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खादीकी टोपी

अहदाबादके मिल-मजदूरोंका मिल-मालिकोंसे झगडा़ हो गया । मजदूरोंने हड़ताल कर दी। अनसूयाबहन इन हड़तालियोंकी अगुआ बनीं । जहाँ अनसूयाबहन अगुआ हों, वहाँ गांधीजी न रहे, यह कैसे हो सकता था?

 करीब एक महीने तक झगडा़ चला । गांधीजी रोज मजदूरोंसे मिलते और रोज उन्हें अपनी बातें समझाते ।

गरीब मजदूरोंकी रोजी मारी जा रही थी । उन्हें पेटभर खानेको नहीं मिलता था । फिर भी वे उत्साहके साथ गांधीजीकी बातें सुनते आते थे, और अपनी हड़ताल पर चट्टानकी तरह कायम थे ।

जैसे-जैसे दिन बीतते गये, गांधीजी मजदूरोंमें और मजदूर गांधीजीमें घुलते-मिलते गये । दोनोंमें जो फर्क दिखाई पड़ता था, वह खुद गांधीजीको ही अखरने लगा । उन्होंने सोचाः जब इन मजदूरोके पास पहनेको पूरे साबित कपडे़ तक नहीं हैं, तब मुझे क्या हक है कि मैं तन पर इतने सारे कपडे़ लादे फिरू. मेरी इन लम्बी पगडी़की दस टोपियाँ बन सकती हैं, और दस आदमियोंके सिर ढँकसकती हैं । बस, तभीसे गांधीजीने पगडी़ या फेंटा पहनना छोड़ दिया और टोपी पहनना शुरू कर दिया । उन्होंने अपनी धोतीका कपडा़ भी कम कर दिया। लम्बे अँग रखेको बेकार समझ छोड़ दिया, और आधी बाँहोंवाले छोटे कुर्तेसे काम चलाने लगे । इस तरह जब गांधीजीने पोशाकमें भी मजदूरोंका ढंग अपना लिया, और खुद मजदूर-से बन गये, तब कहीं उनकी सत्याग्रही आत्माको तसल्ली हुई ।

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