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वैष्णव

अगर कोई गांधीजीसे पूछेः 'आपका धर्म क्या है?' तो वे कहेंगेः 'वैष्णव ।'

जो उन्हें नहीं जानते, यह सुनकर अचरज हो सकता है । क्योंकी गांधीजी न कभी मन्दिरमें जाते हैं, न घरमें देवताकी पूजा करते हैं, न भगवानको भोग लगाते हैं, और न खुद गलेमें कण्ठी या माला पहनते हैं । तिस पर जात-पाँतका कोई खयाल नहीं रखते – हर किसीके साथ बैठकर खा लेते हैं ।

भला, ऐसे आदमीको कोई वैष्णव कह सकता है?

मगर गांधीजी पूछो, तो वे कहेंगेः 'भई, मैं तो अपनेको वैष्णव ही मानता हूँ । नरसिंह मेहताने वैष्णवके जो लक्षण बताये हैं, उनको मैं जानता हूँ और वैसा वैष्णव बननेकी कोशिश कर रहा हूँ । मेहताजी कहते हैः

वैष्णव जन तो तेने कहीऐ

जे पीड पराई जाणे रे

परदुःखे उपकार करे तोये,

मन अभिमान न आणे रे ।

वैष्णव.

सकळ लोकमां सहुने वन्दे,

निन्दा न करे केनी रे,

वाच काछ मन निश्र्चळ राखे,

धन धन जननी तेनी रे ।

 वैष्णव.

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी,

पर स्त्री जेने मात रे,

जिह्वा थकी असत्य न बोले,

परधन नव झाले हाथ रे ।

वैष्णव.

मोह माया व्यापे नहि जेने,

दृढ़ वैराग्य जेना मनमां रे,

रामनामशुं ताळी रे लागी,

सकळ तीरथ तेना तनमां रे ।

वैष्णव.

वणलोभी ने कपटरहित छे,

काम क्रोध निवार्या रे,

भणे नरसैंयो, तेनुं दरशन करतां,

कुळ इकोतेर तार्या रे ।

वैष्णव.

वैष्णव वह है, जो दूसरोंकी तकलीफको समझता है; दुःखमें दूसरोंकी मदद करता है; पर मनमें जरा भी गुरूर नहीं आने देता ।

वैष्णव वह है, जो दुनियामें सबके सामने झुकता है, किसीकी निन्दा नहीं करता, और खुद मन, वचन और शरीरसे निश्र्चल रहता है ।

वैष्णव वह है, जो सबको बराबरीकी निगाहसे देखता है, जो तृष्णा छोड़ चुका है, जो पराई औरतोंको माँ समझता है, जबानसे कभी झूठ नहीं बोलता, और पराये धनको कभी हाथ नहीं लगाता ।

वैष्णव वह है, जिस पर मोह और मायाका कोई असर नहीं होता, जिसके मनमें पक्का वैराग्य जमा हुआ है, और जिसे रामनामकी लौ लग चुकी है ।

वैष्णव वह है, जो छल-कपटसे दूर रहता है, लालचको पास नहीं फटकने देता, और काम-क्रोध पर सवारी कसे रहता है ।

नरसिंह मेहता कहते हैं कि जो ऐसा वैष्णव है, उसकी माताको सौ-सौ बार धन्यवाद है, उसके शरीरमें सभी तीर्थ समाये हुए हैं, और उसका दर्शन करनेसे मनुष्यकी इकहत्तर पीढियोंका उद्वार हो जाता है ।

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