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पहला गिरमिटिया : गाँधीभाई का महाकाव्यात्मक कथ्य

डॉ. त्रिभुवन राय

'पहला गिरमिटिया' न जीवनी है, न आत्मकथा। वह कोई शोधग्रंथ भी नहीं है और न ही इतिहास की कोई पुस्तक, यद्यपि इन सभी के तत्त्व उसमें घुले-मिले विद्यमान दीख पड़ते हैं। यह कृति अपने संपूर्ण अर्थों में वस्तुत: एक साधक सर्जक द्वारा रचित उपन्यास है, जिसमें उसकी अपनी संरचना की शर्तों पर इतर विधाओं की सामग्री का स्वच्छन्द, किन्तु प्रभावी रूप में प्रयोग किया गया है। इसके केन्द्र में सत्य और अहिंसा के महान योद्धा, बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के महानायक गाँधी द्वारा अपने दक्षिण अ़फ्रीकी प्रवास के दौरान किया गया अभूतपूर्व एवं अविश्वसनीय संघर्ष है, जिसकी बृहत्तर परिधि जहाँ एक ओर वह स्वयं और उनका परिवार है तो दूसरी ओर दिन-रात अमानवीय शोषण एवं यातना की चक्की में पिसनेवाले हजारों गिरमिटिये और दूसरे भारतीय प्रवासी हैं, जिनके तन-मन के घाव गाँधी भाई को बरबस अपने लाखों देशवासियों के लहूलुहान घायल चेहरों के बरक्स ला खड़ा करते हैं। साथ ही इसके भीतर जहाँ अपनी पहचान की लौ को बुझी राख के मानिन्द दबे-कुचले आत्मसम्मान के भीतर से कुरेदने और जगाने की कोशिश दिखायी देती है, वहीं आत्मविश्वास, एकजुटता, समरसता और जागृति की चेतना के उस प्रकाश को अँखुवाने का वह उपक्रम है, जो दक्षिण अ़फ्रीका के भारतीय प्रवासियों के क्षितिज के अँधेरे के साथ विशाल भारत के आकाश में परिव्याप्त तमस को भेदने की चुनौती झेलने के क्रम में सतत आगे बढ़ता दीख पड़ता है।

मोहनदास करमचंद गाँधी दादा अब्दुल्ला की कम्पनी के काम से एक साल के परमिट पर दक्षिण अ़फ्रीका जाते हैं। सन् 1893 के अप्रैल महीने में वह डरबन के लिए रवाना हुए थे और मई के अंत में नेटाल बन्दरगाह पहुँचे थे। उस समय उनकी उम्र कुल जमा 28 साल थी। भारत के लिए वह दक्षिण अ़फ्रीका की धरती को अन्तिम रूप से सन् 1914 की जुलाई के तीसरे सप्ताह में छोड़ते हैं। इस बीच वह भारत दो बार (सन् 1893 में तथा सन् 1901 में) आते ज़रूर हैं, पर दक्षिण अ़फ्रीका को साथ लेकर। दक्षिण अ़फ्रीका और वहाँ के भारतीयों की समस्याएँ जैसे उनके मन-प्राण में बस गयी थीं। इस तरह वह कुल इक्कीस वर्षों तक दक्षिण अ़फ्रीका में रहे अथवा यों कहें कि दक्षिण अ़फ्रीका, वहाँ के संघर्ष की ज्वाला उन्हें तब तक तपाती और पकाती रही, जब तक उनका गाँधीभाई महात्मा गाँधी की दिशा की ओर उन्मुख हो पैंतालीस वर्ष के प्रौढ़ साधक के रूप में भारत की ओर रुख नहीं करता।

