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3. ब्रह्मचर्य

ता. 5-8-30,य. म.

हमारे व्रतोंमे तीसरा व्रत ब्रह्मचर्यका है । हकीकतमें दूसरे सब व्रतसे ही निकलते हैं और उसीके वास्ते हैं। जिस मनुष्यने सत्यको पसंद किया है, जो उसीकी उपासना (भक्ति) करता है ,वह अगर उसे छोड़कर किसी और चीजकी आराधना करता है, तो व्यभिचारी1 साबित होता है। तब फिर विकार की अराधना तो हो ही कैसे सकती है? जिसकी सारी प्रवृत्ति, सारा काम सत्यके दर्शनके लिए है, वह बच्चे पैदा करनेके या घर-संसार, कुटुंब-कबीला चलानेके काममें कैसे पड़ सकता है? भोग-विलाससे किसीने सत्यको पाया हो ऐसी आज तक एक भी मिसाल हमारे सामने नहीं है।

या हम अहिंसाके पालनको2 लें, तो उसका पूरा-पूरा अमल करना ब्रह्मचर्यके बिना नामुमकिन है। अहिंसा यानी सब जगह फैला हुआ, सर्वव्यापी प्रेम। जहां पुरुषने एक स्रीको या स्रीने एक पुरुषको अपना प्रेम दे दिया, वहां उसके पास दूसरेके लिए रहा ही क्या? उसका मतलब यही हुआ कि 'हम दो पहले, दूसरे सब बादमें'। पतिव्रता  स्त्री पुरुष3 के लिए और पत्नीव्रती पुरुष स्त्री4 के लिए सब-कुछ कुरबान करनेको तैयार होगा, इसलिए यह तो साफ है कि उसके द्वारा सर्वव्यापी प्रेमका पालन कभी नहीं हो सकेगा। वह सारी दुनियाको अपना कुटुंब नही ही बना सकेगा, क्योंकि उसका 'अपना' माना हुआ एक कुटुम्ब मौजूद है या बन रहा है। वह कुटुम्ब जितना बढ़ता है उतना ही सर्वव्यापी प्रेममें, विश्वप्रेम में खलल पहुंचता है। सारी दुनियामें ऐसा होता हुआ हम देख रहे हैं। इसलिए अहिंसा-व्रतका पालन करनेवाला आदमी ब्याह नहीं कर सकता; तब फिर ब्याहसे बाहरके विकारोंका तो पूछना ही क्या?

तब जो लोग ब्याह कर बैठे हैं उनका क्या? क्या वे कभी सत्यको नहीं पायेंगे? क्या वे कभी सत्यको नहीं पायेंगे? क्या वे कभी भी सर्वार्पण-सब-कुछ न्योछावर नहीं कर सकेंगे? हमने उसका रास्ता निकाला ही है। शादीशुदा-विवाहित जैसे बन जायें। इस दिशामें इससे बढ़कर और कुछ मेरे अनुभव5 में नहीं आया है। इस हालतका रस6 जिसने चखा वह गवाही दे सकेगा। आज तो इस प्रयोग7 की सफलता8 साबित हो चुकी है, ऐसा कह सकते है। विवाहित ्री-पुरुष एक-दूसरेको भाई-बहन समझने लगें, तो सारे जंजालसे छूट जाते हैं। दुनियाकी तमाम औरतें बहनें हैं, माताएं हैं, बेटियां हैं, यह खयाल ही आदमीको एकदम ऊंचा ले जानेवाला है, बन्धन9 से मुक्ति10 देनेवाला हो जाता है। इसमें पति-पत्नी11 कुछ भी खोते नहीं हैं, बल्कि अपनी पूंजीको बढ़ाते हैं, कुटुम्बको बढ़ाते हैं और विकार-रुपी मैलको निकाल डालनेसे प्रेमको भी बढ़ाते हैं। विकारके न रहनेसे एक-दुसरेकी सेवा बेहतर हो सकती है, आपसके झगड़ेके मौके कम होते हैं। जहां स्वार्थी12, एकांगी13 प्रेम होता है, वहां झगड़ेके लिए ज्यादा स्थान रहता है।

ऊपरकी प्रधान14 बात सोच लेनेके बाद और उसके दिलमें जम जानेके बाद ब्रह्मचर्यसे होनेवाले शरीरके लाभ, वीर्य15 लाभ वगैरा बहुत गौण हो जाते हैं। इरादतन् भोग-विलासके लिए वीर्यको उपयोग16 दोनोंकी शरीर और मनकी शक्तिको बढ़ानेके लिए है। विषय-भोगमें17 उसका उपयोग करना उसका बहुत बड़ा दुरुपयोग18 है, इसलिए वह बहुतसी बीमारियोंका मूल हो जाता है।

