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34. कुली बैरिस्टर

गांधीजी विलायत गये । बैरिस्टर बने । वापस हिन्दुस्तान आये और हिन्दुस्तानसे धन कमाने दक्षिण अफ्रीका गये । गांधीजीको अपनी जान-पहचानके एक मेमन व्यापारीके यहाँ काम मिला, और वे उस व्यापारीके नौकर बनकर वहाँ पहुँचे ।

वह एक बिलकुल अनजान देश था । गांधीजी वहाँ धन कमाने गये थे । लेकिन दरअसल जो चीज उन्होंने वहाँ कमाई, उसका तो शायद किसीने सपना भी नहीं देखा था । वह एक अजीब चीज थी, और अजीब ढंगसे कमाई गई थी ।

अफ्रीकाकी जमीन पर कदम रखते ही न जाने क्यों वहाँकी आबोहवामें गांधीजीका दम घुटने-सा लगा । वहाँ कदम-कदम पर हिन्दुस्तानियोंको बेइज्जत होना पड़ता था । इसमें छोटे-बडे़ या अमीर-गरीब कोई भेद न था ।

बहुतेरे हिन्दुस्तानी उस मुल्कमें मजदूर या कुलीके नाते गये थे, इसलिए वहाँके गोरे लोग उनसे नफरत करते और उन्हें कुली कहते थे । वहाँ जाकर हिन्दुस्तानी व्यापारी कुली व्यापारी, हिन्दुस्तानी वकील कुली वकील और हिन्दुस्तानी बैरिस्टर कुली बैरिस्टर कहलाता था । गांधीजी भी कुली बैरिस्टर कहलाये ।

वहाँके गोरे हिन्दुस्तानियोंको अपनेसे हलका मानते और उनसे मिलना-जुलना अपनी शानके खिलाफ समझते थे । वे हिन्दुस्तानियोंको अपने साथ उठने-बैठने भी न देते थे । विक्टोरियामें, ट्राममें, रेलगाडी़में और होटलोंमें, कहीं कोई हिन्दुस्तानी उनके साथ बैठ नहीं सकता था । किसी हिन्दुस्तानी कुली को अपने साथ रास्तेमें पैदल चलते देखकर भी वे आग-भभूका हो जाते थे । जहाँ इतनी नफरत थी, वहाँ हिन्दुस्तानियोंको किसी उत्सव या जलसेमें बुलानेकी या उनकी आवभगत करनेकी तो बात ही क्या?

पढे़-लिखे और धनवान हिन्दुस्तानी भी इन अपमानोंको सहनेके आदी हो चुके थे । परदेशमें मान-अपमानका खयाल न कर चुपचाप धन कमाने और देशमें जाकर इज्जतदार कहलानेका रास्ता सब अख्तियार कर चुके थे ।
  लेकिन गांधीजी इसे बरदास्त न कर सके । जाते ही पग-पग पर उनका अपमान होने लगा । दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी तरह वे इन अपमानोंको सह न सके । उन्होंने विरोध शुरू किया, और सर उठाकर, सीना तानकर चलने लगे । बदलेमें उनको गालियाँ, धक्के और लातें मिलीं । गांधीजीने गालीका जवाब गालीसे, धक्केका धक्केसे और लातका लातसे देना मुनासिब न समझा । वे अपमानोंसे डरे नहीं, और डरानेवालोके सामने झुके नहीं ।

एक दिन बैरिस्टर गांधी अपने किसी मित्रके साथ डबरन गये । डबरन अफ्रीका एक शहर है । मित्रने उन्हें वहाँकी अदालत दिखाई ।

उन दिनों गांधीजी निहायत टीमटामसे रहते और बडे़ शौकसे अंग्रेजी पोशाक पहनते थे, लेकिन माथे पर तब भी वे हिन्दुस्तानी पगडी़ ही रखते थे । डबरनकी अदालतमें भी वे उस दिन वैसी ही पगडी़ पहनकर गये और वकीलोके साथ बैठे ।

जज साहबको इस नई सूरतके रंगढंग पर अचरज हुआ । उन्होंने घूरकर गांधीजीको देखा और सोचाः 'यह कुली बैरिस्टर माथे पर पगडी़ पहने बैठा है, और अदालतका अपमान कर रहा है ।'

कुछ देर तक घूरनेके बाद उन्होंने गांधीजीसे कहाः 'अपनी पगडी़ उतार दीजिये ।'

गांधीजी इस अपमानको सह न सके । तिलमिला उठे । उन्होंने सोचाः 'पगडी़ उतारनेसे बेहतर है, सिर उतारकर दे देना ।'

गांधीजीने पगडी़ उतारनेसे इनकार कर दिया । वे अदालतका दीवानखाना छोड़कर बाहर चले गये ।

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