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जिन्दा लाठियाँ

जब गांधीजी हवाखोरीको निकालते हैं, तो छोटे-बडे़ कई बच्चे भी उनके साथ हो लेते हैं, और गांधीजीके साथ गपशप लडा़नेका मजा लूटते हैं ।

मगर गांधीजीके साथ घूमने जानेवालोंको दरअसल जो मजा मिलता है, वह तो कुछ और ही है । चलते समय गांधीजीको लाठीका सहारा तो चाहिए न? बस, ये बच्चे उनके अगलबगल खडे़ हो जाते हैं, और गांधीजीके दोनों हाथोंको अपने कंधो पर ले लेते हैं ।

यों दोनों तरफ दो जिन्दा लाठियाँ चलने लगती हैं, और बीचमें गांधीजी बातचीत करते हुए हवा खाते चलते हैं । गांधीजी इन बच्चोंको अपनी जिन्दा लाठियाँ कहते हैं, और आश्रमके जिन बच्चोंको यों अरसे तक बापूकी लाठी बननेका मौका नहीं मिलता, वे मन-ही-मन मुरझाये रहते हैं ।

लेकिन यह न समझना कि बापूकी लाठी बनना कोई आसान काम है । लोग शायद सोचते होंगे : गांधीजी बूढे़ हैं; धीमे-धीमे, डगमगाते हुए चलते होंगे।' 'लेकिन बात ऐसी नहीं है। बापूको हमेशा चलते 'डबल मार्च' की चालसे चलनेकी आदत है । ऐसे समय अगर उनकी जिन्दा लाठियाँ नन्हीं हुई, तो बेचारियोंको बरबस उनके साथ दोड़ना ही पड़ता है ।

इस तरह हवाखोरीकी मस्तीमें और बातोके सपाटोमें अकसर बच्चोंको – बाल-लाठियोंको-प्रार्थनाके वक्तका खयाल भूल जाता है । लेकिन गांधीजी भला उसे क्यों भूलने लगे? वे जब देखते हैं कि समय होने आया, तो झट दौड़ना शुरू कर देते हैं । फिर तो उनके साथ उनकी लाठियोंको भी दौड़ना पड़ता है ।

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