नौजवान बैरिस्टर मोहनदास की पीड़ा थी कि उनकी श्रमपूर्ण तैयारी, निष्ठा और सच्चाई की राजकोट में कोई क़ीमत नहीं। जब किसी के सही म़ुकदमे को भी वह नहीं जिता सकते, तब वहाँ रहने से उन्हें क्या फ़ायदा? इसलिए मुंशीगीरी के काम का ही सही, अपने बचे-खुचे सपनों के साथ दक्षिण अ़फ्रीका के लिए कूच करने में वह देर नहीं करते। पर यह क्या, एडिंग्टन बीच के बन्दरगाह पर उतरते ही उनके सपनों की परत उघड़ने लगी। उन्हें पहला धक्का तो अपने मालिक दादा अब्दुल्ला से ही मिला, जब गोरों की तरह लकदक पोशाक में उन्हें देखकर वह बुदबुदा उठे थे - 'इस सफ़ेद हाथी का मैं क्या करूँगा?' दूसरा धक्का तब लगा, जब अदालत में मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने का आदेश दिया। तीसरा धक्का तब लगा, जब पीटर मेरिट्जबर्ग स्टेशन पर फर्स्ट क्लास का टिकट होते हुए भी वह प्लेटफार्म पर फेंक दिये गये। रंग-भेद का क्रूरतम साक्षात्कार यहाँ सहज ही उनके भीतर इस सवाल को सिर उठाने का म़ौका देता है कि ''क्या वह लौट जायें?'' लेकिन एक साल का परमिट, फिर अपना और अपने देश के सम्मान के चलते वह लौट कैसे सकते हैं? इस सवाल-जवाब के चलते उनकी अन्तरात्मा उन्हें दृढ़ता से चेताती है - ''लौट जाने का मतलब होगा अपने आपको...कायरता को सौंप देना। उसमें डुबा देना। (और) कायरता से बड़ा अपमान कोई नहीं। इसलिए अगर इसके घटाटोप में छेद करना है, इसकी कमज़ोरियों को उघाड़ना है तो इसी के साथ रहना होगा।'' (पृ. 105-106) बस फिर क्या था, उन्हें अपने म़कसद का मूल सूत्र मिल जाता है। अब रही बात इस पर चलते हुए अन्याय के म़ुकाबले के लिए ज़रूरी शक्ति को पाने की तो उसका सूत्र भी उन्हें स्टैण्डर्टन के रास्ते में कोच के लीडर से बुरी तरह पिटने पर तब हाथ लग जाता है, जब वह भीतर-ही-भीतर कहने लगे थे, ''मारो, जितना मारना है। वह लड़ नहीं सकता तो क्या हुआ, उसकी ज़्यादतियाँ तो चुप रहकर बरदाश्त कर सकता है। यह भी लड़ाई है। ह़क के लिए ज़्यादतियों को सहकर...लौटाओ।'' (पृ. 118) उस समय, कहना नहीं होगा कि उनकी सहनशीलता ही उनकी त़ाकत बन गयी थी। विरोध के हथियार का इस्तेमाल तो वे कोर्ट रूम वाली घटना के बारे में अख़बारों में लिखकर पहले ही कर चुके थे। वह तालाब में फेंकी गयी 'पहली कंकड़ी ही नहीं थी, कुछ और भी थी', दादा अब्दुल्ला की अनुभवी अन्तर्दृष्टि ने इसे तुरन्त ताड़ लिया था।

मोहनदास को दक्षिण अ़फ्रीका के उपनिवेशों में भारतीयों की दयनीय स्थिति को समझते देर नहीं लगती। उन्हें रह-रहकर यह बात परेशान करती है कि ''आख़िर भारतीय यहाँ इतना दबकर क्यों रहते हैं। वे अपने अधिकारें को पहचानते क्यों नहीं।'' (पृष्ठ 88) इज़्ज़त और बेइज़्ज़त का उनके लिए क्यों कोई मतलब नहीं रहा। पल-पल मरना ही उनके जीवन की असलियत क्यों बन गया है? क्या पीड़ित और डरे हुए भारतीयों को जगाया नहीं जा सकता? ये सवाल उन्हें भीतर तक कुरेदते हैं। इसलिए वह भारतीय समुदाय से मिलने के लिए यदि बेचैन हो उठते हैं तो कुछ भी अस्वाभाविक नहीं। यात्रा के दौरान मिले अपने जख़्मों में वह पूरे स्थानीय भारतीय समाज के जख़्मों को जो देख रहे होते हैं! तैयब सेठ से अपनी पीड़ा का बयान करते हुए वह इस बात पर आश्चर्य प्रकट किये बिना नहीं रहते कि ''यहाँ के लोग चाहे यात्री के रूप में आये हों या बँधुआ मज़दूर यानी गिरमिटिया के रूप में...सबकी जद्दोजहद पैसे के लिए है। अपने जख़्मों का मरहम वे पैसा को ही समझते हैं। सुख-शान्ति और इज़्ज़त से बड़ा पैसा...? वे सिर्फ़ पैसा ही क्यों देखते हैं? उनकी पहचान क्या सिर्फ़ पैसा बनायेगी? अगर वे पैसे को अपनी शक्ल मान लेंगे तो उनकी शक्लें सिक्कों में बदल जाएँगी। नाक-नक़्श पैसा ही हो जाएगा।'' (पृ. 156)

