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31. रेल-घर : रेल-आश्रम

बडौ़दाके गायकवाडो़के झण्डे पर जीन-घर, जीन तख्त लिखा रहता है । पुराने जमानेमें मराठा सरदारोंको इस बातका बडा़ अभिमान था कि उनके घोडो़ पर रातदिन काठी कसी रहती है ।
    यही हाल गांधीजीका रहा है । उनका घर, उनका आश्रम, जो कुछ कहो, रेलगाडी़के तीसरे दर्जेका डब्बा है । देशके इस कोनेसे उस कोने तक अपना सन्देश सुनानेके लिए उन्हें बरसों लगातार घूमना पडा़ है । महीनों सफरमें रहना पडा़ है, और इस हद तक रहना पडा़ है कि वे ज्यादा रेलमें रहे या आश्रममें, यह कहना मुश्किल है । ऐसी हालतमें रेलगाडी़के डब्बेको ही उनका घर या आश्रम कहा जाय तो क्या बुराई है?

और गांधीजी भी गाडी़के डब्बेको अपना घर समझते हैं । उस पर सवार होकर घर ही की तरह सारा काम करते हैं । उसमें बैठकर वे चरखा चलाते हैं । सुबह-शामकी प्रार्थना करते हैं । पुस्तकें पढ़ते, चिट्ठी-पत्री लिखते और मिलने आनेवालोंसे मिलते-बोलते हैं । गांधीजी हमेशा तीसरे दर्जेमें सफर करते हैं । बीमारी या कमजोरीकी वजहसे जब कभी उन्हें ऊँचे दर्जेमें सफर करना पड़ता, उनका दिल बहुत दुःखी रहा करता । मनमें रह-रहकर एक खयाल आता, जो उन्हें बेचैन बना जाताः 'में अपनेको गरीबोंका सेवक मानता हूँ । वे तीसरे दर्जेकी परेशानियाँ उठाते हैं, और मैं उनसे अलग ऊँचे दर्जेके गद्दों पर आकर बैठता हूँ । क्या यह उचित है? मुनासिब है?

हमारे देशमें तीसरे दर्जेके मुसाफिरोंको जो मुसीबतें उठानी पड़ती हैं, वे दुनियासे छिपी नहीं । लोगोंके साथ खुद भी उन्हीं मुसीबतोंका सामना करके गांधीजी खुश होते हैं । जब वे महात्मा नहीं बने थे, और इतने मशहूर भी नहीं थे, तब ऐसी परेशानियाँ उन्होंने खूब उठाई थीं, और बडे़ शौकसे उठाई थीं। अकसर उन्हें मुसाफिरोंकी भीड़के बीच खडा़ रह जाना पड़ता, घण्टों खडे़-खडे़ सफर करना पड़ता, कभी-कभी धक्के भी खाने पड़ते । ऐसी हालतमें सोने या काम करनेकी सहूलियत तो उन्हें कौन देने लगा?

उन दिनों देशके बडे़-बडे़ नेता भी आम रिआयासे दूर दूर रहते और गरीबों या मैले-कुचैले लोगोंके साथ मिलनेमें शरम-सी महसूस करचते । बडे़-बडे़ सरकारी अफसरोंकी तरह वे भी रेलके पहले या दूसरे दर्जेमें ही सफर करते । शायद इसीमें वे अपनी शान भी समझते थे । ऐसे समय अकेले गांधीजीका तीसरे दर्जेमें सफर करना एक अचरजकी बात थी । गांधीजी बैरिस्टर थे । दक्षिण अफ्रीकामें रह चुके थे और देशके नेता माने जाते थे ।

एक बार गांधीजी कलकत्तेमें स्वर्गीय श्री गोखलेजीके घर ठहरे थे । जब बिदा होने लगे, तो गोखलेजी उन्हें स्टेशन तक पहुँचाने चले । गांधीजीने कहाः 'आप क्यों तकलीफ करते हैं? रहिये, मै चला जाऊँगा।' गोखलेजी न माने। उन्होंने जवाब दियाः 'अगर आप औरोंकी तरह ऊँचे दर्जेमें सफर करते, तो मैं घर ही रहता । लेकिन आप तो तीसरे दर्जेमें बैठनेवाले हैं, इसलिए मैं समझता हूँ, मुझे आपके साथ स्टेशन चलना ही चाहिये ।'

उस जमानेमें गांधीजीकी ऐंसी कद्र करनेवाले गोखलेजी जैसे कुछ इने-गिने लोग ही होते थे । आम तौर पर मजाक उडा़नेवालोंकी तादाद ही ज्यादा थी ।

यों तीसरे दर्जेकी मुसीबतें उठाते-उठाते गांधीजीको अपने देशकी दीन-हीन जनताका खूब अच्छा परिचय हो गया ।  उसे नजदीकसे देखने, उसकी कमजोरियों, खूबियों, खासियतों और आदतोंको समझने, उसकी रग-रगसे वाकिफ होने का उन्हें बडा़ अच्छा मौका मिला । अपने देशवासियोंकी नब्जको जितना गांधीजी पहचान पाये, उतना शायद ही कोई दूसरा नेता पहचान सका हो इसलिए आज वे देशके सच्चे हकीम बन सके हैं, और उन्होंने जो नुस्खा दिया है, वह इस बीमार मुल्कके लिए मुफीद साबित हुआ है । यही वजह है कि आज छोटेसे लेकर बडे़ तक सभी कोई गांधीजीकी बहुत गहरी इज्जत और श्रद्धाकी नजरसे देखते हैं ।

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