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4. अस्वाद

ता. 12-8-30

ब्रह्मचर्य के साथ बहुत नजदीकका सम्बन्ध रखनेवाला यह व्रत है। मेरा अनुभव है कि अगर मनुष्य इस व्रतमें पार उतर सके, तो ब्रह्मचर्य यानी जनन-इन्द्रियका संयम बिलकुल सहल हो जाय। लेकिन साधारण तौर पर इसे व्रतोंमें अलग स्थान नहीं दिया जाता। स्वादको बड़े बड़े मुतिवर भी जीत नहीं सके, इसलिए इस व्रतको अलग स्थान नहीं मिला। यह तो सिर्फ मंरा अनुमान है। ऐसा हो या न हो, हमने इस व्रतको अलग स्थान दिया है, इसलिए इसका विचार अलगसे कर लेना ठीक होगा।

अस्वाद यानी स्वाद न लेना। स्वाद यानी रसमजा। जैसे दवा खाते वक्त वह जायकेदार है या नहीं इसका खयाल न करते हुए शरीरको उसकी जरुरत है ऐसा समझकर उसकी मात्रामें1 ही हम खाते हैं, उसी तरह अन्न2 का समझना चाहिये। अन्न यानी खाने जायक तमाम चीजें। इसलिए दूध और फल भी इसमें आ जाते हैं। जैसे दवा कम मात्रामें ली जाय तो असर नहीं करती या कम असर कनती है और ज्यादा मात्रामें ली जाय तो नुकसान करती है, उसी तरह अन्नका भी है। इसलिए कोई भी चीज सिर्फ स्वादके लिए खाना व्रतका भंग है। जायकेदार लगनेवाली चीज ज्यादा खाना यह तो आसानीसे व्रतको तोड़ना हुआ। इस परसे हम समझ सकते हैं कि किसी चीजका स्वाद बढ़ाने या बदलनेके लिए या अस्वाद3 मिटानेके लिए उसमें नमक मिलाना भी व्रत-भंग है। लेकिन खुराकमें अमुक प्रमाण4 में नमककी जरुरत है ऐसा करनेमें व्रतका भंग नहीं है। शरीरके पोषण5 के लिए जरुरत न हो, फिर भी मनको ठगनेके लिए 'जरुरत है` ऐसा कहकर कोई चीज और जोड़ना यह तो मिथ्याचार - झूठा बरताव हुआ।

इस तरह सोचने पर हम देखेंगे कि जो अनेक चीजें हम खाते हैं, वे शरीरकी परवरिशके लिए जरुरी न होनेके कारण छोड़ने लायक होती हैं। और यों अनगिनत वस्तुओंका त्याग जिसके लिए कुदरती हो जाय, उसके तमाम विकार शान्त हो जाते हैं। 'एक हंडिया तेरह चीजें मांगती है` (एक तोलडी तेर वानां मागे छे), पेट बेगार करवाता है` (पेट करावे वेठ), 'पेट नाच नचाता है` (पेट वाजां वगडावे) - इन वचनोंमें बहुत सार है। इस बारेमें इतना कम खयाल किया गया है कि अस्वाद - व्रतकी निगाहसे खुराककी पसंदगी लगभग नामुमकिन हो गई है। और, बचपनसे ही मां-बाप गलत दुलार करके अनेक तरहके स्वाद बच्चोंको कराते हैं और उनके शरीरको बिगाड़ डालते हैं और जीभको कुतिया बना डालते हैं, जिससे बड़े होने पर लोग शरीरसे रोगी और स्वादकी दृष्टिसे बड़े विकारी देखनेमें आते हैं। इसके कड़वे नतीजे हम पग-पग पर महसूस करते हैं। हम बहुत खर्चमें पड़ जाते हैं, बैद-डाक्टरोंके दरवाजे पर जाते रहते हैं और शरीर तथा इन्द्रियोंको बसमें रखनेके बजाय उनके गुलाम बनकर पंगु-अपाहिज जैसे हो जाते हैं। एक तजरबेकार बैदका वचन है कि जगतमें उसने एक भी निरोगी-तंदुरुस्त आदमी नहीं, बिगड़ा और तुरन्त उस शरीरके लिए उपवास6 की जरुरत पैदा हुई।