हिन्दुस्तानियों की पहचान बनाये रखने के उद्देश्य से बुलायी गयी प्रिटोरिया की पहली बैठक में भी वह अपनी पीड़ा को बिना लाग-लपेट के प्रकट करते हुए वहाँ के लोगों को अपनी दुहरी ज़िम्मेदारी के प्रति सचेत करने से एकदम नहीं कतराते। सच और झूठ के बारे में अपने स्वकेन्द्रित नज़रिये को बदलने की हिम्मत के साथ ही लोगों का व्यक्तिगत और सामूहिक आचरण भी इस परायी धरती पर `हिन्दुस्तान में रहने वाले लाखों करोड़ों हिन्दुस्तानियों के आचरण की कसौटी' बन सकता है। ऐसी स्थिति में वह यह कहने में तनिक भी नहीं हिचकते कि अपने ऊपर होनेवाले अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के साथ ही लोगों को यह नहीं भूलना होगा कि ''आचरण की सत्यता ही सम्मान की कसौटी बनेगी, वरना हम हर जगह जानवरों की तरह दुत्कारे जाते रहेंगे।'' (पृ. 163)

एक बात और, गाँधीभाई अत्याचार को सिर्फ़ अत्याचार के रूप में देखते हैं, न गोरे के रूप में और न काले के रूप में, इसलिए बालसुन्दरम के ख़ून से लथपथ चेहरे में पोरबन्दर के लखू और उसके जैसे तमाम हिन्दुस्तानियों के घायल चेहरे उन्हें अनायास दीख पड़ने लगते हैं। दक्षिण अ़फ्रीका में रंग-भेद के तहत जो पीड़ा उन्हें झेलनी पड़ती है, वह बारंबार उनके सामने अस्पृश्य उका और उसकी बिरादरी के तमाम लोगों की पीड़ा का साक्षात्कार करा देती है। प्रेसिडेंट क्रूगर के गार्डों से घिरने पर मिअ कोट्स से वह बहुत बेबाक ढंग से कहते हैं कि अपने देश में हम भी तो अपने लोगों पर इसी तरह का अन्याय करते हैं। (पृ. 179) इसलिए उनकी लड़ाई का एक सिरा अपने देश की धरती को रह-रहकर छूता रहता है। यह दूसरी बात है कि उस सिरे को अपनी धरती से सम्पृक्त होने के लिए अभी प्रतीक्षा के दौर से गुज़रना था।

गाँधीभाई ब़कौल दादा अब्दुल्ला ''म़ुकदमा म़ुकदमों की तरह नहीं लड़ते...उनका नज़रिया ईमानदारी और इनसानियत का रहता है। उससे न सच्चाई को ज़रब आती है और न इनसानियत घटती है। उन्होंने नैतिकता, सद्भावना और पारम्परिक विश्वास एवं आत्मसम्मान के सहारे जिस तरह से दादा अब्दुल्ला और सेठ तैयब जी के चालीस हज़ार पौण्ड वाले म़ुकदमे को निपटाया है, उससे मिस्टर बेकर तक चकित रह जाते हैं। दादा अब्दुल्ला, जिन्होंने पहली ही मुल़ाकात में उनकी क्षमताओं पर संदेह व्यक्त किया था, उनकी ख़ुद्दारी, दूरदर्शिता और सत्य निष्ठा के इतने मुरीद हो जाते हैं कि उन्हें 'छोटा ईसा' तक कह डालते हैं।''