ऐसा ब्रह्मचर्य मन, वचन और तनसे बरतनेका होता है। तमाम व्रतोंका ऐसा ही समझना चाहिए। जो शरीरको काबूमें रखता है, लेकिन मनसे विकारको पोसता रहता है, वह मूढ़19 और मिथ्याचारी20 है, ऐसा गीतामें हमने पढ़ा है; सभीने इसका अनुभव किया है। मनको विकारवाला रहने देना और शरीरको दबानेकी कोशिश करना इसमें नुकसान ही है। जहां मन है वहां शरीर आखिर घसिटे बिना रहेगा ही नहीं। यहां एक भेद21 समझ लेना जरुरी है। मनको विकारवश होने देना एक बात है; मन अपने-आप, बगैर इच्छाके, जबरन् विकारवाला हो जाय या हुआ करे यह दूसरी बात है। उस विकारमें हम मददगार न हों, तो आखिर हमारी जीत है ही। यह हम क्षण-क्षण अनुभव करते हैं कि शरीर काबूमें रहता है, लेकिन मन नहीं रहता। इसलिए शरीरको तुरन्त बसमें करके हम मनको बसमें करनेकी हमेशा कोशिश करते रहें, तो हम (अपना) फर्ज अदा कर चुके। मनके बसमें हम हुए कि शरीर और मनका झगड़ा शुरु हुआ, मिथ्याचारका आरंभ हुआ। जब तक मनके विकारको हम दबाते रहेंगे, तब तक दोनों साथ जायेंगे ऐसा कह सकते हैं।

इस ब्रह्मचर्यका पालन बहुत मुश्किल, लगभग नामुमकिन माना गया है। उसके कारण ढूंढने पर पता चलता है कि ब्रह्मचर्यका तंग, संकुचित अर्थ किया गया है। जनन-इन्द्रिय (लिंग, योनि) के विकारों पर काबू पाना ही ब्रह्मचर्यका पालन है ऐसा माना गया है। मुझे लगता है कि यह अधूरी और गलत व्याख्या22 है। तमाम विषयों23 पर रोक, काबू ही ब्रह्मचर्य है। जो दूसरी इन्द्रियोंको - हवासोंको - जहां तहां भटकने देता है और एक ही इन्द्रियको रोकनेकी कोशिश करता है, वह निकम्मी कोशिश करता है, इसमें क्या शक है? कानोंसे विकारकी बातें सुने, आंखोसे विकार पैदा करनेवाली चीजें देखे, जीभसे विकारोंको तेज करनेवाली चीजें स्वादसे24 खाये, हाथसे विकारोंको तेज करनेवाली वस्तुओंको छुए और फिर भी जनन-इन्द्रियको रोकनेका इरादा कोई रखे, तो यह आगमें हाथ डाल कर न जलनेकी कोशिश करने जैसा होगा। इसलिए जो जनन-इन्द्रियको रोकनेकी ठान ले, उसको तमाम इन्द्रियोंको विकारोंसे रोकनेकी ठान ही लेना चाहिए। ब्रह्मचर्य की तंग व्याख्यासे नुकसान हुआ है, ऐसा मुझे हमेशा लगा है। मेरी तो पक्की राय है और मेरा तजरबा भी है कि अगर हम सब इन्द्रियोंको एक साथ बसमे लानेकी आदत डालें, तो जनन-इन्द्रियको बसमें लानेकी कोशिश तुरन्त सफल25 होगी। इसमें मुख्य चीज स्वाद26 की इन्द्रिय है, और इसीलिए उसके संयमको हमने अलग स्थान दिया है। उसके बारेमें हम इसके बाद सोचेंगे।

ब्रह्मचर्यका मूल अर्थ सब याद करें। ब्रह्मचर्य यानी ब्रह्मकी - सत्यकी - खोजमें चर्या यानी उसके मुताल्लिक आचार-बरताव। इस मुल अर्थमें से सब इन्द्रियोंका संयम27 यह विशेष28 अर्थ निकलता है। सिर्फ जनन-इन्द्रियका संयम ऐसा अधूरा अर्थ तो हम भूल ही जायं।


1. बेवफा । 2. बरतनेको । 3.श्शौहर । 4. बीबी । 5. तजरबा । 6. मजा । 7. आजमाइश । 8. कामयाबी । 9. कैद । 10. आजादी ।

11.श्शौहर-बीबी । 12.मतलबी । 13 इकतरफा । 14. अव्वल । 15. धातु । 16. इस्तेमाल । 17. ऐश व इशरतमें । 18. बुरा इस्तेमाल ।

19. मूरख । 20. ढोंगी । 21. फर्क । 22. तशरीह । 23. जज्बात । 24. चावसे । 25. कारगर । 26. लज्जत , जायका । 27. काबू ।

28. खास ।

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