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2. पानी

पानीका उपचार एक प्रसिध्द और पुरानी च़ीज है । उसके बारेमें अनेक पुस्तके लिखी गयी हैं । क्युनेने पानीका उत्तम उपयोग ढूंढ़ निकाला है । क्युनेकी पुस्तक हिन्दुस्तानमें बहुत प्रसिध्द हुई है और उसका तर्जुमा भी हमारी भाषाओंमे हुआ है । उसके सबसे अधिक अनुयायी आन्ध्र देशमें मिलते हैं । क्युनेने ख़ुराकके बारेमें भी क़ाफी लिखा है । मगर यहां तो मेरा विचार केवल पानीके उपचारोंके बारेमें ही लिखनेका है ।

क्युनेने उपचारोंमें मध्यबिन्दु कटि-स्थान और घर्षण-स्नान हैं उनके लिए उसने खास बरतनकी भी योजना की है । मगर उसकी खास आवश्यकता नहीं है । मनुष्यके कदके अनुसार तीससे छत्तीस इंच गहारा टब ठीक काम देता है । अनुभवसे ज्यादा बडे टबकी आवश्यकता मालूम हो, तो ज़्यादा बड़ा ले सकते हैं । उसमें ठंडा पानी भरना चाहिये । गर्मीकी ऋतुमें पानीको ठंडा रखनेकी खास आवश्यकता है । पानीको तुरन्त ठंडा करनेके लिए यादे मिल सके तो थोडी बरफ डाल सकते हैं । समय हो तो मिट्टीके घड़ेमें ठंडा किया हुआ पानी अच्छी तरह काम दे सकता है । टबमें पानीके ऊपर एक कपड़ा ढंककर जल्दी-जल्दी पंखा करनेसे भी पानीको तुरन्त ठंडा किया जा सकता है ।

टबको दीवारके साथ लगाकर रखना चाहिये और उसमें पीठको सहारा देनेके लिए एक लम्बा लकड़ीका तख्ता रखना चाहिये, ताकि उसका सहारा लेकर रोगी आरामसे बैठ सके । रोगीको अपने पैर पानीसे बाहर रखकर टबमें बैठना चाहिये । रोगीको आरामसे टबमें बैठाकर पेडू पर नरम तौलियेसे धीरे-धीरे घर्षण करना चाहिये । पांच मिनटसे लेकर तीस मिनट तक टबमें बैठ सकते हैं । स्नानके बाद गीले हिस्सेको सूखाकर रोगीको बिस्तरमें सुला देना चाहिये । यह स्नान बहुत सक्ष्त बुखारको भी उतार देता है । इस तरह स्नान लेनेमें नुकसान तो है ही नहीं, जब कि लाभ प्रत्यक्ष देखा जा सकता है । स्नान भूखे पेट ही लेना चाहिये । इससे कब्जियतको भी फायदा होता है । और अजीर्ण भी मिटता है । स्नान लेनेवालेके शरीरमें उससे स्फूर्ति आती है । कब्जियतवालोंको स्नानके बाद आधा घंटा टहलनेकी सलाह क्युनेने दी है । इस स्नानका मैंने बहुत उपयोग किया है । मैं यह नहीं कह सकता कि वह हमेशा ही सफल हुआ है, मगर इतना कह सकता हूँ कि सौमें पचाहत्तर बार वह सफल हुआ है । खूब बुखार च़ा हुआ हो, तब यदि रोगीकी स्थिति ऐसी हो कि उसे टबमें बैठाया जा सके, तो उससे दो-तीन डिग्री तक बुखार अवश्य उतर जायगा और सन्निपातका भय मिट जायगा ।

इस स्नानके बारेमें क्युनेकी दलील यह है : बुखारके बाहरी चिह्न भले कुछ भी हों, मगर उसका आन्तरिक कारण तो एक ही होता है । आंतोंमें इकट्ठे हुए मलके ज़हरसे या अन्य कारणोंसे बुखार उत्पन्न होता है ।


(15-12-’42)

