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33. तीन प्रतिज्ञायें

मोहनदास अब बडे़ हो चुके थे । मैट्रिक पास कर चुके थे ।

मावजी दवेने कहाः 'मोहनदासको विलायत भेज दो । वह बैरिस्टर बनकर आयेगा, और अपने बापकी जगह सँभालेगा ।'

पर विलायत जाना आसान न था । पिताजी राजके दिवान तो रह चुके थे, लेकिन पैसा कुछ छोड़ नहीं गये थे । राजकी तरफसे मदद पानेकी कोशिश की, मगर उसमें कामयाबी न मिली । बडे़ भाई दिलके फैयाज थे। उन्होंने किसी भी तरह रूपयोंका बन्दोबस्त करनेका बीडा़ उठाया ।

लेकिन विलायत जानेमें एक और भी रूकावट थी । उन दिनों समुद्रयात्रा करनेवालोंका धर्म नष्ट हो जाता था ! जात-बिरादरीवाले ऐसोंको अपने साथ बैठाते नहीं थे । यह एक बडा़ बैडा सवाल था ।

माता पुतलीबाईने कहाः नहीं मेरा मोहन विलायत नहीं जायेगा । विलायत जानेसे जात जाती है । शराब पीने, मांस खाने और कुचाल चलनेका डर रहता है । विलायत जाना अपना काम नहीं ।'

इस पर जान-पहचानके एक साधुने रास्ता सुझाते हुए कहाः 'माई अगर मोहन प्रतिज्ञा कर ले और वहाँ जाकर अपनी मरजादसे रहे, तो क्या हर्ज है?

माताजीने कहाः 'नहीं, फिर तो कोई हर्ज नहीं रहता।'

साधुने मोहनदाससे कहाः 'मोहन बोलो, माताजीके सामने तीन प्रतिज्ञायें लेनी होंगी । लोगे?'

'कैसी प्रतिज्ञायें?'

'पहली, शराब नहीं पीओगे । दूसरी, मांस नहीं खाओगे । तीसरी, पराई औरतको माँ-बहन समझोगे । बोलो, मंजूर हैं ये तीन बातें?'

'जी हाँ, मंजूर हैं, दिलसे मंजूर हैं ।'

'तो फिर आ जाओ सामने, और माँके चरण छूकर कहो ।'

गांधीजीने माताजीके चरणोंमें झुकते हुए कहाः 'माताजी, मैं शराब नहीं पीऊँगा, मांस नहीं खाऊँगा, पराई स्त्रीको माँ-बहनके समान समझूँगा ।'

गांधीजीके जीवनमें प्रतिज्ञाओं या व्रतोंका बडा़ महत्व रहा है । वे बचपनसे इनमें मानते आये हैं । उनका विश्वास है कि कमजोरीकी घडी़योंमें ये प्रतिज्ञायें ही मनुष्यको गिरनेसे बचाती हैं, और उसे मुकामसे हटने नहीं देतीं ।

कहा जो हैः

चन्द्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार ।

पै दृढ़ श्री हरिचन्द्र कौ, टरै न सत्य विचार ।।

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