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गाँधी-युग का प्रकाश-स्तम्भ : उन्नव लक्ष्मीनारायण पन्तुलु कृत 'मालपल्लि'

डॉ. भीमसेन 'निर्मल'

समकालीन समाज में व्याप्त सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि परिवर्तनों के परिज्ञान अथवा दिग्दर्शन के लिए यदि साहित्य को श्रेष्ठ साधन माना जाये तो 20वीं शती के प्रारंभिक कतिपय दशकों के आंध्र-जन-जीवन का समग्र चित्र प्रस्तुत करनेवाली श्रेष्ठ रचना है 'मालपल्लि'। यह आंध्र के ग्रामीण जीवन के विकासक्रम को काव्योचित रूप में प्रस्तुत करनेवाला अन्यतम उपन्यास है। इस उपन्यास में वर्णित 'सेटलमेंट' (सुधार-केंद्र), जेल, अदालत, पाठशालाएँ, पुलिस, खादी-धारण, असहयोग, लूट-खसोट, स्वराज्य-आन्दोलन आदि विषयों से संबंधित अनेकानेक विवरण इस रचना को 'सामाजिक अभिलेख का महत्त्व प्रदान करते हैं। यह जन-साहित्य बड़ा सजीव तथा सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। उस समय की सरकार ने 'मालपल्लि'पर प्रतिबंध लगाया था, इसी से इस उपन्यास की राष्ट्रीय महत्ता और चेतना का बोध होता है। आंध्र के इस सुप्रसिद्ध उपन्यास के लेखक हैं प्रसिद्ध देश-भक्त नेता श्री उन्नव लक्ष्मीनारायण।

श्री उन्नव लक्ष्मीनारायण का जन्म गुन्टूर ज़िले के सत्तेनपल्लि तालुका के 'वेमुलूरूपाडु' में सन् 1873 में हुआ था। आंध्र क्रिश्चियन कॉलेज, गुन्टूर में एफ़अ एअ तक शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने वकालत का अध्ययन किया और वहीं कई वर्ष तक वकालत करते रहे। सन् 1913 में आयरलैंड के डब्लिन नगर से उन्होंने बैरिस्टरी की उपाधि प्राप्त की। वहीं आयरलैंड के स्वतत्रता-आन्दोलन ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। विदेश से लौटकर बैरिस्टरी में श्री लक्ष्मीनारायण ने ख़ूब नाम और धन कमाया। सन् 1920 से महात्मा गाँधीजी के आदेशानुसार असहयोग आन्दोलन में उन्हेंने सक्रिय भाग लिया और कई बार जेल की यात्रा की। जेल-जीवन से परिपुष्ट उनके विस्तृत अनुभव 'मालपल्लि' के रूप में, जेल में ही प्रस्तुत और परिवर्द्धित हुए।

श्री वीरेशलिंगम् (हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समकक्ष) की प्रेरणा से श्री लक्ष्मीनारायण ने स्त्री-जनोद्धार के लिए अनेक सराहनीय कार्य किये, जिनमें विधवाओं के लिए आश्रम की स्थापना, विधवा-विवाह को सामाजिक स्तर पर प्रोत्साहित करना आदि प्रमुख हैं। स्त्रियों में शिक्षा-प्रचार के लिए उन्होंने गुन्टूर में 'शारदा निकेतन' की स्थापना की, जो आज भी उनकी कीर्ति-पताका बन, उनके यश को चारों ओर फैला रहा है। आंध्र के सामाजिक क्षेत्र में सुधार लानेवालों तथा राजनीतिक जागृति उत्पन्न करनेवालों में श्री उन्नव लक्ष्मीनारायण अग्रगण्य हैं।

'मालपल्लि' के अतिरिक्त श्री लक्ष्मीनारायण की अन्य रचनाओं में 'नायकुरालु', 'भावतरंगमुलु', 'स्वराज्य सोदे' (सोदे का अर्थ भविष्यवाणी है) आदि उल्लेखनीय हैं। उनकी अन्तिम रचना `ितक्कना' है। यदि काल के कराल गाल से लेखक कुछ समय तक सुरक्षित रहते तो निश्चय ही यह प्रौढ़तम रचना सिद्ध होती। अस्तु, अपनी सद्य:प्रसूता कृति को उसके शैशव में ही छोड़ कर, वाणी के यह वरद्पुत्र सन् 1952 में दिवंगत हुए।