इस विचारधारासे किसीको घवरानेकी जरुरत नहीं है। अस्वाद-व्रतसे डरकर उसे छोड़नेकी भी जरुरत नहीं है। जब हम कोई व्रत लेते हैं तो उसका मतलब यह नहीं कि तभीसे हम उसे पूरा-पूरा निभाने लग गये। व्रत लेना यानी उसको पूरा-पूरा निभानेकी ईमानदारीसे मन, वचन और कर्मसे मरने तक पक्की कोशिश करना। कोई व्रत मुश्किल है इसलिए उसकी व्याख्या7 को ढीला करके हम मनको धोखा न दें। अपने सुभीतेके लिए आदर्श8 को नीचे लानेमें असत्य -झूठ (भरा) है, हमारी गिरावट है। मकसदको स्वतंत्र रुपसे9 समझकर, वह कितना ही मुश्किल क्यों न हो, वहां तक पहुंचनेकी जी -जानसे कोशिश करना परम अर्थ है - पुरुषार्थ10 है। डपुरुष शब्दका अर्थ सिर्फ नर न करके मूल अर्थ करना चाहिये। पुरमें यानी शरीरमें जो रहता है वह पुरुष। ऐसा अर्थ करनेसे पुरुषार्थ शब्दका उपयोग नर-नारी दोनोंके लिए हो सकता है।ढ महाव्रतोंका तीनों कालों (भूत वर्तमान, भविष्य) में पूरा-पूरा पालन करनेके लिए जो समर्थ11 है, उसे जगतमें कुछ भी करनेको बाकी नहीं रहता; वह भगवान है, वह मुक्त है-आजाद है। हम तो अल्प12 मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले (मुमुक्षु), जाननेकी इच्छा रखनेवाले (जिज्ञासु), सतयका आग्रह रखनेवाले - सच्चाई पर जोर देनेवाले - और उसकी खोज करनेवाले जीव हैं। इसलिए गीताकी भाषामें हम धीरे-धीरे लेकिन अतन्द्रित13 रह कर कोशिश करते रहें। ऐसा करेंगे और तब हमारे तमाम रस, भोगकी लालसायें जल जायेंगी।

अस्वाद-व्रतकी अहमियत अगर हम समझे हों, तो उसके पालनके लिए हम नयी कोशिश करें। उसके लिए चौबीसों घंटे खानेके ही विचार करते रहनेकी जरुरत नहीं है। सिर्फ खबरदारी, जागृतिकी बहुत जरुरत रहती है। ऐसा करनेसे थोड़े ही समयमें यह मालूम हो जायगा कि हम कहां स्वाद करते हैं और कहां शरीरकी परवरिशके लिए खाते हैं। यह जब मालूम हो जाय तब दृढ़तासे-मजबूतीसे हम स्वादको कम करते ही जायं। इस नजरसे सोचने पर आश्रममें सबके लिए बनी हुई रसोई, जो स्वादकी भावनासे बनी हुई होती है, बहुत मददगार होती है। वहां क्या खायेंगे या क्या पकायेंगे, इसका हमे विचार नहीं करना पड़ता; लेकिन जो खाना पका हुआ हो और हमारे लिए तजने लायक न हो, उसे ईश्वरकी कृपा समझकर, मनमें भी उसकी टीका-टिप्पणी14 न करते हुए, संतोषके साथ शरीरके लिए जितना जरुरी हो उतना खाकर हम उठ जायें। ऐसा करनेवाला मनुष्य आसानीसे अस्वाद-व्रतका पालन करता है। सबकी रसोई बनानेवाले हमारा बोझ हलका करते हैं। वे हमारे व्रतके रखवाले बनते है। वे स्वाद करानेकी दृष्टिसे कुछ भी नहीं बनायेंगे, सिर्फ समाजके शरीरके पोषणके लिए ही खाना पकायेंगे। सचमुच तो आदर्श दशामें आगकी जरुरत कासे कम या बिलकुल ही नहीं है। सूरजके रुपमें महाअिग्न जो चीजें पकाती है, उन्हींमें से अपने खाने लायक चीजें हमें खोज निकालना चाहिये। और इस तरह सोचने पर मनुष्य-प्राणी15 सिर्फ फल खानेवाला है ऐसा साबित होता है। लेकिन यहां इतनी गहराईमें जानेकी जरुरत नहीं है। यहां तो हमें अस्वाद-व्रत क्या है, उसमें कौन कौनसी मुसीबतें हैं और नहीं हैं और उसका ब्रह्मचर्यके पालनसे कितना नजदीकका सम्बन्ध है यही सोचना था।

इतना जंच जानेके बाद सब लोग अपनी शक्तिके मुताबिक इस व्रतमें पार उतरनेकी शुभ कोशिश करें।


1. मिकदारमें । 2. खुराक । 3. बेलज्जती । 4. मिकदार । 5. परवरिश । 6. फाका । 7.तशरीह । 8. मकसद । 9. अलगसे ।

10. मर्दानी कोशिश । 11. ताकतवर । 12. नाचीज । 13. नागाफिल । 14. नुक्ताचीनी । 15. इन्सान ।

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