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भाषाओंका ज्ञान

वैसे गांधीजी कई भाषायें जानते हैं । पर उन्होंने पण्डित बननेके खयालसे कभी कोई जबान नहीं सीखी । जो कुछ सीखा, सेवाके विचारसे सीखा ।

गुजराती तो उनकी जबान है – मातृभाषा है । माता-पिताके कहनेसे अंग्रेजी उन्होंने स्कूलमें सीखा, फिर विलायत गये, वहाँ सीखा । दक्षिण अफ्रीकामें बरसों रहे, वहाँ वह पक्की हुई ।

अफ्रीकामें उन्हें मुसलमान माइयोंके बीच रहने और काम करनेका मौका मिला । उनकी सेवा करते-करते वे उर्दू बोलना और समझना सीख गये ।

इसी तरह अफ्रीकामें उन्हें मद्रासी मजदूरोंके साथ कामकाज करना पडा़ । वे लोग बहुत बडी़ तादादमें सत्याग्रही बनकर गांधीजीके साथ हुए । उनकी सेवाके विचारसे गांधीजीने कामचलाऊ तामिल भी सीखी ।

हिन्दुस्तानके कोने-कोनेमें अपना सन्देश पहुँचानेके खयालसे गांधीजीने कई बार सारे देशका दौरा किया । इन दौरोंमें उन्हें राष्ट्रभाषाके नाते हिन्दुस्तानका महत्व पट गया । उन्होंने देखा कि किसी भी प्रान्तमें जाकर वे हिन्दुस्तानी जबानमें अपनी बात लोगोंको समझा सकते हैं – लोग हर जगह हिन्दुस्तानी समझ लेते हैं । पहले गांधीजीका हिन्दी-हिन्दुस्तानीका ज्ञान बहुत कच्चा था, लेकिन अब उन्होंने उस पर काबू हासिल कर लिया है ।

गांधीजी इन भाषाओंको पढ़कर नहीं सीखे। रोज-रोजके अभ्याससे, अनुभव और तजरबेसे सीख गये। अब भी जब कभी मौका मिलता है, वै इनका अभ्यास बढ़ने और इन्हें सुधारनेकी कोशिश जरूर करते हैं ।

जब-जब लम्बी मुद्दतोके लिए उन्हें जेलमें रहना पडा़, उन्होनें तामिल और उर्दू सीखनेकी खास कोशिश की ।

कोई यह नहीं कह सकता कि गांधीजी मराठी ठीक-ठीक जानते हैं, फिर भी एक बार दक्षिण अफ्रीकामें उनेहोंने गोखलेजीका एक भाषण मराठीमें करवाया था, और खुद दुभाषिया बनकर उसका तरजुमा किया था । उसके बाद तो और सेवाग्राममें रहते हैं, इसलिए मराठीमें भी काफी तरक्की कर चुके हैं ।

बचपनमें थोडी़ संस्कृत वे स्कूलमें सीखे थे । बादमें जेल जाने पर उन्होंने इस भाषाका वहाँ अच्छा अभ्यास बढा़ लिया ।

विलायतमें रहते हुए गांधीजीने यूरोपकी पुरानी भाषा लैटिनका और वहाँ की राष्ट्रभाषा जैसी फ्रेंच भाषाका भी कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त कर लिया था ।

अपनी मातृभाषा गुजरातीका तो गांधीजीने बहुत ही विकास किया है । उनकी भाषा सीधी, सरल, आडम्बरहीन, तेजस्वी और भावोंसे भरी रहती है ।

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