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2. अहिंसा

ता. 29-7-30

सत्यका, अहिंसाका रास्ता जितना सीधा है उतना ही संकरा-तंग है; तलवारकी धार पर चलने जैसा है। नट लोग जिस डोरी पर एक निगाह रखकर चल सकते हैं, उससे भी सत्य, अहिंसाकी डोरी ज्यादा पतली है। जरासी गफलत हुई कि नीचे गिरे ही समझो। पल-पलकी साधना1 से ही उसके दर्शन हो सकते हैं।

पर सत्यके पूरे दर्शन तो इस देहसे नामुमकिन हैं। उसकी तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। छनजीवी2 देहके जरिये शाश्वत3 धर्मका साक्षात्कार-दर्शन संभव नहीं है। इसलिए आखिरकार श्रद्धा4 का उपयोग तो करना ही पड़ता है।

इसीलिए जिज्ञासुने-जाननेकी इच्छा रखनेवाले-अहिंसाको पाया। मेरी राहमें जो मुसीबतें आयें उन्हें मैं झेलूं, या उनके लिए जितना नाश5 करना पड़े वह करता जाऊं और अपना रास्ता तय करुं? ऐसा सवाल जिज्ञासुके सामने पैदा हुआ। अगर वह नाश करता चला जाय तो वह रास्ता तय नहीं करता, लेकिन जहां था वहीं रहता है ऐसा उसने देखा। अगर मुसीबतें झेलता है तो वह आगे बढ़ताहै। पहले ही नाशके वक्त उसने देखा कि जिस सत्यको वह ढूंढता है, वह बाहर नहीं बल्कि उसके भीतर है। इसलिए वह ज्यों ज्यों नाश करता चला जाता है, त्यों त्यों पिछड़ता जाता है, सत्यसे दूर हटता जाता है ।

चोर हमें सताते हैं तब उनसे बचनेके लिए हम उन्हें सजा देते हैं। उस क्षण वे भाग जरुर जाते हैं, लेकिन दूसरी जगह डाका डालते हैं। लेकिन वह दूसरी जगह भी हमारी ही है, इसलिए हम तो अंधेरी गलीमें ही टकराये। चोरोंका उपद्रव6 बढ़ता ही जाता है, क्योंकि उन्होंने तो चोरीको अपना पेशा मान लिया है। हम देखते हैं कि इससे बेहतर तो यह है कि चोरोंका उपद्रव बरदाश्त किया जाय; ऐसा करनेसे चोरोंको समझ आयेगी। इतना सहन करने पर हम देखते हैं कि चोरोंका उपद्रव बरदाश्त किया जाय; ऐसा करनेसे चोरोंको समझ आयेगी। इतना सहन करने पर हम देखते हैं कि चोर कोइ कोई हमसे अलग नहीं हैं। हमारे लिए तो सब सगे हैं, मित्र-दोस्त हैं। उनकी सजा नहीं दी जा सकती। लेकिन उपद्रव सहते जाना ही काफी नहीं है। उसमें से तो कायरता7 पैदा होती है। इसलिए हम और एक विशेष8 धर्म9 महसूस करते हैं। चोर अगर हमारे भाईबन्द हों, तो वह भावना उनमें भी हमें पैदा करनी चाहिए। इसलिए उन्हें अपनानेके तरीके ढूंढ़नेकी जरुरी तकलीफ हमें उठानी चाहिए। यह है अहिंसाकी राह। इसमें ज्यादा और ज्यादा दुख न्योतनेकी ही बात आती है, अटूट धीरज सीखनेकी बात आती है। और अगर वह (धीरज) हममें रहा, तो आखिर चोर साहूकार बनता है, हमें सत्यका ज्यादा साफ दर्शन होता है। इस तरह हम दुनियाको दोस्त बनाना सीखते हैं; हम ईश्वरकी, सत्यकी महिमा10 को ज्यादा महसूस करते हैं; कठिनाइयां झेलने पर भी हमारी शांति, हमारा सुख बढ़ता है; हममें साहस, दिलेरी और हिम्मत बढ़ती है; हम शाश्वत-लाफानी और अशाश्वत -फानीका भेद ज्यादा समझने लगते हैं; हमारा अभिमान11 गल जाता है और नम्रता बढ़ती है; हमारा परिग्रह12 अपने - आप घट जाता है; और तनमें भरा हुआ मैल सदा घटता जाता है।

