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हिंसात्मक विश्व में अहिंसा

दूसरे महायुद्ध ने भारतीय उपगमहाद्वीप में तनाव पैदा किए और बंटवारे की विचारधारा को प्रोत्साहित किया। जवाहरलाल नेहरू ने अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति का गांधीजी को जो परिचय दिया था, उसके आधार पर उनकी पूरी सहानुभूति हिटलर और मुसोलिनी द्वारा आक्रान्त देशों के साथ थी। स्वयं गांधीजी अपने जीवन भर हिंसक शक्तियों से संघर्ष करते रहे। पिछले तीन वर्ष़ों से भी अधिक समय से एक ऐसी अहिंसात्मक प्रविधि का विकास करने में लगे थे, जो समस्याओं का शान्तिपूर्वक हल ढूंढ कर संघर्ष और युद्ध का निवारण कर सके।

अहिंसा पर गांधीजी के विचारों को परिपक्व होने में बहुत वर्ष लगे। बोअर-युद्ध में और प्रथम महायुद्ध में उन्होंने एम्बुलेंस-दल गठित किए थे और अंग्रेजों की भारतीय सेना के लिए रंगरूट भी भरती किए थे। उनका विचार था कि इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता कि उन्होंने स्वयं बन्दूक नहीं उठाई थी। बाद में उन्होंने स्वयं स्वीकार किया थाः "अहिंसा की दृष्टि से तो मैं अपने उन कार्य़ों का समर्थन नहीं कर सकता। मैं हथियारों से लड़ने वालों और रेडक्रास का काम करने वालों में कोई फर्क नहीं देखता। दोनों ही लड़ाई में भाग लेते हैं और उसके उद्देश्य में सहायता करते हैं। युद्ध के पाप के अपराधी तो दोनों ही हैं। गत वर्ष़ों में आत्मपरीक्षण के बाद भी मेरा विचार है कि उस समय मैं जिस परिस्थिति में था, मेरे लिए कोई विकल्प न था।"

जिन भारतीयों का गांधीजी ने बोअर-युद्ध में नेतृत्व किया था या जिन्हें 1914-18 के युद्ध में अंग्रेजों की सेना में भरती होने को प्रेरित किया, उनका अहिंसा में कोई विश्वास नहीं था। हिंसा के प्रति घृणा से नहीं, बल्कि कायरता या उदासीनता के कारण उन्होंने हथियार नहीं उठाए थे। उन दिनों गांधीजी का ब्रिटिश साम्राज्य की नेकनीयती में पूरा विश्वास था। वह यह भी सोचते थे कि साम्राज्य के नागरिक होने के नाते, भारतीयों के अगर अधिकार थे, तो कर्तव्य भी थे और साम्राज्य की रक्षा करना इनमें से एक था।

पहले और दूसरे महायुद्धों के बीच के बीस वर्ष़ों में ब्रिटिश साम्राज्य में गांधीजी का विश्वास सदा के लिए समाप्त हो गया था। साथ ही अहिंसा की शक्ति में उनका विश्वास उत्तरोत्तर दृढ़ होता गया। युद्ध का खतरा जितना बढ़ता गया और हिंसा की शक्तियां जितनी बलवती होती गय, अहिंसा की अमोघता में गांधीजी का विश्वास भी उसी मात्रा में बढ़ता गया। उनका यह विचार दृढ़ होता गया कि विश्व-इतिहास की इस संकट की घड़ी में, भय से कंपित मानवता को देने के लिए भारत के पास एक सन्देश है। अपने साप्ताहिक पत्र 'हरिजन' के पृष्ठों में उन्होंने सैनिक आक्रमण और राजनैतिक अत्याचारों का अहिंसात्मक ढंग से विरोध करने के उपायों का वर्णन किया। उन्होंने कमजोर राष्ट्रों को सलाह दी कि वे अधिक बलवान सैनिक राष्ट्रों का संरक्षण प्राप्त करके नहीं, अपितु अहिंसात्मक प्रतिरोध के द्वारा आक्रमणकारी से अपनी रक्षा करें। अहिंसावादी एबीसीनिया को राष्ट्र संघ से न तो शस्त्राsं की आवश्यकता होगी, न संकटकालीन सहायता की। अगर एबीसीनिया का हर बालक, बूढ़ा और जवान इटली के सैनिकों से सहयोग करना बन्द कर दे, तो आक्रमणकारी सैनिकों को उनकी लाशों पर चल कर ही विजय तक पहुंचना होगा और जिस देश को वे अपने अधिकार में करेंगे, वह एकदम निर्जन होगा।

यह कहा जा सकता है कि गांधीजी मानव की सहनशक्ति से बहुत अधिक अपेक्षा कर रहे थे। शत्रु के आगे समर्पण न करके एक-एक आदमी, औरत और बच्चे का मर जाना सामान्य साहस की बात नहीं। गांधीजी का अहिंसात्मक प्रतिरोध संकट से जान बचाने का सुविधाजनक सिद्धान्त होता तो उनकी ओट ली जा सकती थी, लेकिन ऐसी बात तो थी नहीं। और न वह तानाशाहों की हिंसा और पशुबल के आगे स्वेच्छा के आत्म-समर्पण ही था। अहिंसात्मक प्रतिरोध करने वालों को तो परमकोटि के बलिदान के लिए तैयार रहना होता है।

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