शासकीय तथा सामाजिक क्षेत्र में अनयपूर्ण जीवन का समग्र एवं सजीव चित्र प्रस्तुत करनेवाला, आंध्र वाङ्मय का समादृत बृहद्काय उपन्यास है 'मालपल्लि'। इसका दूसरा नाम 'संग-विजयमु' है। कथानायक रामदास तथा संगदास के आदर्शों की विजय से परिपूर्ण इस उपन्यास का द्वितीय नाम अधिक सार्थक है। 'मालपल्लि' का संक्षिप्त इतिवृत्त इस प्रकार है -

'मंगलापुरम् ग्राम की 'मालपल्लि' (हरिजनों की बस्ती) का मुखिया है रामदास। 'माला' (अस्पृश्य) होने पर भी वह सुशिक्षित, स्थितप्रज्ञ एवं राजयोगी है। उसकी पत्नी महालक्ष्मम्मा आदर्श भारतीय नारी है। उनके तीन पुत्र - वेंकटदास, संगदास और रंगडु और एक पुत्री है। ज्येष्ठ वेंकटदास सच्चा किसान, पर विद्रोही स्वभाव का युवक है। संगदास गाँधीजी के सिद्धांतों में अटल विश्वास रखनेवाला एवं उन सिद्धांतों को कार्यान्वित करने में तन-मन-धन की बाज़ी लगानेवाला है। वह गाँव के मुखिया चौधरय्या के यहाँ नौकरी करता रहता है। रामदास की पुत्री ज्योति सरल तथा आदर्श स्वभाव वाली कन्या है, जो अपने चरित्र-बल से समग्र उपन्यास को ज्योतित करती रहती है। रामदास की बहन का पुत्र अप्पादास आदर्श युवक है। अप्पादास तथा ज्योति में बचपन से ही स्नेह पनपता रहता है। इस मुख्य कथा के साथ उपन्यासकार ने चौधरय्या के परिवार की कथा का भी आकलन, स्वभाव-वैषम्य आदि के प्रदर्शनार्थ किया है। चौधरय्या क्रूर तथा लोभी स्वभाव का है और उसकी पत्नी लक्ष्मम्मा अति उदार तथा स्नेही है। आरम्भ में सन्तान के अभाव में वह संबंधियों में से एक बालक को गोद लेता है। परन्तु इसके कुछ समय बाद उसे एक पुत्र की प्राप्ति हो जाती है और उसका नामकरण होता है रामानायुडु। दत्तक पुत्र वेंकटय्या और रामानायुडु दोनों ही बड़े होकर, विवाहित होकर, खेती-बाड़ी में अपने पिता की सहायता करते हैं। रामानायुडु इसी समय पुत्र प्राप्त करता है और उसका नाम रखा जाता है गोपीकृष्ण।

रामदास अपने परिश्रम और भलमानसी के कारण चार-पाँच एकड़ ज़मीन का स्वामी बन खेती-बाड़ी का काम करता रहता है। उसका परिवार बड़ा है और उसी प्रकार उसके उत्तरदायित्व भी। अपना उत्तरदायित्व निभाते हुए वह अपनी गृहस्थी के कामों से फ़ुरसत पाकर, वेदान्त की चर्चाओं में मन लगाता है। यथासमय वह गुरु से दीक्षा ग्रहण करता है। ऐहिक विषयों के प्रति उसका दृष्टिकोण अलिप्त-सा है।

रामदास 'चांडाल' कहलानेवाली अपनी जाति के लोगों के उद्धार के लिए प्रयत्नशील रहता है। उसके मतानुसार उन लोगों की दुरवस्था के दो प्रधान कारण हैं - दरिद्रता और अज्ञान। उसका पुत्र संगदास अपने पिता के अभीष्ट कार्य की सफलता के लिए तन-मन से प्रयत्नशील रहता है। वह हरिजनोद्धार-आन्दोलन में सक्रिय भाग लेता है, सभा-सम्मेलनों में जाता है और वहाँ भाषण आदि देकर अपनी जाति के लोगों को प्रबुद्ध बनाने का प्रयत्न करता है। अपने मालिक चौधरय्या के पुत्र रामानायुडु को वह अपने व्याख्यान तथा व्यवहार से प्रभावित करता है। संगदास की कार्यनिष्ठा तथा आदर्शों के कारण रामानायुडु उस पर लट्टू हो जाता है और धीरे-धीरे उन दोनों में घनिष्ठता बढ़ने लगती है। रामानायुडु का एक हरिजन (संगदास) के साथ मिलजुलकर रहना चौधरय्या को अच्छा नहीं लगता, क्योंकि इससे उसके 'अहम्' को ठेस पहुँचती है।

