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1. पृथ्वी अर्थात् मिट्टी

ये प्रकरण लिखनेका मेरा हेतु यह बताना है कि नैसर्गिक उपचारोंका जीवनमें क्या महत्त्व है और मैंने उनका उपयोग किस तरहसे किया है । इस विषय पर कुछ तो पिछले प्रकरणोंमे कहा जा चुका है ।

(13-12-’42)

यहां वे बातें मुझे कुछ विस्तारसे कहनी हैं । जिन तत्त्वोंसे यह मनुष्यरूपी पुतला बना है, वे ही नैसर्गिक उपचारोंके , साधन हैं । पृथ्वी(मिट्टी), पानी आकाश (अवकाश), तेज(सूर्य) और वायुसे यह शरीर बना है । इन साधनोंका उपयोग यहां क्रमसे बतानेकी मैंने कोशिश की है ।

सन् 1901 तक मुझे कोई भी व्याधि होती थी, तो मैं डॉक्टरोंके पास भागता तो नहीं जाता था, मगर उनकी दवाका थोड़ा उपयोग कर लेता था । एक-दो च़ीजें तो मुझे स्वर्गीय डॉक्टर प्राणजीवन मेहताने बताई थी । मैं एक छोटेसे अस्पतालमें काम करता था । कुछ अनुभव मुझे वहासें मिला और कुछ पढ़नेसे । मुझे खास तकल़ीफ कब्जियतकी रहती थी । उसके लिए समयसमय पर मैं फ्रुट सॉल्ट लेता था । उससे कुछ आराम तो मिलता था, मगर कमजोरी मालूम होती थी, सिरमें दर्द होने लगता था और दूसरे भी छोटे-मोटे उपद्रव होते रहते थे । इसलिए डॉक्टर प्राणजीवन मेहताकी बताई हुई दवा लोह (डायलाइज्ड आयरन) और नक्सवोमिका मैं लेने लगा । दवा पर मेरा विश्वास बहुत कम था । इसलिए लाचार हो जाने पर ही मैं दवा लेता था । इससे मुझे संतोष नहीं होता था ।

इस अर्सेमें ख़ुराकके मेरे प्रयोग तो चल ही रहे थे । नैसर्गिक उपचारोंमे मुझ क़ाफी विश्वास था । मगर इस बारेमें मुझे किसीकी मदद नहीं थी । इधर-उधरसे जो कुछ मैंने पढ़ लिया था,उसके आधार पर मुख्यत: भोजनमें फेरबदल करके मैं काम चला लेता था । खूब घूम लेता था, इसलिए खाट पर कभी पड़ना नहीं पडा । इस तरहसे मेरी ढीली-ढाली गाड़ी चला करती थी । ऐसे समय सुस्टकी ‘िरटर्न टू नेचर' नामकी पुस्तक भाई पोलाकने मुझे पढ़नेको दी । वे खुद उसके उपचारोंको काममें नहीं लेते थे । ख़ुराक जुस्टने जो बताई थी, वही कुछ हद तक वे लेते थे । लेकिन वे मेरी आदतोंको जानते थे, इसलिए उन्होंने वह पुस्तक मुझे दी । उसमें खास जोर मिट्टी पर दिया गया है । मुझे लगा कि उसका उपयोग कर लेना चाहिये । जुस्टने कब्जियतमें मिट्टीको ठंडे पानीमें भीगोकर बगैर कपड़ेके पेडू पर रखनेकी सूचना की है । मगर मैंने तो एक बारीक कपड़ेमें पुलटिसकी तरह मिट्टीको लपेट कर सारी रात अपने पेडू पर रखा । सबेरे उठा तो दस्तको हाजम मालूम हुई । पाखाने जाते ही बंधा हुआ सन्तोषकारी दस्त हुआ । यह कहा जा सकता है कि उस दिनसे लेकर आज तक फुट सॉल्टको मैंने शायद ही कभी छुआ होगा । आवश्यक मालूम होने पर कभी अरंडीका तेल छोटा पौना चम्मच सबेंरे जरूर ले लेता हूँ । मिट्टीकी यह पट्टी तीन इँच चौडी, छह इंच लम्बी और बाजरेकी रोटीसे दूगुनी मोटी या यह कहो कि आधा इंच मोटी होती है । जुस्टका दावा है कि जिसे जहरीले सांपने काटा हो उसे गढा खेदकर उसमें मिट्टीसे ढंककर सुला देनेसे ज़हर उतर जाता है । यह दावा सच्चा साबित हो या न हो, परंतु मैंने स्वयं मिट्टीके जा प्रयोग किये हैं, उन्हें यहां कह दूं । मेरा अनुभव है कि सिरमें दर्द होता हो, तो मिट्टीकी पट्टी सिर पर रखनेसे बहुत फ़ायदा होता है । यह प्रयोग मैंने सेकडों पर किया है । मैं जानता हूं कि सिर-दर्दके अनेक कारण हो सकते हैं, परन्तु सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि किसी भी कारणसे सिरमें दर्द क्यों न हो, मिट्टीकी पट्टी सिर पर रखनेसे तात्कालिक लाभ तो होता ही है । सामान्य फोड़े-फुन्सीको भी मिट्टी मिटाती है । मैंने तो बहते हुए फोड़े परभी मिट्टी रखी है । ऐसे फोडे पर मिट्टी रखनेसे पहले मैं स़ाफ कपडेको परमेंगनेटको गुलाबी पानीमें भिगोता हूँ, फोडेको उससे साफ करता हूँ और फिर उस पर मिट्टीकी पुलटिस रखता हूँ । इससे अधिकांश फोड़े मिट ही जाते हैं । जिन पर मैंने यह प्रयोग किया है, उनमें से एक भी केस निष्फल रहा हो ऐसा मुझे याद नहीं आता । बर्र वगैराके डंक पर मिट्टी तुरन्त फायदा करती है । बिच्छुका उपद्रव आये दिनकी बात हो गयी है । बिच्छूके जितने इलाजोंका पता लगा है, वे सब इलाज सेवाग्राममें आजमा कर देखे गये हैं । मगर उनमें से किसीको भी अचूक नहीं कहा जा सकता । मिट्टी उनमें किसीसे कम साबित नहीं हुई ।

