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सिर्फ कुर्ता

हमें गांधीजीका अहसान मानना चाहिये कि उन्होंने सिर्फ एक कुर्ता पहनकर घूमने-फिरनेका रास्ता हमारे लिए खोल दिया ।

जानते हो, पहले क्या होता था?

बाप रे बाप ! सबके नीचे बनियान, उस पर कमीज, कमीज पर जाकट और जाकट पर कोट ।

इस सारे ठाठके साथ जब दुपहरकी गरमी पड़ती थी, तो मजा आ जाता था । बदन अन्दरसे आलूकी तरह सीज जाता और पसीना बदबू मारने लगता । लेकिन कोई माईका लाल ऐसा न था, जो हिम्मत करके इन सबको ठुकरा देता और सीधी-साधी पोशाकमें घरसे बाहर निकलता ।

अगर कोई बिना कोट पहने बाजारमें चला आता, तो उस पर अँगुलियाँ उठती–उसकी पोशाक अधूरी मानी जाती । गरमी बरदाश्त हो, चाहे न हो, कोट तो पहनना ही चाहिये । बिना कोटके पूरी पोशाक कैसी?

बिना कोटके स्कूलमें जाना तक मना था । कोई अन्दर घुसने न देता । लोग कहतेः धूरी पोशाक पहनकर पाठशालामें आना मना है ।'

बिना कोटके कोर्टों और कचहरियोंमें कोई खडा़ न रहने देता। लोग कहतेः 'ऐसे जंगली आदमियोंका यहाँ कोई काम नहीं।'

सब परेशान थे । सब तकलीफ पाते थे । पर जंगलियोंमें शुमार होनेकी हिम्मत कौन करे?

आखिर सत्याग्रही गांधीजीने यह दिखाई और सबके पहले सिर्फ कुर्ता पहनकर निकलना शुरू किया । लोग हँसी उडा़ने लगे । गांधीजी कहतेः 'हँसनेवाले हँसा करें । दरअसल तो इस गरम देशमें इतने कपडे़ लादकर फिरना ही जंगलीपन है । तिस पर हमारा यह देश इतना गरीब है । गरीबोंके इस देशेमें जरूरतसे ज्यादा कपडे़ पहनना भी एक पाप है।'

फिर तो सबमें हिम्मत आ गई । सब कोई सिर्फ कुर्ता पहनकर निकलने लगे । बडे़ भी, बूढे़ भी, और बच्चे भी । बच्चे तो खुश-खुश हो गये !

खादीका कुर्ता और खादीकी टोपी हमारी राष्ट्रीय पोशाक बन गई ।

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