चौधरय्या, पटेल और निकट के दूसरे गाँवों के कुछ भूस्वामी मिलकर षड्यंत्र करते हैं कि खेतों में काम करनेवाले मज़दूरों को अनाज की जगह पैसे दिये जायें, किन्तु मज़दूरों के नेता इस बात को स्वीकार नहीं करते। गाँवों में इस बात को लेकर बड़ी खलबली मचती है। मज़दूरों का पक्ष लेकर संगदास चौधरय्या को समझाने का निष्फल प्रयत्न करता है। एक दिन वह अपने साथ रामानायुडु को भी खेत पर काम करने ले जाता है। वहाँ सब कुछ स्वयं देखकर रामानायुडु मज़दूरों की दुर्दशा से खिन्न हो उठता है। इस पर चौधरय्या और भी नाराज़ हो जाता है और सोचता है कि इस हरिजन की संगति से रामानायुडु बिगड़ता जा रहा है, अत: जैसे भी हो, इन्हें पृथक करना चाहिए। हरिजनोद्धार संबंधी सभाओं में भाग लेने के लिए दूसरी ओर रामानायुडु को संगदास विजयवाड़ा ले जाता है। वहाँ संगदास अपने वाक्-चातुर्य से सभी को मुग्ध कर देता है। सोमयुजुलु जैसे पुरातन-पन्थी भी उसकी बातों से प्रभावित होते हैं। इन व्याख्यानों के माध्यम से लेखक ने वर्णाश्रम-व्यवस्था, ग्राम-निर्माण-पद्धति, स्वशासन की उत्तमता आदि का सविस्तार वर्णन किया है।

इस सभा का परिणाम होता है सविधि जागरूक व्यक्ति का कार्य में प्रवृत्त न होना। अत: मज़दूर भी काम पर जाने से इन्कार कर देते हैं। खेतें पर काम रुक जाता है। चौधरय्या क्रोधावेश में संगदास के सिर पर हेंगी दे मारता है और वह बेचारा वहीं ढेर हो जाता है। चौधरय्या इस अप्रत्याशित घटना से डरकर घर में छिप जाता है। पटेल, पटवारी आदि पन्तुलु के द्वारा चौधरय्या से ख़ूब पैसे एठते हैं और इस हत्याकांड को दबा देते हैं। वे रिपोर्ट करना उचित नहीं समझते और सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देते हैं।

संगदास की अन्त्येष्टि के बाद 'मंगलापुरम्' में संगदास की समाधि बनायी जाती है और ग्रामीणों द्वारा उसी के निकट 'संगपीठम्' की स्थापना होती है। वहाँ हरिजनों की शिक्षा-दीक्षा का सुन्दर प्रबन्ध किया जाता है। रामदास मज़दूरों के बच्चों के लिए पाठशाला चलाता है तो अप्पादास रात के समय मज़दूरों की शिक्षा के प्रबन्ध की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है। रामानायुडु अपनी पुस्तकें तथा पत्रिकाएँ 'संगपीठम्' से सम्बद्ध पुस्तकालय में भेट कर देता है। उस संस्था की सुव्यवस्था से आकर्षित होकर गाँव के उच्चवर्णों के लोग भी वहाँ आने लगते हैं।

यद्यपि चौधरय्या हत्या करके साफ़-साफ़ बच जाता है, तथापि वह रामदास के समाज-सुधारक कार्यक्रम को अच्छी नज़र से नहीं देख पाता। वह पुराने काग़ज-पत्र निकाल कर, षड्यत्र रचकर, रामदास के खेतों पर अभियोग चलाता है। दुर्भाग्य से रामदास उस अभियोग में हार जाता है। परन्तु भगवान की इच्छा को सर्वोपरि माननेवाला वह साधु पुरुष न्यायालय में जाने से इन्कार कर देता है। उसका सर्वस्व चौधरय्या के अधीन हो जाता है और उसे अपना घर छोड़, अप्पादास के घर में रहने के लिए विवश होना पड़ता है।