यह आंतोंका बुखार – उन्दरकी गर्मी – अनेक रूप लेकरबाहर प्रकट होता है । यह आंतरिक बुखार कटि-स्नानसे अवश्य लतरता है और उससे बाहरके अनेक उपद्रव शान्त होते हैं । मैं नहीं जानता कि इस दलीलमें कितना तथ्य है । यह तो अनुभवी डॉक्टर ही बता सकते हैं । डॉक्टरोंने यद्यपि नैसर्गिक उपचारोमें से कई एकको अपना लिया है, तो भी यह कहा जा सकता है कि वे इन पउचारोंके विषयमें उदासीन रहे हैं । इसमें मैं दोनों पक्षोंका दोष पाता हूँ । डॉक्टरोंने डॉक्टरीके शिक्षण - केन्द्राWमें सीखी हुई बातों पर ही ध्यान देनेकी आदत डाल ली है, इसलिए बाहरकी चीजोंके प्रति वे लोग तिरस्कार नहीं तो उदासीनता अवश्य बताते हैं । नैसर्गिक उपचार करनेवाले लोग डॉक्टरोंके प्रति तिरस्कार भाव रखते हैं । उनके पास शास्त्राrय ज्ञान बहुत कम होता है, तो भी वे दावे बहुत बड़े-बड़े करते हैं । संघशक्तिका उन उपचारकोंमें अभाव रहता है, क्योंकि सब अपनेअपने ज्ञानकी पूंजीसे ही संतोष मानते हैं । इसलिए कोई दो उपचारक साथ मिलकर काम नहीं कर सकते । किसीके प्रयोग गहरे नहीं उतरते । बहुतोंमें नम्रताका भी अभाव होता है । (क्या नम्रता सीखी भी जा सकती है?) यह सब कहकर मैं नैसर्गिक उपचारकोंको कोसना नहीं चाहता, परन्तु वस्तुस्थिति बता रहा हूँ । जब तक उन लोगोंमे कोई अत्यंत तेजस्वी मनुष्य पैदा नहीं होता, तब तक यह स्थिति बदलनेकी कम सम्भावना है । इस स्थितिको बदलनेकी जिम्मेदारी नैसर्गिक उपचारकों पर है । डॉक्टरोंके पास उनका अपना शास्त्र है, अपनी प्रतिष्ठा है, अपना संघ है और अपने विद्यालय भी हैं । अमुक हद तक उन्हें अपने काममें सफलता भी मिलती है । उनसे यह आशा नहीं रखनी चाहिये कि एक अपरिचित च़ीजको, जो डॉक्टरीकी मार्फत नहीं आई है, वे एकाएक ग्रहण कर लेंगे ।

