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सफेद टोपी जिन्दाबाद !

सफेद टोपी लम्बी उमर लेकर जनमी थी । गांधीजीके समान अटल सत्याग्रही उसके जनक थे । फिर विरोधका पहाड़ भी टूट पडे़, तो उसकी बलासे ! वह क्यों मरने लगी?

मरना तो दर किनार, वह दिन दूनी, रात चौगुनी फैलने-फैलने लगी !

हँसी उडा़नेवाले रफ्ता-रफ्ता चुप हो गये । सफेद टोपी सबको जँच गई – पसन्द आ गई ।

गरीबोंने सस्ती समझकर उसे अपनाया ।

सफाई-पसन्द लोगोंने उसकी सफाईको पसन्द किया और पहनने लगे । रोज धोओ, रोज साफ ! कम खर्च, बाला नशीं ।

कवियों और कलाकारोंने भी उसे अपनाया । उसकी सुन्दरताकी जी-भर सराहना की । पुरानी टोपियोंका काला-कलूटापन उनकी रसिक आँखोंको अखरने लगा ।

स्वयंसेवकोंकी तो वह राष्ट्रीय पोशाक ही बन गई ।

बच्चे सफेद टोपी पहनकर शानसे घूमने लगे। उसे पहनकर वे अपनेको भारतमाताका सिपाही समझने लगे ।

यों होते-होते खादीकी सफेद टोपीका नाम उसके चलानेवालेके नाम पर मशहूर हो गया । अब वह गांधी टोपी कहलाने लगी ।

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