पिता के कुकर्मों का फल सदाचारी पुत्र को भोगना पड़ता है। रामानायुडु की पत्नी कमला मोहनराव (रामानायुडु के चचेरे भाई) के साथ मद्रास भाग जाती है। बेचारा रामानायुडु व्यथित हो उठता है। कमला और मोहनराव तीन-चार महीने मौज़ से गुज़ारते हैं। कभी-कभी कमला को गोपीकृष्ण (जिसे वे 'साहू' कहकर पुकारते थे) की याद सताती है। इस काण्ड को जानकर मोहनराव का भाई उसे (मोहनराव को) अपने गाँव ले जाता है। इसी मध्य कमला चेचक से आक्रान्त हो, धर्मार्थ-चिकित्सालय में मरणासन्न हो जाती है और उसे अन्य शवों के साथ फेंक दिया जाता है। उसी समय मोहनराव वहाँ लौटता है और कमला के निधन-समाचार से व्याकुल हो गाँव लौटता है और क्षय रोग से पीड़ित हो जाता है।

अप्पादास 'संगपीठम्' की पाठशाला में नियमित रूप से और बड़ी योग्यता के साथ पढ़ाने लगता है। स्वयं संस्कृत के पंच-महाकाव्यों का अध्ययन कर वह ज्योति को भी सुशिक्षित करता है। ज्योति भी प्राचीन काव्य-ग्रन्थों का अध्ययन कर अप्पादास के साथ कई विषयों पर चर्चाएँ करती रहती है। 'संगपीठम्' में भाषणों का प्रबन्ध होता है, हरिकथा, पुराण-पाठ तथा प्रवचन आदि होते रहते हैं। एक बार वहाँ 'प्रह्लाद चरित्र' नामक यक्षगान का मंचन होता है। इस प्रकार 'संगपीठम्' उस प्रान्त में सामाजिक जागरण का केन्द्र बन जाता है।

खेतों के हाथ से निकल जाने के बाद रामदास को मज़दूरी करनी पड़ती है। इन अत्याचारों को न सह सकने के कारण रामदास का ज्येष्ठ पुत्र वेंकटदास घर से भाग निकलता है और 'तक्केल जग्गडु' के नाम से डाकू बनकर, धनी साहूकारों को लूटकर, दीन-दुखियों की सहायता करने लग जाता है।

कमला मरती नहीं, बीमारी से कुरूप बन, अपने पुत्र की देख-रेख में दिन बिताती है। दुर्भाग्यवश गोपीकृष्ण को पाण्डु रोग हो जाता है और वह सदा के लिए आँखें बन्द कर लेता है। उस दु:ख को न सह पाने के कारण वह भी एक दिन पति के चरणस्पर्श कर, अन्तिम क्षणों में केवल पति को अपना परिचय दे, प्राण छोड़ देती है।

चौधरी के अत्याचारों की सीमा नहीं रहती। वह अपनी साख के प्रभाव से अप्पादास को नौकरी से निकलवा देता है। रामदास की गृहस्थी के लिए बुरे दिन आते हैं। वह सुब्बिसेट्टि नामक साहूकार के पास से कुछ कपड़े लेकर, आस-पास के गाँवों में बेच डालने के लिए निकल पड़ता है। मार्ग में जग्गडु के अनुयायी उसे पकड़ लेते हैं और कपड़े लेकर, दुगुना दाम - चार सौ रुपये देते हैं। ईमानदार रामदास सारी ऱकम सेट्टि को देता है, परन्तु वह ऊपर से दो सौ रुपये चुपचाप जेब में डाल लेता है और रामदास को उनमें से हिस्सा तक नहीं देता। उसी दिन रात को जग्गडु के अनुयायी सुब्बिसेट्टि का घर-बार लूट लेते हैं। जग्गडु को पकड़ने के लिए सरकार अनेक प्रयत्न करती है, पर कोई लाभ नहीं होता। साहूकारों और ज़मींदारों के अत्याचारों से पीड़ित साधारण जनता की सहानुभूति प्राप्त करने के कारण, सरकार को उसकी गतिविधियों का कोई समाचार प्राप्त नहीं होता।

