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सफेद टोपी

जब गांधीजीने पहले-पहले सफेद टोपी पहननी शुरू की, तो लोगोंको बडा़ अचरज हुआ ।

लोग कहने लगेः 'सफेद टोपी? अजी, कहीं टोपी भी सफेद हुई है? टोपी लाल हो सकती है, हरी हो सकती है, पीली या काली हो सकती है, मगर यह सफेद टोपी कैसी? इसे टोपी कहेगा कौन?'

जब गांधीजी सफेद टोपी पहनकर बाजारमें निकलते, तो लोग एक-दूसरेको दिखाकर हँसते हुए कहतेः 'अजी देखो तो, गांधीजीने यह क्या पहना है?' कुछ मनचले मजाक भी उडा़ते। कहतेः 'यह टोपी है, या काशीके पण्डेका कनटोप?'

लेकिन लोगोंके इस हँसी-मजाक पर ध्यान देनेकी फुरसत किसे थी? गांधीजीने तो कभी इन बातोंका खयाल ही नहीं किया । वे कहतेः 'लोगोंको यह टोपी अच्छी नही लगती, भले न लगे । यह तो मानना ही पडे़गा कि इससे खादीकी बचत होती है, और फिजूलखर्ची रूकती है ।'

किसीने समझौता करानेकी गरजसे कहाः 'गांधीजी खादीकी टोपी पहनना पसंद करते हैं, भले करें । पर सफेद टोपीकी यह जिद क्यों. क्या वे उसे रँगवाकर नहीं पहन सकते? सफेद टोपी तो बहुत जल्द मैली हो जाती है ।'

सच पूछो तो जितना मैल सफेद पर जमता है, उतना ही काली पर भी, लेकिन कालेमें काला इस तरह छिप जाता है कि काली चीज मैली नहीं दिखाई पड़ती । इसलिए गांधीजीका एक ही जवाब रहाः 'भई, मैल छिपानेके लिए रंगीन टोपी पहननेसे बेहतर तो यह है कि मैली टोपी झट-झट धो डाली जाय । यह सफेद टोपी रोज धुल सकती है, और रोज नई रह सकती है । हम उस पर मैल जमने ही क्यों दें? लोगोंको बात जँच गई, और सफेद टोपी जी गई !

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