दादा अब्दुल्ला के म़ुकदमे के फ़ैसले के साथ ही एक साल की गिरमिट की अवधि भी समाप्त हो चली थी। घर मोहनदास को बुलाने लगा था। कस्तूर से किया वादा भी उन्हें भीतर ही भीतर कोंच रहा था। इसलिए दादा अब्दुल्ला के आग्रह के बावजूद वह भारत लौटने का फैसला करते हैं। परन्तु बिदाई-समारोह में जैसे ही उनकी नज़र 'नेटाल मर्करी' के इण्डियन फ्रैंचाइज़ - भारतीय मताधिकार - शीर्षक समाचार पर पड़ती है, वह सोच में डूब जाते हैं। समाचार की प्रकृति से उन्हें लगता है, 'अगर यह बिल पास हो गया तो हिन्दुस्तानी वहाँ मुश्किल में पड़ सकते हैं। वह उनकी आज़ादी में आख़िरी कील साबित हो सकता है...अगर किसी तरह की कोई आज़ादी है...।' (पृ. 212) बिल की पृष्ठभूमि को जान लेने पर तो उनकी आशंका य़कीन में बदल जाती है। समारोह में उपस्थित प्रतिष्ठित भारतीय व्यवसायियों के अनुरोध पर यात्रा और घर सब कुछ को भूलकर मोहनदास दक्षिण अ़फ्रीकी संघर्ष के निर्णायक और विराट अग्निकुण्ड को अर्पित हो जाते हैं।

गाँधी दक्षिण अ़फ्रीका में रह रहे हिन्दुस्तानी गिरमिटियों की, गोरों की नज़रों में जिनकी औकात गंदगी फैलाने वाले चूहों से अधिक नहीं थी, पीड़ा को बहुत भीतर तक महसूस कर रहे थे, लेकिन वह इनके भीतर की त़ाकत को भी देख रहे थे। वह देख रहे थे कि उनमें असन्तोष का लावा कम नहीं और 'असन्तोष हमेशा जड़ता और ठहराव के विरुद्ध खड़े होने की शक्ति का प्रतीक होता है।' इसलिए मताधिकार के मामले में वह गिरमिटियों को उपेक्षित करने के नहीं, वरन् साथ लेकर चलने के पक्षधर थे। इसलिए गवर्नर के नाम तैयार किये गये अपने प्रत्यावेदन के मसौदे में भारतीयों के पुरजोर समर्थन के लिए मोहनदास ने जहाँ मिअ कैम्बले और डोन को सराहा था, वहीं गिरमिटियों के ख़िलाफ़ की गयी उनकी टिप्पणियों की धज्जियाँ भी उड़ायी थीं। मसौदे पर चर्चा के दौरान पारसी रुस्तमजी के `हिस्सों में ह़कबहाली' वाले प्रस्ताव को, कि मताधिकार हर स्वतंत्र भारतीय को मिलना चाहिए, अपने ढंग से स्वीकार करते हुए वह यह कहे बिना नहीं रहते कि ''आप मानें या न मानें, लेकिन आगे चलकर इस पूरे संघर्ष के कवच यही लोग होंगे, जिन्हें आज हम गिरमिटिया का नाम देकर, अपने से काटकर अलग कर देना चाहते हैं। इनका अपना महत्त्व है। कोई भी परिवर्तन इनके बिना संभव नहीं। ये जल-प्लावन भी कर सकते हैं और जल-प्लावन के समय टीला बनकर खड़े भी हो सकते हैं।'' (पृ. 251) गिरमिटियों की इस त़ाकत का अहसास गोरों के साथ-साथ पूरी दुनिया को तब होता है, जब तीन पौण्डिया टैक्स के मामले को पाँच हज़ार हड़तालियों की अनुशासित सेना गाँधीभाई के आह्वान पर सर्वस्व-त्याग की भावना के साथ आगे बढ़ती दिखायी देती है, अथवा प्राणें की बाज़ी लगाये ख़ान मजदूर काम पर जाने से इन्कार कर देते हैं।

