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खादी

यह उन दिनोंकी बात है, जब गांधीजीको न तो चरखा ही मिला था, और न उनके साथियोंमें कोई कातना ही जानता था । वह एक ऐसा जमाना था, जब शुद्ध खादीका नाम भी किसीको मालूम न था । ये सारी बातें तो बादमें पैदा हुई । इससे पहले गांधीजी देशी मिलोके कपडे़का ही उपयोग करते थे । बादमें उनके साथियोंमें से कुछने हाथ-करघे पर कपडा़ बुनना सीखा, और तबसे गांधीजी करघेका बुना हुआ मोटा कपडा़ पहनने लगे । लेकिन करघेके लिए भी सूत तो मिलका ही काम आता था । उन दिनों हाथ-कता सूत देता कौन?

यों होते होते कई दिनों बाद बडी़ मुश्किलसे गांधीजीको श्रीमती गंगाबहन मजूमदार मिलीं, जिनकी मददसे उनेहोंने चरखा पाया ।

फिर तो वे और उनके कई साथी-संगी चरखा चलाना सीखे, और यों चरखे पर कता हुआ सूत बुना भी जाने लगा ।

अब भला गांधीजी मिलके सूतका कपडा़ क्यों पहनने लगे? उन्होंने तभीसे शुद्ध खादीके कपडे़ पहनने शुरू कर दिये ! वे खादीके कपडे़ पहनने तो लगे, पर पहनते पूरी पोशाक थे । खादीकी लम्बी धोती, खादीका कुर्ता, कुर्ते पर लम्बी बाँहोंवाला अँगरखा, सिर पर खादीका लम्बा फेंटा और कन्धे पर खादीका दुपट्टा – यही उन दिनोंकी उनकी पोशाक थी । इतने सारे कपडे़ पहनकर घूमना-फिरना उन्हें अच्छा तो न लगता था, फिर भी महज सभ्यताके खयालसे वे उन कपडोंको लादे रहते थे ।

उतनेमें एक घटना ऐसी घट गई कि गांधीजीको अपना तरीका बदल देना पडा़ । उन्होंने सोचा : 'इस झूठी सभ्यताके खातिर मैं क्यों नाहक इतने कपडे़ लादे फिरू? इन सबकी जरूरत ही क्या है? बस, इसी घटनाके कारण खादीकी टोपीका जन्म हुआ ।

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