32. जेल-महल |
जेलखानेको गांधीजी सिर्फ जेलखाना नहीं कहते, वे उसे जेल-महल या जेल-मंदिर कहते हैं । जो जेलखानेसे डरते हैं, वे तो जेलखानेका नाम सुनते ही काँप उठते हैं । ऊँची-ऊँची दीवारें, बडे़-बडे़ दरवाजे, काले-काले भयानक पहरेदार, हथकड़ियों और बेड़ियोंकी झनकार ! तिस पर राक्षस-जैसी बडी़ बडी़ चक्कियाँ चलाना, बैल बनकर चड़सका पानी खींचना और कोल्हूमें बैलकी तरह जुतना । इनमें जरा कहीं कसूर हो गया, चूक हो गई, तो दरोगाके डंडेसे पिटना । यह है जेलखानेकी तसवीर ! इन जेलखानोंमें एक दफा बन्द हो जानेके बाद फिर न तो बाहरकी दुनियाकी कोई चीज देखनेको मिलती है, न बाहरका कुछ सुनाई पड़ता है । बडे़-बडे़ चोर और लुटेरे भी कैदखानेके नामसे काँप उठते हैं । लेकिन गांधीजीको वह जरा भी डरावना नहीं मालूम होता। वे उसे महल समझते हैं । मन्दिर कहकर उसकी महिमा बढा़ते हैं । वे कई दफा इस महलके मेहमान रह चुके हैं और देशके सैकडो़-हजारों सत्याग्रहियोंके लिए इस महलके दरवाजे उन्होंने खुले छुड़वा दिये हैं । लोग निधड़क अन्दर चले जाते हैं, और हँसते-हँसते वापस लौट आते हैं । जो देशकी सेवाके लिए जेल जाते हैं, वे भला जेलसे डरें क्यों? उन्हें तो जेलखानेमें खुशी होती है । जेलमें एक बार दाखिल होनेके बाद इन्सानको कोई फिकर ही नहीं रह जाती । खाने का वक्त हुआ, खाना तैयार, पहननेको कपडे़ चाहियें, कपडे़ तैयार, दरोगा चौबीसों घण्टे आपकी खिदमतमें तैयार. हिफाजतके लिए पहरेदार हाजिर ! सन्तरी रात और दिन संगीन लिये खडा़ पहरा देनेको हाजिर ! दिनमें खूब मेहनत करनी पड़ती है, रातमें खर्राटेकी मीठी नींद आती है । ऐसा सुख तो राजाको अपने राजमहलमें भी नसीब नहीं होता । उस बेचारेको मारे फिकरके न खाना अच्छा लगता है, और न रात वह सुखकीं नींद सो पाता है । जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीकामें थे, तो वे वहाँके जेलखानोंके भी मेहमान रह चुके थे । हिन्दुस्तान आनेके बाद यहाँ भी वे कई बार जेल हो आये हैं । कभी साबरमतीके जेलखानेको महल बनाकर रहे, तो कभी पूनाके पास यरवदाको मन्दिर मानकर रहे । जेलवाले बेचारे उन्हें जेलमें रखते शरमाते हैं। मगर करें क्या, हुकुमके चाकर जो ठहरे ! |