अब मैं घर्षण-स्नान पर आता हूँ । जननेन्द्रिय बहुत ऩाजुक इन्द्रिय है । उसकी ऊपरकी मचड़ीके सिरेमें कुछ अद्भुत चीज है । उसका वर्णन करना मुझे नहीं आता है । इस ज्ञानका लाभ लेकर क्युनेने कहा है कि इस इन्द्रियके सिरे पर (पुरुष हो तो सुपारी पर चमड़ी चढ़ाकर) नरम रूमालको पानीमें भिगोकर घिसते जाना चाहिये और पानी डालते जाना चाहिये । उपचारकी पध्दति यह बताई गई है : पानीके टबमें एक स्टूल रखा जाय । स्टूलकी बैठक पानीकी सतहसे थोड़ी ऊंची होनी चाहिये । इस स्टूल पर पांव टबसे बाहर रखकर बैठ जाना चाहिये और इन्द्रियके सिरे पर घर्षण करना चाहिये । उसे तनिक भी तकलीफ नहीं पहुंचनी चाहिये । यह क्रिया बीमार को अच्छी लगनी चाहिए । यह स्नान लेनेवालेको इस घर्षणसे बहुत शान्ति मिलती है । उसका रोग भले कुछ भी हो, उस समय तो वह शान्त हो ही जाता है । क्युनेने इस स्नानको कटि-स्नानसे भी ऊंचा स्थान दिया है । मुझे जितना अनुभव कटिस्नानका है, उतना घर्षण स्नानका नहीं है । इसमें मुख्य दोष तो मैं अपना ही मानता हूँ । मैंने घर्षण-स्नानका प्रयोग करनेमें धीरजसे इसका प्रयोग नहीं किया । इसलिए इस स्नानके परिणामके बारेंमे मैं निजी अनुभवसे कुछ नहीं लिख सकता । सबको इसे स्वयं आंजमा कर देख लेना चाहिये । टब वगैरा न मिल सके, तो लोटेमें पानी भरकर भी घर्षण-स्नान किया जा सकता है । उससे शांति तो अवश्य ही मिलेगी । लोग इस इंन्द्रियकी स़फाई पर बहुत कम ध्यान देते हैं । घर्षण-स्नानसे वह आसानीसे स़ाफ हो जाती है । अगर ध्यान न रखा जाय, तो सुपारीको ढंकनेवाली चमडीमें मैल भर जाता है इस मैलको स़ाफ करनेकी पूरी आवश्यकता है । जननेन्द्रियका उपयोग घर्षण-स्नानके लिए करने और उसे साफसुथरा रखनेसे ब्रह्मचर्य-पालनमें मदद मिलता है । इससे आसपासके तन्तु म़जबूत और शान्त बनते हैं और इस इन्द्रियके द्वारा व्यर्थ वीर्य-स्खलन न होने देनेकी सावधानी बढ़ती है, क्योंकि इस तरह स्त्राव होने देनेमें जो गंदगी रहती है, उसके लिए हमारे मनमें ऩफरत पैदा होती है, और होनी भी चाहिये ।

इन दोनों खास स्नानोंको हम क्युने-स्नान कह सकते हैं । तीसरा ऐसा ही असर पैदा करनेवाला चद्दर-स्नान है । जिसे ब़ुखार आता हो या किसी तरह भी नींद न आती हो, उसके लिए यह स्नान उपयोगी है ।

खाट पर दो-तीन गरम कम्बल बिछाने चाहिये । ये क़ाफी चौडे होने चाहिये । इनके ऊपर एक मोटी सूती चद्दर – मोटी खादीका खेस – बिछाना चाहिये । इस चद्दरको ठंडे पानीमें भिगोकर और खूब निचोड़कर कम्बलों पर बिछाना चाहिये । इसके ऊपर रोगीको कपड़े उतारकर चित्त सुला देना चाहिये । उसका सिर कम्बलोंके बाहर तकिये पर रखना चाहिये और सिर पर गीला निचोड़ा हुआ तौलिया रखना चाहिये । रोगीको सुलाकर तुरन्त कम्बलके किनारे और चद्दर चारों तऱफसे शरीर पर लपेट देने चाहिये । हाथ कम्बलोंके अन्दर होने चाहिये और पैर भी अच्छी तरह चद्दर और कम्बलोंसे ढंके रहने चाहिये, ताकि बाहरका पवन भीतर न जा सके । इस स्थितिमें रोगीको एक-दो मिनटमें ही गरमी लगनी चाहिये । सर्दीका क्षणिक आभासमात्र सुलाते समय होगा, बादमें तो रोगीको अच्छा ही लगना चाहिये । बुखारने अगर घर न कर लिया हो, तो पांचेक मिनटमें गर्मी लगकर पसीना छूटने लगेगा । परन्तु सख्त बीमारीमें मैंने आधे घंटे तक रोगीको इस तरह गीली चद्दरमें रखा है और अन्तमें उसे पसीना आया है । कभी-कभी पसीना नहीं छूटता, मगर रोगी सो जाता है । सो जाये तो रोगीको जगाना नहीं चाहिये । नींदका आना इस बातका सूचक है कि उसे चद्दर-स्नानसे आराम मिला है । चद्दरमें रखनेके बाद रोगीको ब़ुखार एक-दो डिग्री तो नीचे उतरता ही है । मेरे (दूसरे) लड़केको डबल निमोनिया हो गया था और सन्निपात भी । ऐसी हालतमें मैंने उसे चद्दर-स्नान कराया । वह पसीनेसे तरबतर हो गया और तीन-चार दिन इस तरह करनेके बाद उसका ब़ुखार उतर गया । उसका ब़ुखार आखिर टाईफाइड सिध्द हुआ और 42 दिनके बाद ही पूरी तरह उतरा । चद्दर-स्नान जब तक बुखार 160 तक जाता था तभी तक दिया गया । सात दिनके बाद इतना सख्त बुखार आना बन्द हो गया, निमोनिया मिट गया और टाइफाइडके रूपमें उसे 103 तक ब़ुखार रहने लगा । हो सकता है कि बुखारके अंश (डिग्री) के बारेमें मेरी स्मरण-शक्ति मुझे धोखा देती हो । यह उपचार मैंने डॉक्टर मित्रोंका विरोध करके किया था । दवा तो बिलकुल नहीं दी । आज मेरे चारों लड़कोंमे वह लड़का सबसे अधिक स्वस्थ है और सबसे अधिक श्रम करनेकी शक्ति रखता है ।

