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शांति-दूत

मुसीबत की जो कहानियां गांधीजी ने सुनी, उनसे उनकी अन्तरात्मा को भारी आघात पहुंचा। लेकिन उनका यह विश्वास अडिग बना रहा कि विद्वेष और हिंसा की उत्तरोत्तर वृद्धि का अन्त केवल प्रेम और अहिंसा से ही हो सकता है। नित्य संध्या समय अपनी प्रार्थना-सभा में वह इस प्रश्न की चर्चा करते। वह इस बात पर जोर देते कि बदला लेने से समस्या हल नहीं होगी। लोगों को शिक्षित करने के प्रयास में उन्होंने अपने को थका डाला। वे रोज लोगों की शिकायतें सुनते, दुख दूर करने के उपाय सुझाते, रोज के अनगिनत मिलने वालों में किसी की पीठ ठोंकते, किसी को झिड़कते, शरणार्थी कैम्पों का चक्कर लगाते और स्थानीय अधिकारियों से भी मिलते रहते थे।

13 जनवरी, 1948 को उन्होंने उपवास आरंभ किया। इसके संबंध में उन्होंने अपनी अंग्रेज शिष्या मीरा बहन को लिखा था : "मेरा सब से बड़ा उपवास"। यह उनका अंतिम उपवास भी था। जब तक दिल्ली में शांति नहीं स्थापित हो जाती, तब तक उपवास नहीं टूटने को था। उपवास से पाकिस्तान में नयी विचारधारा शुरू हुई। भारत के लोगों को भी इसने झकझोर दिया। जिस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने प्राणों की बाजी लगा दी थी, उस पर नये सिरे से सोचने के लिए लोग बाध्य हुए। 18 जनवरी को दिल्ली में विभि़ दलों और पार्टियों के प्रतिनिधियों ने गांधीजी की उपस्थिति में एक प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर किये जिसमें उन्होंने दिल्ली में शांति बनाये रखने का जिम्मा लिया।

इस उपवास के बाद सांप्रदायिक उपौवों का जोर बराबर घटता गया। गांधीजी ने भविष्य की योजनाओं की ओर अपना ध्यान लगाया। उन्होंने सोचा कि दोनों देशों और दोनों संप्रदायों के बीच सद्भावना बढ़ाने के लिए उन्हें स्वयं पाकिस्तान जाना चाहिए।

जब गांधीजी सांप्रदायिक हिंसा से जूझने में लगे थे, वह इस बात को नहीं भूले थे के भारत की वास्तविक समस्या यहां के लोगों का आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन है। राजनैतिक स्वाधीनता के बाद गांधीजी का ध्यान रचनात्मक कार्य़ों की ओर अधिक आकर्षित होने लगा। इसके अतिरिक्त वे अपनी अहिंसा-प्रविधि को नये ढंग से सुधारना भी चाहते थे।

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