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45. राष्ट्रीय उपवास

पंजाबमें मातृभूमिकी, मादरे हिन्दका, घोर अपमान हुआ था । इस अपमानसे सबके दिलोंमें एक आग जल ऊठी थी, और सारे मुल्कने मिलकर सत्याग्रह करनेका निश्चय किया था ।

लेकिन यह इतना बडा़ काम, भगीरथ काम, शरू कैसे किया जाय? गाँव गाँवमें और नगर नगरमें सभायें करके? हाँ, यह एक करने लायक काम है । लेकिन गांधीजीको सिर्फ सभाओंसे संतोष क्योंकर हो?

अच्छा तो गाँव – गाँव और शहर शहरमें हड़ताल मनाई जाय?

ठीक है, इससे भी हमारा कदम कुछ आगे तो बढ़ता है, लेकिन गांधीजीकी तसल्लीके लिए यह भी काफी न था । वे तो किसी ज्यादा बडी़ चीजके लिए तड़प रहे थे । आखिर एक बात सूझी । तय किया गया कि देशके सब लोग एक ही दिन इस सिरेसे उस फाका करें, उपवास रखें ।

सन् 1921 का साल था और अप्रैल महीनेकी 13वी तारीख । गांधीजीका संदेश, अनुका पैगाम, देशभरमें फैल चुका था । उस दिन देशके इस कोनेसे उस कोने तक लोगोंने व्रत रखा, फाका किया, शामको प्रार्थनामें शामिल हुए, दुआयें कीं । वह एक ऐसा दिन था, जब इस बडे़ भारी मुल्कमें, इस विशाल देशमें, तीस करोड़ औरत और मर्द नहीं थे, बल्कि तीस करोड़ सिरोंवाला और साठ करोड़ हाथ-पैरोंवाला एक ही राष्ट्रपुरूष था। उस दिन देश एक हो गया था । राष्ट्रीय एकताका वह एक अनोखा दृश्य था ।

राष्ट्रीय उपवास का वह दिन हिन्दुस्तानके इतिहासमें अमर हो चुका है ।

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