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भारत का विभाजन

इस प्रकार 3 जून 1947 की वह योजना सामने आई, जिसके अनुसार 15 अगस्त, 1947 को दो उत्तराधिकारी राज्यों को सत्ता सौंपने की बात तय हुई। जिस बात का गांधीजी को भय था, वह हो ही गई। भारत का बंटवारा होने को था, लेकिन विभाजन ऊपर से लादा नहीं जा रहा था। इसे नेहरू, पटेल और कांग्रेस के अधिकतर नेताओं ने स्वीकार कर लिया था। गांधीजी को इस निर्णय की बुद्धिमत्ता में गंभीर संशय था। जिन उत्पातों के डर के कारण कांग्रेसी नेताओं और ब्रिटिश सरकार के लिए विभाजन नितान्त आवश्यक हो गया था, उन्हें उत्पातों और हिंसा के कारण गांधीजी विभाजन का दृढ़ता से विरोध कर रहे थे। उन्होंने कहा कि देश में गृह-युद्ध के खतरे की वजह से विभाजन स्वीकार करने का अर्थ होगा, "इस बात को मान लेना कि यदि उन्मत्त होकर हिंसा और उत्पात का यथेष्ट मात्रा में सहारा लिया जाय तो हर चीज प्राप्त की जा सकती है।"

पाकिस्तान बनने का अंतिम रूप से फैसला हो जाने पर गांधीजी ने उसके दुष्परिणामों के रोकथाम की कोशिश शुरू कर दी। उन्होंने जल्दी से कश्मीर, पंजाब और बंगाल का दौरा किया । सत्ता के हस्तान्तरण के ठीक पहले कलकत्ता में उनकी उपस्थिति ने जादू का सा काम किया। गत बारह महीनों का सांप्रदायिक तनाव और विद्वेष एकाएक समाप्त हो गया। जब एक पखवाड़े के बाद फिर दंगे शुरू हुए तो उनके उपवास ने सारे कलकत्ते को इस तरह हिला दिया मानों बिजली छू गई हो । मुसलमान विचलित हो उठे और हिन्दू लज्जा से नतमस्तक। सभी संप्रदायों के नेताओं ने शांति का प्रण लिया और गांधीजी से उपवास तोड़ने की प्रार्थना की। कलकत्ते के अनशन को 'चमत्कार' कह कर लोगों ने उसके प्रभाव को स्वीकार किया । 'लंदन टाइम्स' ने इसके विषय में जो कहा था उसे बार-बार उद्धृत किया गया है। इस पत्र ने लिखा था कि एक उपवास ने वह कर दिखाया जो सेना की कई डिवीजनें भी नहीं कर पाती ।

अब गांधीजी ने अपना ध्यान पंजाब की ओर लगाया, जहां हिन्दुओं की एक बहुत बड़ी जनसंख्या के पश्चिम से पूर्व की ओर और इतने ही मुसलमानों के पूर्व से पश्चिम की ओर भगदड़ ने, मानवीय कष्टों और तबाही का जो दृश्य उपस्थित किया था, उसका उदाहरण समसामयिक इतिहास में मिलना मुश्किल है। पंजाब के गांवों और शहरों के भयग्रस्त लोग काल्पनिक आशा-निराशा और आशंका के बीच डूबते-उतराते मोर्चाबन्दी करके लड़ाई की तैयारी में लगे थे। सांप्रदायिक आधार पर कर्मचारियों की अदला-बदली के कारण प्रशासन-तंत्र एकदम निकम्मा और कमजोर हो गया था। अगस्त महीने के अंत तक पुलिस और फौज पर सांप्रदायिक तत्वों के पूरी तरह हावी हो जाने के कारण हिन्दुओं का पश्चिमी पंजाब में और मुसलमानों का पूर्वी पंजाब में रहना असंभव हो गया था। जब शरणर्थियों के काफिले मंजिल पर पहुंच कर आप-बीती के दुखभरे वृत्तांत सुनाते तो वहां भी हिंसा और उत्तेजना फैल जाती। सितम्बर के शुरू में जब गांधीजी दिल्ली पहुंचे तो भीषण उपौवों के कारण वहां का कामकाज ठप्प हो गया था। नेहरू के नेतृत्व में सरकार ने निष्पक्षता से और बड़ी फुर्ती से काम किया था। लेकिन पुलिस और सेना द्वारा थोपी गयी शांति से गांधीजी भला कैसे संतुष्ट हो सकते थे। वह हिन्दू और मुसलमानों के दिल से हिंसा को दूर करना चाहते थे। काम बड़ा ही दुसाध्य था। राजधानी में कई शरणार्थी कैम्प थे। कुछ में पश्चिमी पाकिस्तान से भाग कर आये हिन्दू और सिख शरणार्थी भरे थे और कुछ में दिल्ली से भागने वाले मुसलमान सीमा के पार जाने की प्रतीक्षा में पड़े थे।


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