सख्त बुखारमें मिट्टीका उपयोग पेडू पर रखनेके लिए और सिरमें दर्द हो,तो सिर पर रखनेके लिए मैंने किया हैं । मैं यह तो नहीं कह सकता कि इससे हमेशा बुखार उतरा ही है, मगर रोगीको इससे शांति जरुर मिली है ।


(14-12-’42)

टाइफाइडमें मैंने मिट्टीका खूब प्रयोग किया है । यह बुखार तो अपनी मुद्दत लेकर ही जाता था, मगर मिट्टीसे रोगीको हमेशा शांति मिलती थी । सब रोगी ख़ुद मिट्टी मांगते थे । सेवाग्राम आश्रममें टाइफाईड के दसेक केस हो चुके हैं । पर उनमें से एक भी केस नहीं बिगडा । सेवाग्राममें अब टाईफाइडसे लोग डरते नहीं हैं । मैं कह सकता हूँ कि एक भी केसमें मैंने दवाका उपयोग नहीं किया । मिट्टीके सिवा दूसरे नैसर्गिक उपचारोंको उपयोग मैंने ज़रूर किया है, मगर उनकी चर्चा उनके स्थान पर करूंगा ।

मिट्टीका उपयोग सेवाग्राममें एन्टीप्लोजिस्टिनकी जगह पर छूटसे हुआ है । उसमें थोडा सरसोंका तेल और नमक मिलाया जाता है । इस मिट्टीको अच्छी तरह गरम करना पड़ता है । इससे वह बिलकुल निर्दोष बन जाती है ।

मिट्टी कैसी होनी चाहिये, यह कहना अभी ब़ाकी है । मेरा पहला परिचय तो अच्छी लाल मिट्टीसे हुआ था । पाना मिलाने पर उसमें से सुगंध निकलती है । ऐसी मिट्टी आसानीसे नहीं मिलती । बम्बई जैसे शहरमें तो किसी भी तऱहकी मिट्टी पाना मेरे लिए कठिन हो गया था । मिट्टी न मो बहुत चीकनी होनी चाहिये और न बिलकुल रेतीली । खादवाली तो हरग़िज न होनी चाहिये । वह रेशमकी तरह मुलायम होनी चाहिये और उसमें कंकरी बिलकुल न होनी चाहिये । इस लिए उसे बारीक छलनीसे छान लेना अच्छा है । बिलकुल स़ाफ न लगे तो उसे सेंक लेना चाहिये । मिट्टी बिलकुल सूखी होनी चाहिये । गीली हो तो उसे धूपमें या अंगीठी पर सूखा लेना चाहिये । साफ भाग पर इस्तेमाल की हुई मिट्टी सूखाकर बार-बार इस्तेमाल की जा सकती है । इस तरह इस्तेमाल करनेसे मिट्टीका कोई गुण कम होता हो ऐसा मैं नहीं जानता । मैंने इस तरह मिट्टीका कोई गुण कम होता हो ऐसा मैं नहीं जानता । मैंने इस तरह मिट्टीका इस्तेमाल किया है और मेरे अनुभवमें यह नहीं आया कि उसका कोई गुण कम हुआ है । मिट्टीका उपयोग करनेवालोंसे मैंने सुना है कि जमुनाके किनारे जो पीली मिट्टी मिलती है वह बहुत गुणकारी होती है ।

मिट्टी खाना: क्युनेने लिखा है कि स़ाफ बारीक समुद्री रेती दस्त लानेके लिए उपयोगमें ली जाती है । मिट्टी किस तरह काम करती है, इसके बारेमें उन्होंने बताया है कि मिट्टी पचती नहीं, उसे कचरे (refuse) तरह पेटसे बाहर निकलना ही होता है । और अपने साथ वह मलको भी बाहर निकलती है । लेकिन इसका मैंने तो कभी अनुभव नहीं किया है । इसलिए जो लोग यह प्रयोग करना चाहें, वे सोच-समझ कर ही करें । एक-दो बार आजमा कर देखनेमें कोई नुकसान होनेकी संभावना नहीं है ।

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