवालेको बहुत नम्र, बहुत विचारशील13, बहुत खबरदार और बहुत सादा रहना पड़ता है।


1. मकसद । 2. जरिया । 3. हिस्सा । 4. रसदखाना । 5. इलाका । 6. हुकूमत । 7. मुकाबलेमें । 8. फलां । 9. रोजा । 10. तरीके ।

11. खुदी । 12. आलिमोंने । 13. सोच-विचार करनेवाला ।

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