मोहनदास की लड़ाई मताधिकार वाले मसले से शुरू होकर एशियाटिक ऐक्ट, इमिग्रेशन (रेस्ट्रिक्शन) ऐक्ट, तीन पौण्डिया पोल टैक्स से लेकर भारतीय शादियों की वैधता वाले मामले तक इस तरह फैलती जाती है कि दक्षिण अ़फ्रीका के विभिन्न उपनिवेशों में रहनेवाले हज़ारों हिन्दुस्तानी स्त्री-पुरुष इसमें अनायास खिंचते चले जाते हैं। लड़ाई का दायरा इस क़दर और इतना बढ़ जाता है कि प्रोअ गोखले जैसे व्यक्ति के सम्मुख प्रधानमंत्री जनरल बोथा को हिन्दुस्तानियों से तमाम प्रमुख माँगों को मान लेने का वादा करना पड़ता है। परन्तु सरकार की वादाख़िलाफ़ी मोहनदास को अनवरत लड़ाई के लिए कमर कसने पर बाध्य कर देती है। हाँ, चूँकि तीन पौण्डिया पोल टैक्स की लड़ाई गिरमिटियों की ज़्यादा थी, इसलिए उन्हीं के बीच रहकर वह इसे अंजाम देने का फैसला करते हैं। (पृ. 801)

सचमुच वह पहले गिरमिटिया थे, जिन्होंने अपने को बैरिस्टर से गिरमिटिया में बदल दिया था। इस तरह तमाम हिन्दुस्तानी गिरमिटियों के दु:ख-दर्द सने आँसू और विश्वास उनके अपने हो गये थे। वह पहले गिरमिटिया इस अर्थ में भी थे कि अपनी अस्मिता और देश के सम्मान की ख़ातिर भरे कोर्ट रूम में गोरे मजिस्ट्रेट से यह कह सके थे - ''मी लार्ड, यह फेटा है। हम लोगों के सम्मान का प्रतीक। मेरे लिए ऐसा करना संभव नहीं...।'' वह पहले गिरमिटिया इस कारण भी थे कि भारतीय मुसलमानों के वहाँ अरब कहे जाने और इस पर उनके द्वारा कोई आपत्ति दर्ज न कराये जाने पर वह अपनी पीड़ा-भरी प्रतिक्रिया छिपा नहीं पाते। धर्म बदलनेवाले हिन्दुस्तानी ईसाई अपने को भारतीयता से कैसे अलग कर लेते हैं, यह बात भी उन्हीं को वहाँ बहुत भीतर तक पहली बार चुभती है। और सबसे बड़ी बात, जो उन्हें पहला गिरमिटिया होने का रुतबा प्रदान करती है, वह है अपने सीमित परिवार के साथ, बल्कि उसके स्थान पर हिन्दुस्तानी गिरमिटियों की पूरी दुनिया को अपने बृहतर परिवार के रूप में अपनी आत्मा में स्थान देना। तभी तो कोई भी थका-हारा गिरमिटिया उनके पास पहुँचकर अपने को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करने लगता है। आखिर वह थे भी तो सबके अपने भाई।

दक्षिण अ़फ्रीका में गाँधी, ज़ाहिर है, कुछ ख़ास लेकर नहीं गये थे। यदि वहाँ कुछ ले गये थे तो अपना ज़िद्दीपन, ऐसा ज़िद्दीपन कि एक बार जो ठान लेते, वह उसे करके छोड़ते, ग़लत और अनुचित को नकारने का साहस। ग़ज़ब का आत्मबल, अप्रतिम निर्भीकता, असाधारण सहनशक्ति और असीम धैर्यशीलता। उनकी सम्पूर्ण साधारणता में निहित असाधारणता के यही कुछ ऐसे तीर-कमान थे, जिनके बल पर उन्हें गोरों की क्रूर पाशविक शक्ति का प्रतिरोध करना था। किन्तु उस परायी धरती पर एक बार जब उन्हें सत्याग्रह का ब्रह्मास्त्र मिल गया, तब दुनिया की ऐसी कौन-सी त़ाकत थी, जो उनके बढ़ते क़दमों को रोक पाती! निस्संदेह उन्होंने अपूर्व हथियारों के सहारे एक ऐसी लड़ाई लड़ी कि औपनिवेशिक ह़ुकूमत अपनी तमाम त़ाकत के बावजूद स्तंभित हो उठी। उनके तर्क, उनके प्रेम और लड़ने का उनका अपना तऱीका विरोधी को इस क़दर विवश कर देते हैं कि वह निश्चय ही नहीं कर पाता कि ऐसे दुश्मन को कैसे झुकाया जाय, जो यातनाओं को मुस्कराते हुए झेलता है, विरोध करते हुए भी अतिशय विनम्र और अनुशासित रहता है, प्रतिपक्षी के लिए भी जिसके भीतर आत्मीयता और प्रेम का उमड़ता हुआ सागर ठाटें मार रहा होता है, जिसका एक कोमल स्पर्श भी ज़िन्दगी की आख़िरी साँस गिननेवाले को इतनी शक्ति दे जाता है कि अतिशय शान्ति के साथ वह मुस्कराते हुए मौत को गले लगा लेता है।

