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41. हमारे पाप का फल

जब गोरे हमें 'कुली' कहते हैं, तो हम तिलमिला उठते हैं । अब सोचिये कि जिनको हम ढेढ़, भंगी, अछूत वगैरा कहते हैं, उन पर क्या बीतती होगी?

हम इन लोगोंका कितना अपमान करते हैं? न इन्हें अपनी बस्तियोंमें रहने देते हैं, और न अपनी सड़कों पर आजादीसे चलने देते हैं । जब कभी इन्हें हमारे बीचसे निकलना पड़ता है, तो चिल्लाते-चिल्लाते बेचारोंका गला बैठ जाता हैः

'दूर रहना, माँ-बाप !'

'छूना नहीं, मालिक !'

'आप ही के भंगी हैं, अन्नदाता!'

कैसा घोर अपमान है?

बेचारे प्यासों मरते हैं, पर हम हैं कि अपने कुओं पर उन्हें पानी तक नहीं भरने देते ।

गाँवके सभी लड़के स्कूलमें पढ़ते हैं, पर इनके लड़कोंको हम स्कूलका मुँह नहीं देखने देते । उन्हें दाखिल नहीं करते । करते हैं, तो दूर एक कोनेमें बैठाते हैं ।

रेलगाडी़ में सभी बैठते हैं, लेकिन ढेढ़, भंगी या चमारको देखते ही जगह नहीं, जगह नहीं चिल्ला उठते हैं ।

मन्दिरमें गाँवके सभी लोग देव-दर्शनको जाते हैं। लेकिन इन अभागोके लिए भगवान के घरके दरवाजे भी बन्द हैं ।

यह कोई मामूली दुःख है? छोटी-मोटी बात है?

ये बेचारे गजरदम उठकर हमारी सड़के बुहारते हैं, गटरें धोते हैं, गाँवको साफ रखते हैं, हमारे लिए कपडा़ बुनकर देते हैं, जूते बनाते हैं, और फिर भी हम इनसे फिरण्ट रहते हैं । इन लोगोंको इतनी बडी़ सेवाके बदलेमें हम इन्हें क्या देते हैं? अपनी जूठन. अपमान, गाली, गन्दगी, गरीबी !

हमारे पापका अन्त नहीं है । फिर क्यों न देश-परदेशमें हमारी दुर्दशा हो? क्यों न हम जहाँ-तहाँ ठुकराये जाँय?गांधीजी कहते हैं कि हमारी गुलामी हमारी इन पापोंका ही फल है । भगवानने ही यह फल हमें दिया हैः इसलिए वे हरिजनोंकी सेवा करते हैं, अपनेको हरिजन समझते हैं, और लोगोंको समझाते हैं, कि हरिजनोंको छूनेमें पाप नहीं, पुण्य है।

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