शरीरमें घमोरी निकली हुई हो, पित्ती (prickly heat) निकली हुई हो, आमवात (urticaria) निकला हो, बहुत खुजली आती हो, खसरा या चेचक निकली हो, तो भी यह चद्दर-स्नान काम देता है ।

(16-12-’42) मैंने इन सब रोगोंमें चद्दर-स्नानका उपयोग छूटसे किया है । चेचक या खसरेमें मैं पानीमें गुलाबी रंग आ जाय इतना परमेंगनेट डालता था । चद्दरका उपयोग हो जाने पर उसे उबलते पानीमें डाल देना चाहिये और जब पानी कुनकुना हो जाय, तब उसे अच्छी तरह धोकर सुखा लेना चाहिये ।

रक्तकी गति मन्द पड़ गयी हो, या पांव टूटते हों, तब बऱफ घिसनेसे बहुत फायदा होते मैंने देखा है । बरफके उपचारका असर गर्मीकी ऋतुमें अधिक अच्छा होता है । सर्दीकी ऋतुमें कम़जोर मनुष्य पर बऱफका उपचार करनेमें खतरा है ।

अब गरम पानीके उपचारोंके बारेमें विचार करें । गरम पानीका समझपूर्वक उपयोग करनेसे अनेक रोग शान्त हो जाते हैं । जो काम प्रसिध्द दवा आयोडीन करती है, वही काम क़ाफी हद तक गरम पानी कर देता है । सूजनवाले भाग पर हम आयोडीन लगाते हैं । उस पर गरम पानीकी पट्टी रखनेसे आराम होना संभव है । कानके दर्दमें हम आयोडिनकी बुंदे डालते हैं; उरामें भी गरम पानीकी पिचकारी लगानेसे दर्द शांत होनेकी संभावना है । आयोडीनके उपयोगमें कुछ खतरा रहता है, जब कि गरम पानी के उपचारमें कुछ भी नहीं । जिस तरह आयोडीन जंतुनाशक (disinfectant) है, उसी तरह उबलता गरम पानी भी जन्तुनाशक है । इसका यह अर्थ नहीं है कि आयोडीन उपयोगी वस्तु नहीं है । उसकी उपयोगिताके बारेमें मेरे मनमें तनिक भी शका नहीं है । मगर गरीबके घरमें आयोडीन नहीं होता । वह महंगी च़ीज है । वह हरएक आदमीके हाथमें नहीं रखा जा सकता । मगर पानी तो हर जगह होता है । इसलिए हम दवाके तौर पर उसके उपयोगकी अवगणना करते है । ऐसी अवगणनासे हमें बचना चाहिये । ऐसे घरेलू उपचारोंको सीखकर और उन्हें अपनाकर हम अनेक भयोंसे बच जाते है ।