उपन्यास में नायक के व्यक्तित्व के अनेक आयाम, मसलन राजनीतिक संघर्ष-चेतना का और सेवा-भावना का आयाम और निजता का आयाम खुलते और विकसित होते हैं। व्यक्ति रूप में गाँधी की निजता के आयाम का साक्षात्कार उपन्यासकार उनके मोहनिया और मोहनदास के वैयक्तिक पक्षों के साथ प्रभावशाली रूप में करवाता है। अपने बापू और बा का मोहनिया अपनी कमज़ोरियों के बावजूद बहुत आकर्षक, प्रिय और संभावनाशील है। पत्नी कस्तूर और बच्चों के संदर्भ में उसके व्यक्ति-पक्ष को 'पहला गिरमिटिया' के सर्जक ने अपेक्षाकृत तटस्थता, किन्तु रोचकता और संपूर्णता में उठाने का प्रयास किया है। हर भारतीय स्त्री की तरह कस्तूर का भी सपना है कि उसका पति सम्मानित और प्रतिष्ठित व्यक्ति के रूप में समाज में स्थान पावे, वह उसके पास रहे, तभी तो वह बहुत अनमने भाव से मोहनदास के दक्षिण अ़फ्रीका जाने का समर्थन करती है। कस्तूर की यह पीड़ा भी वाजिब है कि ''सबका दु:ख सालता है, उसका दु:ख क्यों नहीं सालता?'' दक्षिण अ़फ्रीका में समाज-सेवा में तल्लीन और राजनीतिक धुन में व्यस्त मोहनदास को देखकर उसका पत्नीत्व और मातृत्व यदि आहत होता है और वह सोचती है, 'पत्नी को न पति मिला और न बच्चों को उनका भरपूर बापू', तो यह भी बेजा नहीं।'' सन् 1901 में भारत लौटते समय प्राप्त उपहारों को लेकर गाँधी से उलझने वाली कस्तूर की इमेज भी एक ऐसी भारतीय नारी की है, जिसे पति से अधिक बच्चों और बहुओं की चिन्ता होती है। लेकिन कस्तूर के भीतर एक ऐसी तेजस्वी नारी है, जो यह क़तई बरदाश्त नहीं कर सकती कि दुनिया की कोई शक्ति उसे गाँधी की पत्नी के रूप में नकारने की हिम्मत करे। इसलिए भारतीय शादियों की वैधता के मामले में गाँधी के मना करने पर भी वह स्वयं सत्याग्रह में फ़िनिक्स बहनों के जत्थे का नेतृत्व करने के अपने फ़ैसले पर अडिग रहती है।

