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"भारत छोड़ो"

अगस्त 1942 में "भारत छोड़ो" प्रस्ताव पास होने पर कांग्रेस महासमिति का भारत सरकार से सीधा संघर्ष हो गया। वाइसराय को ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का पूरा समर्थन प्राप्त था और उन्होंने कठोर कदम उठाए। गांधी, नेहरू और करीब-करीब सभी कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिए गए। कांग्रेस पर घनघोर दमन-चक्र चला। उसके सभी दफ्तर सील-बन्द कर दिए गए। कोष जब्त हो गए। प्रचार के सारे साधनों पर रोक लगा दी गई। सरकार के इस तूफानी हमले की भीषण प्रतिक्रिया हुई। गिरफ्तारी के पहले कांग्रेस महासमिति में अपने अन्तिम भाषण में गांधीजी ने अहिंसा को शुरू की जाने वाली लड़ाई का आधारभूत सिद्धांत बताया और इस पर काफी जोर दिया था। लेकिन सरकार के भयंकर दमन से विक्षिप्त और क्रुद्ध जनता ने इस सलाह पर कोई ध्यान नहप दिया। देश के कई भागों, बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल और बम्बई में लोगों के संयम के बांध टूट गए और उन्होंने अंग्रेजी राज से सम्बद्ध सभी संस्थाओं और प्रतीकों को जला डाला। चर्चिल ने हाउस आफ कामंर्स में कहा, "कांग्रेस ने अब अहिंसा की उस नीति को, जिसे गांधीजी एक सिद्धांत के रूप में अपनाने पर इतने दिनों से जोर देते आ रहे थे, त्याग दिया है और खुल कर क्रान्तिकारी आन्दोलन का रास्ता अपना लिया है।" देश और विदेश में यह धुआंधार प्रचार किया जाने लगा कि यह सारी तोड़फोड़, हिंसा और आगजनी कांग्रेसी नेताओं द्वारा ही तैयार किए गए षड्यंत्र का परिणाम है। गांधीजी पर यह भी आरोप लगाया गया कि उनकी सहानुभूति 'धुरी' राष्ट्रों (जर्मन-इटली) के साथ है और वह जापान द्वारा भारत-विजय में मदद कर रहे हैं। सरकारी प्रचार का शुरू में तो कुछ प्रभाव पड़ा लेकिन वह ज्यादा दिन टिका नहप। अफ्रीका में गांधीजी के पुराने विरोधी स्मट्स ने नवम्बर, 1942 में एक पत्रकार-सम्मेलन में कहाः "महात्मा गांधी को पंचमांगी, देशौाsही या घर का भेदी कहना निरी बकवास है। वह महान हैं, दुनिया के महान पुरुषों में से एक हैं।"

महादेव देसाई, जिन्होंने 25 वर्ष तक गांधीजी के सचिव के रूप में काम किया था, का जेल जाने के एक सप्ताह के भीतर दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो गया और गांधीजी की धर्मपत्नी कस्तूरबा लम्बी बीमारी के बाद 1944 में स्वर्ग सिधार गई। 1944 के आरम्भ में स्वयं गांधीजी के स्वास्थ्य की सरकार को चिन्ता हुई। उन्हें जूड़ी बुखार हो गया था और तेज ज्वर रहने लगा। अब युद्ध में अंग्रेज और उनके मित्र जीत रहे थे। सरकार को लगा कि गांधीजी को जेल में मरने देने की अपेक्षा उन्हें रिहा कर देने में कहप कम खतरा है।

मई, 1944 में जेल से छूट जाने पर गांधीजी ने राजनीतिक गतिरोध तोड़ने की दिशा में स्वयं पहल की। न तो चर्चिल, जो अभी भी इंग्लैंड के प्रधानमंत्री थे और न  जिन्ना, जिनकी राय मुस्लिम लीग में सर्वाधिक महत्व रखती थी, राजनैतिक तनाव दूर करने को उत्सुक मालूम हुए। अंग्रेज अधिकार छोड़ने की इच्छा नहप रखते थे और मुस्लिम लीग तो स्पष्टतः उस अवसर की घात में बैठी थी जब वह सौदा करके अधिक-से-अधिक लाभ पा सके। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने एक फार्मूले का सुझाव दिया, जिससे मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग का सार उसे मिल जाता था। इस फार्मूले पर गांधीजी ने  जिन्ना से बात की लेकिन लीग नेता ने इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया।

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