| | |

46. प्रेम के उपवास

देशका बच्चा-बच्चा जानता है कि गांधीजी क्या चाहते हैं । वे चाहते हैं –

कोई किसीको न मारे। कोई किसीको न सताये ।

यही उनका उपदेश है । यही वे चाहते हैं ।

यही वजह है कि जो बालक उनकी राष्ट्रीय शालाओंमें या कौमी मदरसोंमें पढ़ते हैं, वे नहीं जानते कि मार किस चिड़ियाका नाम है । वहाँ बच्चोंको मारपीटका जरा भी डर नहीं रहता । अगर कोई शिक्षक मारने उठता है, तो बालक खडा़ होकर पूछ सकता है – 'गांधीजी तो मारपीटको बुरा समझते हैं, फिर आप मारते क्यों हैं?'

बच्चोंसे गलती हो जाने पर भी गांधीजी उन्हें मारते नहीं, न तानों-तिश्नोंसे उन्हें शरमाते और बेइज्जत ही करते हैं । लेकिन जब बच्चोंसे कोई बडा़ गुनाह, बडी़ गलती हो जाती है, तो गांधीजी उसकी सजा खुद भुगत लेते हैं – खुद भूखों रह जाते हैं। यह उनका अपना तरीका है ।

एक दफा उनेहोंने इसी तरह आठ दिनके और दूसरी दफा चौदह दिनके उपवास किये थे ।

वे कहते हैं, बच्चोंके दोषके लिए, उनकी गलतियोके लिए, मैं उन पर गुस्सा क्यों होऊँ? खुद मेरे अन्दर ऐसी कोई बुराई होनी चाहिए, जिससे बालकोंको भी बुरा काम करनेकी बात सूझी । अगर मैं पवित्र हूँ, तो मेरे पास रहनेवाले बालक अपवित्र कैसे हो कसते हैं? मैं पाक और ये नापाक क्यों? अगर मैं सच्चे मानोंमें अहिंसाक हूँ, अहिंसाका ठीक-ठीक पालन करता हूँ, तो यह हो नहीं सकता कि कोई बालक मुझसे डरे – अपनी गलतियाँ मुझसे छिपावे ।

बस, इन्हीं विचारोके कारण गांधीजी ऐसे मौकों पर खुद उपवास कर लेते हैं । बच्चोंको सजा नहीं देते ।

अब कौन ऐसा बालक होगा, जो अपार प्रेमके आगे अपना सर न झुकायेगा?

| | |