कस्तूर में एक ऐसी विचार वाली नारी भी है, जो पति की कमज़ोरी को सहज रूप में लेती है। इस दृष्टि से पाट साफ़ करने वाले प्रकरण में गाँधी के आपा खो देने पर प्रश्नाकुल बेटे से वह इतना ही कहती है कि आख़िर तुम्हारे बापू भी आदमी ही हैं। निस्संदेह कस्तूर अपनी विशिष्टताओं के बावजूद घर की सीमाओं में आबद्ध है, जबकि मोहनदास उसे निरन्तर अतिक्रमित करते आगे बढ़ते चलते हैं। पर कस्तूर के प्रति उनका प्रेम किसी भी रूप में कम नहीं। आत्मचिन्तन के क्षणों में जहाँ एक ओर घायल बालसुन्दरम के रूप में आहत भारतीय अस्मिता उनके सम्मुख आ खड़ी होती है, वहीं दूसरी ओर कस्तूर से बातें करते-करते मन-ही-मन कहने लगते हैं -  ''कस्तूर, मुझे तुम्हारा सहयोग चाहिए। ईश्वर, तुम, बच्चे, मैं तुम सबसे जुड़ा हूँ। तुम मुझसे जुड़े हो। लेकिन यहाँ हजारों हिन्दुस्तानी अकेले हैं, उनका एक दूसरे से जुड़ना ज़रूरी है। अंजुलि में जल लेकर संकल्प एक लेता है, बाकी सब हाथ लगाकर सहयोग का आश्वासन देते हैं।'' (पृ. 339) यही नहीं, वह कस्तूर से यह आग्रह भी करते हैं कि कुछ समय के लिए वह अपने मोहनदास को समाज को अर्पित कर दे। अपने स्तर पर कस्तूर का यह सोचना भी ग़लत नहीं कि ''जब तुमने पहले ही छोड़ दिया तो हमारे पास यह ह़क ही कहाँ बचा है कि हम तुम्हें किसी को समर्पित कर दें।'' (पृ. 707) परन्तु मोहनदास कस्तूर की भावनाओं को समझते नहीं, उनका सम्मान नहीं करते, इसे स्वीकार कर पाना कठिन है। यह कस्तूर की भावनाओं का ही दबाव था कि उसे न चाहते हुए कुष्ठ रोगी को अस्पताल में दाख़िल करना पड़ता है और जेकी को उसके पति के पास फ़ीज़ी भिजवाना पड़ता है।

इस अर्थ में गाँधी का आत्म-संघर्ष महात्मा बुद्ध से अधिक बड़ा और विशिष्ट बन जाता है कि वह अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए कस्तूर की अवहेलना नहीं करते। फाक्सरस्ट जेल में कस्तूर की बिगड़ती हालत के संबंध में वह वेस्ट को जो तार देते हैं और कस्तूर के नाम जो पत्र लिखते हैं, उनमें कस्तूर के प्रति उनका अथाह प्रेम तो झलकता ही है, अपनी इनसानी दुर्बलताओं की स्पष्ट स्वीकृति भी दिखायी देती है। (पृ. 738-739) हाँ, अपनी पितृ-सेवा के यज्ञ को ध्वस्त करने के लिए बारंबार काम-रूपी असुर को लताड़ने और अपनी भोग-वासना में कस्तूर को बराबर का दोषी करार देनेवाले मोहनदास की भावना का समर्थन कर पाना कठिन है। पता नहीं, उपन्यासकार इस घटना के बारंबार उल्लेख के द्वारा किस बात का संकेत करना चाहता है। कहीं 'मानस का हंस' के तुलसीदास वाली 'काम से राम' वाली ग्रंथि का मोहनदास के उन्नयन के संदर्भ में तो इस्तेमाल नहीं करना चाहता?

इस कृति में उपन्यासकार की शक्ति का एक पक्ष मार्मिक प्रसंगों की उद्भावना और करुणाद्रावी दृश्यों के उकेरने में भी लक्षित होता है। संकेत रूप में यहाँ कतिपय मार्मिक प्रसंगों का उल्लेख करना पर्याप्त होगा। पीटर मेरिट्जवर्ग स्टेशन पर अपमानित और प्रताड़ित गाँधी को हिन्दुस्तानी पुरबिये कुली का बेंच के नीचे छुपकर किया गया यह संबोधन - ''बाबू यहाँ बहुत जाड़ा बा, वेटिंग रूम में बैठ जाय।'' फिर अपने दो के बीच के एक कम्बल को चुपचाप गाँधी को ओढ़ा देना - सत्यपरक घटना की यह रचनात्मक प्रस्तुति पाठक को भीतर तक द्रवित कर जाती है। गाँधी के संपर्क में मेटिल्डा के घर का घर बने रहना, टोगार के धनी व्यवसायी के घर अतिरिक्त 6 पौण्ड की सहायता के लिए पूरी रात मोहनदास की अगुवाई में उनके साथियों का भूखे डटे रहना और अंत में मोहनदास के यह कहने पर कि ''पैसा लेना मेरा एकमात्र उद्देश्य नहीं...'' सेठ का अपनी भूल का अहसास होना, बेसलम की हड़ताल का वह प्रसंग, जहाँ एक ओर हड़ताली मजदूर अपनी माँग - गाँधीभाई को लाओ, हमारी रानी और राजकुमारों को छोड़ो-से टस-से-मस नहीं हो रहे थे और दूसरी ओर जनरल ल्यूकिन किसी भी क्षण गोली चलाने का हुक्म देने के लिए बेताब हो रहा था। तभी अठारह साल के व्रेवो सोराब का जनरल के घोड़े की लगाम को पकड़कर उसे ख़बरदार करना और प्रेम के बल पर मज़दूरों को काम पर लौट चलने के लिए मना लेना। इस तरह के और भी ढेर सारे प्रसंग हैं, जो पाठकों को रोमांचित किये बिना नहीं रहते। इस तरह सत्तर साल के बूढ़े हरबत सिंह, 16 साल की वलियम्मा मुदलियार के बलिदानी प्रसंग भी हमारी आँखें गीली कर जाते हैं। करुणाद्रावी दृश्यों में करन पिल्लै की मौत, कोर्ट की फाइलों में दबी अंधे भिखारी की दर्दनाक गाथा, तूफ़ानी बरसात में रेटल की खाड़ी में कुलियों को लाने वाले जहाज़ के डूबने पर डच मालिक और उसकी बीवी के बीच का वार्तालाप और ठिठुरते चार हिन्दुस्तानी कुलियों की रोंगटे खड़ी कर देने वाली लाचारी की उपन्यास के आरंभ में लेखक ने असल में जो पृष्ठभूमि निर्मित की है, वह इतनी करुण और हृदयद्रावी है कि मंच पर गाँधी के संघर्षों के शंखनाद की एक बड़ी ही सटीक और उप्रेरक पीठिका बन गयी है।