मंगलापुरम् में पादरी लोग अपने धर्म का प्रचार करने आते हैं। रामदास वाद-विवाद में स्वधर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करता है। अंग्रेज़ पादरी अपना-सा मुँह लिये चले जाते हैं। पर उन्हें सरकार का सहयोग प्राप्त था, इसलिए जग्गडु की चोरी-डकैती के सिलसिले में रामदास के परिवार को गिरप़्तार कर लिया जाता है और उन्हें सुधार-केन्द्र में भेजा जाता है। वहाँ उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। वहाँ सुपरिंटेंडेंट पॉल ज्योति को देख मोहित हो जाता है। रामदास को उसका व्यवहार पसन्द नहीं आता। सुधार-केन्द्र भी एक प्रकार से ईसाई धर्म के प्रचार-केन्द्र ही थे। रामदास अपने धर्म पर अडिग रहता है। उसके कारण वहाँ के अशिक्षित लोगों में अपने धर्म के प्रति निष्ठा जागृत होती है। इस जागरण को और ज्योति को फँसाने में अपनी असफलता को देख पॉल और वहाँ के पादरी दोनें मिलकर रामदास के साथ कुछ और लोगों पर म़ुकदमा चलाकर उसे जेल भेजने का षड्यंत्र रचते हैं। अदालत में सुनवाई होती है और रामदास तथा महालक्ष्मम्मा को छ: महीने का कठोर दण्ड दिया जाता है। ज्योति और रंगडु सुधार-केन्द्र में ही रह जाते हैं।

चौधरय्या की मृत्यु के बाद रामानायुडु और वेंकटय्या यह निश्चय करते हैं कि अपनी सारी जायदाद 'संगपीठम्' को दे दें। रामानायुडु ज्योति और रंगडु को वापिस गाँव में लाने का प्रयत्न करता है। पर पादरी स्वयं को उनका संरक्षक घोषित करता है। दूसरी ओर अवसर पाकर एक दिन पॉल ज्योति पर अत्यचार करने का प्रयत्न करता है तो वह नदी में कूदकर जान दे देती है। उसी समय वहाँ आया हुआ अप्पादास ज्योति के शव के साथ नदी में डूबकर अपनी जान दे देता है।

ज्योति और अप्पादास का सहमरण प्रान्त-भर में तहलका मचा देता है। सरकारी सुधार-केन्द्र की व्यवस्था को सुधारने के लिए प्रयत्न होने लगते हैं।

जग्गडु के अनुयायियों और सरकारी सेना में घमासान युद्ध होता है, जिसमें जग्गडु घायल होकर पकड़ा जाता है। पकड़े जाने के बाद अस्पताल में वह अपना परिचय देता है। मंगलापुरम् के लोग अपने ही गाँव के एक व्यक्ति के साहसिक कृत्यों को जानकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं। तदनन्तर उस पर अभियोग चलता है और वेंकटदास (उर्फ़ जग्गडु) को पाँच साल की सज़ा दी जाती है और उसे भी वहाँ भेज दिया जाता है, जहाँ रामदास और महालक्ष्मम्मा थे।

लेखक ने इस अवसर पर तत्कालीन ब्रिटिश शासन की जेल-व्यवस्था तथा वहाँ के अत्याचारों का विस्तार के साथ वर्णन किया है।

रामदास और महालक्ष्मम्मा को जेल में अनेक यातनाओं को सहना पड़ता है। वेंकटदास के मुख से ज्योति और अप्पादास के सहमरण का समाचार सुनकर तथा उसकी दुर्दशा को देख महालक्ष्मी का हृदय फट जाता है और वह तत्काल मर जाती है। उसके बाद ही अन्तिम समय तक भगवान का नाम न लेकर विद्रोही वेंकटदास भी मर जाता है। तदनन्तर जेल में अनेक कष्टों का सामना कर रामदास मुक्ति-लाभ करता है और अपने गाँव चला आता है। वहाँ रामानायुडु आदि उसका स्वागत करते हैं। मंगलापुरम् में जग्गडु मज़दूर सभा के लिए ऱकम की व्यवस्था करता है।

मोहनराव अपने कुकर्म का प्रायश्चित करने के लिए, क्षय रोग से मरते समय अपनी सारी जायदाद 'विजय कलाशाला' को दे जाता है। 'विजय कलाशाला' आदर्श महाविद्यालय के रूप में बुनियादी शिक्षा का केन्द्र बन स्वराज्य आन्दोलन की मार्ग-दर्शिका बनती है। इस प्रकार जीवन में पग-पग पर कष्टों का सामना करनेवाला रामदास अचंचल भाव से अपने कार्य में निमग्न रहता है। एक दिन वह अकस्मात् अरण्य की ओर चला जाता है और यहीं उपन्यास भी समाप्त हो जाता है।

इस उपन्यास में संगदास के सर्वतोमुखी ज्ञान, अद्भुत त्याग, ज्योति-अप्पादास का अशरीरी प्रेम, महालक्ष्मम्मा के वात्सल्य, वेंकटदास के आत्मसमर्पण, रामानायुडु के अकुंठित सेवाभाव आदि और रामदास के निष्काम कर्मभाव का सुन्दर तथा प्रभावशाली वर्णन किया गया है।