बिच्छुके काटेको जब दूसरी किसी च़िजसे फ़ायदा नहीं होता, तब डंकवाले भागको गरम पानीमें रखनेसे कुछ आराम तो मिलता ही है ।

एकाएक सर्दी लगे, कंपकंपी चढने लगे, तब रोगीको भाप देनेसे, या उसे अच्छी तरह कम्बल ओढ़ाकर उसके चारों ओर गरम पानीकी बोतलें रखनेसे उसकी कंपकंपी मिटायी जा सकती है । सबके पास रबड़की गरम पानीकी थैली नहीं होती । कांचकी म़जबूत बोतलमें म़जबूत कॉर्क लगाकर उसे गरम पानीकी थैलीके तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है । धातुकी या दूसरी बोतल बहुत गरम हो, तो उसे कपड़ेमें लपेटकर इस्तेमाल करना चाहिये ।

भापके रूपमें पानी बहुत काम देता है । पसीना न आता हो तो भापके द्वारा लाया जा सकता है । गठियासे जिसका शरीर निकम्मा बन गया हो, या जिनका व़जन बहुत बढ गया हो, उनके लिए भाप बहुत उपयोगी वस्तु है ।

भाप लेनेका पुराना और आसानसे आसान तऱीका यह है : सनकी या सुतलीकी खाट इस्तेमाल करना ज़्यादा अच्छा है, मगर निवारकी खाट भी चल सकती है । खाट पर एक खेस या कम्बल बिछाकर रोगीको उस पर सुला देना चाहिये । उबलते पानीके दो पतीले या हंडे खाटके नीचे रखकर रोगीको इस तरह ढंक देना चाहिये । कि कम्बल खाट परसे लटक कर चारों तरफ जमीनको छू ले, ताकि खाटके नीचे बाहरकी हवा जा ही न सके । इस तरहसे लपेटनेके बाद पानीके पतीलों या हंडों परसे ढंकना उतार देना चाहिये । इससे रोगीको भाप मिलने लगेगी । अच्छी तरह भाप न मिले, तो पानीको बदलना होगा । दूसरे हंडेमें पानी उबलता हो, तो उसे खाटके नीचे रख देना चाहिये ।


(17-12-’42)

साधारणतया हम लोगोंमें यह रिवाज है कि हम खाटके नीचे अंगारे रखते हैं और उसके ऊपर उबलते हुए पानीका बरतन । हस तरह पानीक गर्मी कुछ ज्यादा तो मिल सकती है, मगर इसमें दुर्घटनाका डर रहता है । एक चिनगारी भी उड़े और कम्बल या किसी दूसरी चीजको अगर लाग लग जाय, तो रोगीकी जान खतरेमें पड़ सकती है । इसलिए तुरन्त ही गर्मी पानेका लोभ छोडकर जो तऱाका मैंने बताया है उसीका उपयोग करना ज़्यादा अच्छा है ।

कुछ लोग भापके पानीमें वनस्पतियां डालते हैं, जैसे कि नीमके पत्ते । मुझे स्वयं इसकी उपयोगिताका अनुभव नहीं है, मगर भापका उपयोग लो प्रत्यक्ष ही है । यह हुआ पसीना लानेका तऱीका ।

पांव ठंडे हो गये हों या टूटते हों, तो एक गहरे बरतनमें, जिसमें कि घुटने तक पांव पहुंच सकें, सहन होने लायक गरम पानी भरना चाहिये और उसमें राईकी भुक्की डालकर कुछ मिनट तक पांव रखने चाहिये । इससे ठंडे पांव गरम हो जाते हैं, बेचैनी और पांवोंका टूटना बन्द हो जाता है, खून नीचे उतरने लगता है और रोगीको आराम मालूम होता है । बलगम हो या गला दुखता हो, तो केटलीको एक स्वतंत्र नली लगा कर उसके द्वारा आरामसे भाप ली जा सकती है । यह नली लकड़ीकी होनी चाहिये । इस नली पर रबड़की नही लगा लेनेसे काम और भी आसान हो जाता है ।

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