निस्संदेह गाँधीभाई जैसे लोक-प्रतिष्ठित और विश्व-विश्रुत व्यक्ति पर उपन्यास लिखना अपने आप में एक चुनौती भरा काम था। वह गाँधीभाई, जिनका दक्षिण अ़फ्रीकी संघर्ष इतिहास के पन्नों में अंकित है, जिन्होंने स्वयं अपनी आत्मकथा लिखी है, जिनकी विभिन्न रूपों में एकाधिक जीवनियाँ उपलब्ध हैं, शोधकर्ताओं ने जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व के अनेक अनछुए पहलुओं को श्रम के साथ उजागर किया है, भाई गिरिराज किशोर के पास फिर उसको लेकर क्या कुछ नया कहने के लिए बचा था। यदि नहीं तो यह उनके रचनाकार का दुस्साहस ही कहा जाता। परन्तु हिन्दी के सौभाग्य से उपन्यासकार गिरिराज किशोर ने वर्षों तक गाँधीभाई को विभिन्न धरातलों पर मथा ही नहीं है, वरन् उन्हें पूरी ईमानदारी के साथ जिया भी है। गहन मंथन से प्राप्त गाँधी को अंतश्चेतना का अंग बनाकर कल्पना के अमृत रस से सिंचित करके उन्होंने 'पहला गिरमिटिया' के रूप में जिस गाँधी को सृजित किया है, वह अपनी दुर्बलताओं के बावजूद इतना उदात्त और अवदात है कि पाठक की चेतना अनायास समृद्ध हो उठती है। गाँधी की सर्जना हेतु लेखक ने यहाँ निश्चय ही एक उपयुक्त एवं सशक्त भाषा को भी सर्जित एवं विकसित किया है। 'पहला गिरमिटिया' अपनी विशिष्टताओं के कारण विगत शताब्दी के उत्तरार्ध का श्रेष्ठतम उपन्यास ही नहीं है, उसमें महाभारत और रामायण की तरह आने वाले समय में भारतीय जनमानस को सप्रेरित करने की संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता।

उपन्यासकार ने 'पहला गिरमिटिया' लिखकर गाँधी के ऋण को उतारने की बात कही है। लेकिन यह ऋण मुकम्मल तौर पर तब तक नहीं उतर सकता, जब तक कि यह उपन्यास बृहत्तर पाठक-समाज तक नहीं पहुँचता। क्या गाँधी से जुड़ी संस्थाएँ गीता प्रेस गोरखपुर की भूमिका में उतरकर इस महत्त्वपूर्ण कृति को सस्ते संस्करण के माध्यम से पाठकों तक पहुँचा पायेंगी? मुझे नहीं लगता कि लेखक की ओर से इसमें कोई बाधा आयेगी।

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