यह अहिंसा आज हम जिसे मोटे तौर पर समझते हैं, सिर्फ वही नहीं है। किसीको कभी नहीं मरना, यह तो अहिंसा है ही। तमाम खराब विचार हिंसा हैं जल्दबाजी हिंसा है। झूठ बोलना हिंसा है। जिस चीजकी जगतको जरुरत है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है। लेकिन जो कुछ हम खाते हैं वह जगतके लिए जरुरी है। जहां हम खड़े हैं वहां सैकड़ो सूक्ष्म13 जीव पड़े हैं और दुखी होते हैं; वह जगह उनकी है। तो क्या हम आत्महत्या14 करें? तो भी छुटकारा नहीं होता। अगर विचार में हम शरीरके तमाम लगाव छोड़ दें, तो आखिरमें शरीर हमें छोड़ेगा। यह अमूर्छित15 स्वरुप ही सत्यनारायण है। यह दर्शन अधीरता16 से कभी हो ही नहीं सकता। तन हमारा अपना नहीं है, वह तो (दूसरेको देनेके लिए मिली हुई) परायी चीज है, ऐसा समझकर उसका जो उपयोग हो वह करके हम अपनी राह तय करें।

मुझे लिखना तो था आसान ढंगसे, लेकिन लिख गया मुश्किल ढंगसे। फिर भी जिसने  अहिंसा के बारेमें जरा भी सोचा होगा, उसे यह समझनेमें दिक्कत नहीं होनी चाहिए।

इतना सब जान लें। बगैर अहिंसाके सत्यकी खोज नामुमकिन है। अहिंसा और सत्य ऐसे ओतप्रोत-ताने-बानेकी तरह एक-दूसरेमें मिले हुए-हैं, जैसे कि सिक्केके दो रुख या चिकनी चकतीके दो पहलू। उसमें उलटा कौनसा और सीधा कौनसा? फिर भी अहिंसाको हम साधन यानी जरिया मानें और सत्यको साध्य यानी मकसद। साधन हमारे बसकी बात है, इसलिए अहिंसा परम धर्म हुई और सत्य परमेश्वर हुआ। साधनकी फिक्र अगर हम करते रहेंगे, तो साध्यके दर्शन हम किसी न किसी दिन जरुर करेंगे। इतना निश्चय किया कि हम जग जीते। हमारे मार्गमें चाहे जो संकट आयें, ऊपरी निगाहसे देखने पर हमारी चाहे जितनी हार होती दिखाई दे, तो भी हम विश्वास17 को न छोड़ते हुए एक ही मंत्रका जप करें-सत्य है। वही है। वही एक परमेश्वर है। उसका साक्षात्कार-दीदार करने का एक ही मार्ग, एक ही साधन अहिंसा है; उसे मैं कभी नहीं छोडूंगा। जिस सत्यरुप परमेश्वरके नामसे मैंने यह प्रतिज्ञा की है; वह इसे निभानेका बल दे।


1. तपस्या, रियाज । 2. क्षणिक । 3. हमेशाका । 4. अकीदा , एतकाद । 5. दूसरेकी तबाही । 6. सताना । 7. बुजदिली । 8. खास । 9. फर्ज । 10. बड़ाई । 11.खुदी । 12. जमा रखनेकी आदत। 13. बारीक । 14. खुदकुशी । 15. नागाफिल। 16. बेसब्री  । 17. यकीन ।

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