39. मीर आलम मुरीद बना |
अब आगेका मजेदार किस्सा सुनिये । दक्षिण अफ्रीकाकी सरकार अपनी बात पर कायम न रही । बस, गांधीजीने फिरसे लडा़ई छेड़ दी । लोगोंसे कहा गया कि सरकारने धोखा दिया है । हमें फिरसे सत्याग्रह करना है । जो परवाने हमने अपनी राजीखुशीसे लिये हैं, उनको इकट्ठा करके जला देना है । जिन्हें लडा़ईमें शामिल होना हो, वे अपने-अपने परवाने लौटा दें। लोग मारे खुशीके पागल-पागल हो गये । गांधीजीके दफ्तरमें परवानोंकी झडी़ लग गई । परवानोंकी होली जलानेका दिन तय हुआ । उस दिन एक बडी़ भारी आम सभा हुई । सभीके बीचोंबीच परवानोंका ढेर रचा गया । गांधीजीने पूछा । 'भाईओ ! साफ-साफ कहना, आपने अपनी राजी-खुशीसे ये परवाने जलानेको दिये हैं न?' हजारों एक साथ बोल उठेः 'जी हाँ, राजी-खुशीसे दिये हैं ।' 'अब भी वक्त है, जो चाहें, अपना परवाना वापस ले सकते हैं ।' 'नहीं, नहीं, हम वापस नहीं लेंगे ।' 'देखिये, खबरदार ! लडा़ई जोरकी ठनेगी, जेल जाना होगा ।' 'परवा नहीं, जेल जायँगे । आप इनमें आग लगा दीजिये ।' इतनेमें सभाके बीच एक पठान खडा़ हूआ और बोलाः 'गांधी भाई, लो, यह मेरा परवाना भी लो, और जला दो । मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ । मुझे माफ करो । मैंने तुम्हें पहचाना न था । तुम सच्चे बहादुर हो ।' यह पठान और कोई नहीँ, हमारा मीर आलम ही था । भरी सभामें गांधीजीने उससे हाथ मिलाया । सारी सभा तालियोंकी गड़गडा़हटसे गूँज उठी । गांधीजीने परवानों पर किरासिन छिड़का और आग जला दी । होली धधक उठी । बस, मीर आलम उसी दिनसे गांधीजीका भक्त (मुरीद) बन गया, और उनके न चाहते हुए भी, रात-दिन परछाईओं की तरह उनके साथ रहने लगा । वह डरता था कि कहीं कोई गांधीजीको सताये न ! |