'मंगलापुरम्' मानव-धर्म का 'मंगलपुर' है। इस उपन्यास में यह दर्शाया गया है कि मानव के महत्त्व का मूल कारण त्याग-वैराग्य, गुण-शील, प्रेम-निग्रह, भक्ति-श्रद्धा आदि हैं, न कि भोग-विलास, कुल-सम्पत्ति, प्रज्ञा-पांडित्य, दम्भ-अहंकार आदि।

रामदास 'मालपल्लि' अथवा 'संगविजय' का हृदयभूत है। सुख-दु:ख में समता का अनुभव करनेवाला वह स्थितप्रज्ञ वास्तव में कर्मयोगी और पूर्ण वेदान्ती है। रामदास के लिए दुखों की परम्पराएँ, राग-द्वेष, ममता, अहंकार, मान-अभिमान आदि सभी आत्मविजय के ही साधन बने हैं। सारी जायदाद का छिन जाना, संगदास की हत्या, सुधार-केन्द्र और जेल की यातनाएँ, ज्योति और अप्पादास का सहमरण, पत्नी और पुत्र की मृत्यु आदि समस्त घटनाएँ उसके आत्मोद्धार की साधिका ही सिद्ध हुई हैं। निष्काम कर्मयोग के अभ्यास ने रामदास के लिए 'अन्ता राममयम्, ई जगमन्ता राममयम्' (सियाराममय सब जग) परक धर्म को सर्वसुलभ बनाया है। रामदास का चरित्र आदर्श है। वह अपने चरित्र-बल से 'मालपल्लि' को 'मुनिपल्लि' (मुनियों की बस्ती) बनाता है।

भक्ति और प्रेम जब इन्द्रियानुभव से विरत होकर, आत्मार्थ की ओर उन्मुख होते हैं तो आत्मानन्द की अनुभूति होती है। श्रीमद्भागवत में प्रतिपादित इस परमार्थ-तत्त्व को 'मालपल्लि' में ज्योति और अप्पादास के चरित्रों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।

धर्मार्जित सम्पत्ति सुकृत में ही खर्च होती है और पापार्जित परपीड़न में। इसीलिए चौधरय्या का क्रोध तथा लोभ आत्मनाश का कारण बनता है और वेंकटदास का त्याग और सेवाभाव धर्म-विजय का।

वेंकटदास का चरित्र अत्यन्त विलक्षण है। जगत् की व्यवस्था एवं अत्याचारों से असंतुष्ट होकर वह भगवान के अस्तित्व में ही सन्देह प्रकट करने लगता है और वर्तमान व्यवस्था को बदल देने के लिए आत्मबलिदान कर देता है। उसका कार्यक्रम सामाजिक परिवर्तन की दिशा में एक नूतन अध्याय जोड़ता है।

इस उपन्यास में वर्णित सुधार-केन्द्र, जेल-अदालत, पाठशाला, खादी, असहयोग, धार्मिक लूट-खसोट, स्वराज्यान्दोलन, अहिंसा आदि विषयों से सम्बद्ध अनेक विवरणों द्वारा 'मालपल्लि' सचमुच समकालीन समाज का प्रतिबिम्ब बना हुआ है। 'मालपल्लि' के प्रत्येक पृष्ठ में, भाषा में, भावों में तथा रचना-शिल्प में नव जीवन की झाँकियाँ प्रस्तुत की गयी हैं।

आंध्र के ग्रामीण जीवन का जीता-जागता चित्र प्रस्तुत करते हुए इस उपन्यास ने आदर्श समाज की स्थापना की ओर इंगित किया है और आंध्र जनता को तद्विषयक जागरूकता प्रदान कर, अभीष्ट कार्य-पूर्ति की दिशा में अग्रसर कर अपने दायित्व को निभाया है।

विश्वदाता काशीनाथुनि नागेश्वरराव पंतुलु के शब्दों में 'तेलुगु शब्द, तेलुगु देश, तेलुगु साहित्य, तेलुगु हृदय, तेलुगु संकल्प आदि ने 'मालपल्लि' को अनिर्वचनीय प्रतिभा प्रदान की है।' आंध्र के उपन्यास-साहित्य में 'मालपल्लि' का अप्रतिम स्थान है।

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