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प्रहलाद और हरिश्चन्द्र

इन दोनों सत्याग्रहियोंकी कथा पर गांधीजी बचपन ही से मुग्ध हैं । जो खुद सच्चाइसे प्यार करता है, उसे सच बोलनेवालोंकी, सत्यवादियोंकी, कथायें क्यों न प्यारी लगेंगी?

राजा हरिश्चन्द्रने सत्यके लिये कितनी तकलीफें उठाई? राज खोया, पाट खोया, जंगलोंमें मारे-मारे फिरे, स्त्री बेची, पुत्र बेचा और फिर खुद चाण्डालके हाथ बिक गये । रोंगटे खड़े करनेवाली मुसीबतें सहीं, लेकिन सच्चाई न छोडी़ । कहते हैं, गांधीजीने बचपनमें 'हरिश्चन्द्र' का एक नाटक देखा था । बस, जिस दिन वह नाटक देखा, उस दिनसे वे हरिश्चन्द्रके ही सपने देखने लगे । हरिश्चन्द्रकी याद आते ही वे अकसर रो पड़ते थे । उन्होने लिखा है कि आज भी वे उस नाटकको पढे़, तो उनकी आँखें आँसुओंसे तर हुए बिना न रहें । वे कहा करते हैं कि हरिश्चन्द्रकी तरह दुःख सहने और तिस पर भी सच्चाईसे तिलमात्र न हटनेका नाम ही सत्य है ।

गांधीजीको हरिश्चन्द्रसे भी बढ़कर प्रह्लादकी कथा प्यारी है । हरिश्चन्द्र तो राजा थे, अनुभवी थे और ज्ञानी थे

लेकिन प्रह्लाद?

वह तो एक नन्हा-सुकुमार बालक था । राक्षसके घर पैदा होकर भी उसने भगवानका नाम लेनेकी हिम्मत दिखाई थी । पिताने उसे पहाड़ पर से फिंकवाया, पर उसने रामनाम न छोडा़ । समुद्रमें डुबोया, तो भी रामनाम न छोडा़ । जलते हुए खम्भेसे लिपटनेको कहा गया, वह निधड़क लिपट गया, उसने रामनाम न छोडा़ ।

गांधीजी प्रह्लादके इस सत्याग्रहको हमेशा अपने सामने रखते हैं । और उठते-बैठते उसीका उदाहरण दिया करते हैं – 'प्रह्लादके समान कमसिन बालक भी सत्याग्रहकी ताकत दिखा सकता है । सत्याग्रहके लिए न पहलवानोंकी-सी तीकत जरूरी है, न राजाके-से सैन्यबलकी आवश्यकता है ।'

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