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43. आश्रममें हरिजन

गांधीजीने साबरमतीके किनारे अपना आश्रम खोला और ऐलान किया कि कोई भला हरिजन आश्रममें भरती होना चाहेगा, तो उसे खुशी खुशी भरती किया जायेगा ।

शहरके सेठोंने सोचाः गांधीजी तो यों ही कहते रहते हैं । मगर ऐसे ठाले हरिजन हैं कहाँ, जो आकर आश्रममें भरती होंगे? लोग इसी खयालमें मस्त रहे और गांधीजीको बिलकुल बेफिकर बना दिया ।

कुछ दिन ऐसे ही बीत गये । एक दिन अचानक एक हरिजन परिवार आश्रममें आ धमका !

औरत, मर्द और दुधमुँही बच्ची ! तीन प्राणी थे । साथमें ठक्कर बापाकी सिफारिश थी ।

गांधीजीने सोचाः 'बस, परीक्षाका समय आ गया । भगवान अब कसौटी पर चढा़ना चाहता है । इसलिए उसने इनको भेजा है ।'

आये हुए हरिजनसे पूछा – 'आश्रमके नियम तो जानते हो न?'

'जी हाँ ।'

'नियमोंका पालन कर सकोगे?'

'जी हाँ, कोशिश करेंगे ।'

'बडी़ अच्छी बात है । आप लोग सुखसे यहाँ रहिये, और आश्रमको अपना घर समझिये ।'

इस तरह एक हरिजन परिवार आश्रमवासी बना । तीनों प्राणी सबके साथ रहते, सबमें मिलकर काम करते, और सबकी बराबरीसे खाते ।

आश्रममें सब लोग एक-सी समझके नहीं थे । कइयोंको यह बुरा लगा । उनके दिलमें खलबली मच गई । लेकिन गांधीजीने सबको साफ कह दियाः

'मेरे लिए तो हरिजन पहले हैं । जिनसे इस धर्मका पालन न हो, वे खुशी खुशी आश्रम छोड़ सकते हैं, फिर चाहे वह मेरी पत्नी हो चाहे पुत्र हो ।'

बात बिजली की तरह बस्ती भरमें फैल गई कि गांधीजीके आश्रममें एक ढेढ़ रहने लगा है ।

जो सेठ-साहुकार गांधीजीकी मदद करते थे, लेकिन कटृर सनातनी थे, वे चौंक पडे़ ।

उन्होंने मदद बन्द कर दी । वे कहने लगे – 'भला आदमी जो कहता था, वही करने भी लग गया । ये तो धरम डुबोनेके ढंग हैं । ऐसे अधर्मीको कौन मदद करे?'

मगनलाल गांधी आश्रमके व्यवस्थापक थे । उन्हें फिकर हुई । वे एक दिन छोटा-सा मुँह लेकर गांधीजीके पास आये और बोले – 'बापू, थैली तो अभीसे हल्की हल्की है । अगले महीने क्या होगा?'

गांधीजीने ढाढ़से दिलाते हुए कहा – 'भगवान् पर भरोसा रक्ख । जब कुछ नहीं रहेगा, तो हम ढेढो़की बस्तीमें जाकर बस जायेंगे, मजदूरी करेंगे और पेट पालेंगे, मगर सच्चाईसे तिलभर भी न हटेंगे !'

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