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कुदरती इलाज

बीमारीका नाम सुनते ही लोग अकसर हावरे-बावरे हो जाते हैं; हकिमों या डाक्टरोंके घर दौड़े जाते हैं, और उन्हींको अपना तारनहार समझ लेते हैं । भगवानकी दी हुई इस देहको तंदुरूस्त रखने या इस अनोखे यत्रंकी बनावटको समझ लेनेका हमारा अपना भी कुछ जिम्मा है, इस बातको हम आज भूल-से गये हैं । इसलिए बीमारी भोगकर उठनेके बाद जब चंगे हो जाते हैं, तो फिर मनमाना खाने-पीने लगते हैं, और मौज-शौक या भोगविलासमें डूबकर अपनी जिम्मेदारीको भूल जाते हैं ।

इस बारेमें गांधीजीके विचार खास तौरसे समझने लायक हैं ।

पहली बात तो यह है कि बीमारीमें घबराना न चहिये। जो इलाज हो सकता है, वह जरूर करना चाहिये, लेकिन डाक्टरको भगवान् समझ लेनेकी भूल न करनी चाहीये ।

दूसरे, जितनी बीमारियाँ हैं, अक्सर खाने-पीनेकी ही गड़बड़से ही पैदा होती हैं, इसलिए भरसक ऐसी गड़बड़ न होने देनी चाहिये ।

इतने पर भी अगर बीमारी आ ही पडे़, तो अपने दिलको इस खयालसे समझना चाहिये कि बहुतेरी  बीमारियाँ इसलिए भी आती हैं कि वे देहरूपी मशीनके कल-पूर्जोको बेजा बोझसे हलका कर दें, और उसे फिरसे अच्छी तरह काम करने लायक बना दें । इसलिए बीमार पड़ते ही दवाइयोंकि बोतलों पर बोतलें खाली न करनी चाहियें, बल्की बीमारीको अपना काम करनेका मौका देना चाहिये । इससे कुछ ही दिनोंमे रोग अपने आप मिट जाता है, और शरीरके दोषोंको भी मिटानेका मौका मिलता है ।

बीमारीमें दवाईयोंका सहारा लेनेके बदले कुदरती इलाज करना गांधीजीको ज्यादा पसंद है । गीली मिट्टीकी पट्टी रखनेसे और पानीमें कमर तक बैठने (कटिस्नान) से बुरेसे बुरा, जहरीला बुखार और दूसरी बीमारियाँ मिट जाती हैं । गांधीजी बडे़ शौकसे इनका प्रयोग करते हैं ।

अपने आप पर और अपने प्यारे-से-प्यारे स्वजनों पर भी उन्होंने कई बार ये प्रयोग किये हैं, और इनमें वे कामयाब भी हुए हैं । सूरजकी रोशनीमें रहना और खुले आसमानके नीचे सोना भी गांधीजीके कुदरती इलाजोंमें शुमार है ।

लेकिन उनका बडे़से बडा़ इलाज उपवास या फाकेका ही है । उन्होंने कई भाईयों और बहनोंको बढा़वा दे-देकर अपनी देखरेखमें उपवास करनेको राजी किया है, और इस तरह उनको तंदुरूस्त बनाया है ।

जो गांधीजीके पास रहते हैं, उन्हें अकसर यह देखनेको मिलता है कि कई बीमारियाँ तो सिर्फ खुराकमें थोडा़ हेरफेर करनेसे ही दूर हो जाती हैं ।

यों, सौमें अस्सी बीमारियाँ तो कुदरती इलाजसे ही दूर हो जाती हैं । इसलिए इन बीमारियोंसे घबराकर सीधे डाक्टरकी शरणमें जाना मनुष्यको शोभा नहीं देता ।

फिर भी गांधीजीका खयाल है कि चन्द जहरीली या खतरनाक बीमारियोके लिए कुछ अचूक दवायें और होशियार सर्जनोंकी मदद, उनकी चीरफाड़, जरूरी है । खुद गांधीजीको भी इस तरहके कई तजरबोंमें से गुजरना पडा़ है ।

मगर किसी भी हालतमें बीमारीको देखकर बेकल हो जाना तो इन्सानकी शानके खिलाफ ही है । गांधीजीके पुत्र श्री रामदासभाईने और श्रीमती कस्तूरबाने अपनी लम्बी और भयावनी बीमारीके दिनोंमें भी माँसका शोरबा लेनेसे इनकार कर दिया था । डाक्टरोंने बहुतेरा कहा, पर दोनोंने हँसते-हँसते मर जाना पसंद किया, मगर मांस खानेसे कतई इनकार कर दिया । उनकी इस दृढ़ताको देखकर गांधीजीकी आत्मा बहुत पुलकित हुई, और उन्होंने अपने प्यारे बीमारोंको उनकी बहादुरीके लिए जी-जानसे असीसा ।

बीमारीके दिनोंमें घरवाले बाहर रहकर जितनी दौड़धूप मचाते हैं, उसके मुकाबले मरीजकी जितनी प्यारभरी सेवा होनी चाहिये, नहीं होती । गांधीजीको बीमारोंकी सेवाका बडा़ शौक है । देशका बडे़से बडा़ काम भी उनको अकसर इससे आगे फीका जँचता है । अपनी ताकत भर वे बीमारोंकी सेवाके अवसरको हाथसे जाने नहीं देते। इसलिए जो भाईबहन बीमार पड़कर उनकी निगरानीमें अच्छे होते हैं, वे अपनी तकदीरको सराहे नहीं रहते । उन्हें अपना वह सौभाग्य कभी नहीं भूलता ।

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