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51. गांधीजीकी अहिंसा

अहिंसासे तुम क्या समझे?

किसीकी हिंसा न करना । किसीको न मारना, न सताना ।

वैसे, किसीके लिए मनमें गुस्सा रखना भी हिंसा ही है । इसलिए मनमें इस तरहकी हिंसाको भी जगह न देना, और मनके कोने-कोनेको प्रेमसे भरे रहना अहिंसा है ।

लेकिन जब कोई हम पर हमला करे, तो हम अहिंसाको पालन कैसे करें?

सच पूछो तो ऐसे वक्त ही अहिंसाकी सच्ची परीक्षा होती है । जब कोई सताता नहीं, गुस्सा होता नहीं, तब तो कुत्ते-बिल्ली भी अहिंसक रह लेते हैं । लेकिन वह अहिंसा किस कामकी?

अगर इस तगह हर किसीकी मार खाकर बैठ जाँय, तो दुनिया हमें डरपोक न कहेगी?

डरपोक क्यों कहेगी? हम मार खाकर न तो रोते हैं, और न मारके डरसे भागते ही हैं ।

प्रेमके कारण हमें गुस्सा नहीं आता, हम किसी पर हाथ नहीं उठाते, तो डरपोक कैसे बन जाते हैं?

भाई, यह तो बडी़ टेढी़ खीर है । मारनेवालेको न मारना, सतानेवालेसे प्यार करना, बहुत ही मुश्किल है । इससे अच्छा और आसान तो यह है कि जो हमें मारे, उसे हम भी मार दें ।

सच कहते हो । अहिंसक बनना आसान नहीं है । अहिंसाका मार्ग शूरोंका है । अहिंसा शेरदिलोंकी है, कायरों और डरपोकोंकी नहीं ।

गांधीजी ऐसे ही अहिंसाका पालन करते हैं, और हमसे भी कहते हैं कि हम सच्चे अहिंसक बनें ।

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