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पुतलीबाई

गांधीजीक माँका नाम पुतलीबाई था। वे बडी़ भावुक थीं । बिना पूजापाठ किये कभी खाना न खाती थीं और रोज देवदर्शनके लिए मन्दिरमें जाती थीं ।

महीनेमें दो बार बिना नागा एकादशीकी व्रत रखती थीं, और दिनमें एक बार खा कर रह जाना तो उनके लिए बायें हाथका खेल था ।

बारिशके चार महीनोंमें, चातुर्मासमें, वे तरह–तरहके व्रत–उपवास किया करती थीं – कभी चान्द्रायण, कभी एकाशन, कभी कुछ कभी कुछ ।

किसी साल चौमासेमें वे कुछ कडे़ व्रत भी किया करती थी । एक व्रत सूरजवंशीका था, यानी जिस दिन सूरज दिखाई दे जाए, उसी दिन खाना, वरना उपासे रह जाना ।

ऐसी भोली और भावुक माँ पर बच्चोंका बेहद प्यार हो, तो उसमें अचरज ही क्या? जिस दिन माँको भूखों रहना पड़ता, बच्चे दिन-दिन भर बादलोंकी ओर ही देखा करते, और ज्यों ही सूरज दिखता, दौड़कर माँके पास खबर देने पहुँच जातेः

'माँ, माँ ! दौडो़, दौडो़, सूरज निकला ।' लेकिन माँ पहुँचें, पहुँचे, इतनेमें तो सूरज फिर बादलोंमें छिप जाता और यों माँको कई बार भूखों रह जाना पड़ता ।

मगर माँ बातकी ऐसी तो पक्की थीं, कि दुनिया चाहे उलट जाये, खुद बीमार पड़ जायँ, अरे जान चली जाये , तो भी व्रत तो व्रत ही रहता था !

ऐसी टेकवाली, ऐसी भली, ऐसी भोली और भावुक माँ जिनकी थीं, उन गांधीजीका फिर क्या पूछना था?

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